निर्वासनिक बनें….

निर्वासनिक बनें….


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

ʹश्रीयोगवाशिष्ठ महारामायणʹ में आता हैः

ʹहे राम जी ! बहुत शास्त्र और वेद मैं तुम्हें किसलिये सुनाऊँ और कहूँ ? वेदान्तशास्त्र का सिद्धान्त यही है कि किसी भी प्रकार से वासना से रहित हो, इसी का नाम मोक्ष है। वासनासहित का नाम बंधन है।

हे राम जी जो निर्वासनिक हुआ है, उसका दर्शन पाने की सभी इच्छा करते हैं और दर्शन करके प्रसन्न होते हैं। जैसे सूर्य के उदय होने से सूर्यमुखी खिल जाते हैं और उल्लास को प्राप्त होते हैं, वैसे ही उनका दर्शन करके सब आह्लादित होते हैं।ʹ

जो निर्वासनिक हो गये हैं एवं जिन्होंने अपना-आपा, अपना वास्तविक स्वरूप जान लिया है उनको देखकर सब आनंदित होते हैं, उल्लसित होते हैं।

जो समदर्शी पुरुष हैं, जिन्होंने भगवान के साथ अपनी एकता का अनुभव कर लिया है, जो ब्रह्मज्ञानी हो गये हैं, ऐसे महापुरुषों को देखकर संसार के लोग भी आध्यात्मिक होने लगते हैं।

नानक जी ने कहा हैः

ब्रहम गिआनी को खोजे महेशवरु। ब्रहम गिआनी आप परमेश्वरू।।

ब्रहम गिआनी का कथिया न जाइ आधा अख्खर। ब्रहम गिआनी सरब का ठाकरू।।

जो ईश्वर को समर्पित होकर कर्म करता है उसको ईश्वर की प्रीति प्राप्त होती है और धीरे-धीरे ईश्वरत्व का ज्ञान हो जाता है। फिर उसको पता चलता है कि कई जन्मों तक संसार के लिए कर्म करता रहा – पति के लिए, पत्नी के लिए, पुत्र के लिए, अपने शरीरादि के लिए… किन्तु किया कराया सब मृत्यु की झपेट में चौपट होता रहा। ʹलखपति करोड़पति….ʹ होकर आनंद ले लिया, आखिर क्या ? जब तक अपने असली आनंद को नहीं जाना तब तक कितनी भी गाड़ियों में घूमे, कितना ही धन इकट्ठा कर लिया, आखिर क्या ?

जिसका कर्म शुभ होता है, दान-पुण्य, जप-ध्यान, सेवा-साधना में जिसकी रूचि होती है उसकी बुद्धि शुद्ध होने लगती है एवं बुद्धि शुद्ध होते-होते वह आत्मा-परमात्मा को जानने में सफल हो जाता है, जीवन्मुक्त हो जाता है। ऐसे पुरुष को देखकर संसारी लोग आह्लादित होते हैं, आनंदित होते हैं, उनसे सत्प्रेरणा पाते हैं एवं अपना जीवन धन्य बना लेते हैं।

यदि अपने आत्मतत्त्व को नहीं जाना तो बाकी का सब तो यहीं छोड़कर जाना है। कोई ज्यादा कमायेगा तो ज्यादा छोड़कर मरेगा, कोई कम कमायेगा तो कम छोड़कर मरेगा, लेकर तो कोई भी नहीं जायेगा। अतः मिले तो आत्म तत्त्व का ज्ञान मिले जो कभी बिछुड़ता नहीं है।

जेकर मिले त राम मिले, ब्यो सब मिल्यो त छा थ्यो ?

दुनिया में दिल जो मतलब, पूरो थियो त छा थ्यो ?

संसार की आसक्ति जितनी-जितनी मिटेगी और भगवान की प्रीति जितनी-जितनी बढ़ेगी, उतना-उतना मानव भीतर से महान होगा। जितनी-जितनी आसक्ति बढ़ेगी, उतना-उतना वह भीतर से साधारण होता जायेगा। फिर उसकी आवश्यकताएँ बढ़ जायेंगी और उसे डर भी ज्यादा लगेगा। जितनी संसार की वासना ज्यादा, उतना भीतर से डरपोक रहेगा और जितने ईश्वर की प्रीति ज्यादा, उतना भीतर से निर्भय़ रहेगा। जितना संसार से प्रेम करेगा, उतना भीतर से कमजोर होता जायेगा और जितना ईश्वर से प्रेम करेगा उतना भीतर से मजबूत होता जायेगा। अतः ऐसा प्रयत्न करें कि संसार की वासना कम हो जाये और भगवान की प्रीति बढ़ जाये।

वशिष्ठजी महाराज कहते हैं- “हे राम जी ! निर्वासनिक पुरुष उस सुख को प्राप्त होता है। जिस सुख में त्रिलोकी के सारे सुख तृणवत भासते हैं। हे राम जी ! जो पुरुष निर्वासनिक हुआ है, उसको सारी पृथ्वी गोपद के समान तुच्छ भासती है, मेरू पर्वत एक टूटे हुए वृक्ष के समान भासती है क्योंकि वह उत्तम पद को प्राप्त हुआ है। उसने जगत को तृणवत जानकर त्याग दिया है और वह सदा आत्मतत्त्व में स्थित है, उसको फिर किस की उपमा दीजिये ?”

जो आत्मतत्त्व में स्थित हैं उनको किसकी उपमा दें ? तस्य तुलना केन जायते…. अपने आत्मा-परमात्मा का चिंतन एवं ध्यान करके, गुरुकृपा से जो जाग गये हैं उनके सुख और उनकी अनुभूति की तुलना किससे करोगे ?

“हे राम जी ! व्यवहार तो उसका भी अज्ञानी की नाईं ही दिखता है परन्तु हृदय से वह अदभुत पद में स्थित रहता है और कभी-भी उससे नहीं गिरता है।”

ऐसे निर्वासनिक महापुरुषों की महिमा तो श्रीकृष्ण भी गाते हैं, श्रीरामजी भी गाते हैं, वशिष्ठजी भी गाते हैं। शास्त्र एवं उपनिषद भी ऐसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों की महिमा से भरे हुए हैं।

वह शास्त्र, शास्त्र ही नहीं है जिसमें ब्रह्मज्ञान की महिमा नहीं है। वह तो केवल संसारी किताब है। कोई भी शास्त्र हो, उसमें ब्रह्मज्ञान की एवं ब्रह्मज्ञान को पाये हुए महापुरुष की महिमा अवश्य होगी – चाहे रामायण हो चाहे गीता हो, चाहे पुराण हों चाहे वेद हों। सब ब्रह्मज्ञान की महिमा से युक्त हैं और ब्रह्मज्ञान का विलक्षण आनंद प्रगट होता है, वासनाक्षय, मनोनाश और परमात्मा को अपने आत्मरूप में जानने से।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2000, पृष्ठ संख्या 10, 11 अंक 95

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