संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
श्रीकृष्ण कहते हैं-
न साधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव।
न स्वाध्यायस्तपस्तयागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता।।
ʹउद्धव ! योग-साधन, ज्ञान-विज्ञान, धर्मानुष्ठान, जप-पाठ और तप-त्याग मुझे प्राप्त कराने में उतने समर्थ नहीं हैं जितनी दिनों-दिन बढ़ने वाली अनन्य प्रेममयी मेरी भक्ति।ʹ (श्रीमद् भागवतः 11.14.20(
भले ही कोई धन-दौलत के अंबार पर खड़ा हो, बड़ा सत्ताधीश हो उसका हृदय तो तपता ही रहता है लेकिन जिसको भगवान की भक्ति का छोटा-सा भी सूत्र मिल जाता है, उसके हृदय में शांति होती है, शीतलता होती है, तृप्ति होती है।
अधिक धन मिलने से, बड़ी सत्ता मिलने से, अधिक अधिकार मिलने से कोई व्यक्ति सुखी हो जाये ऐसी बात नहीं है। धन, सत्ता व अधिकार के बिना भी यदि हृदय में भगवद् प्रीति हो, संतों के लिए प्रेम हो, सत्कर्म में रूचि हो और परमेश्वर को पाने की ललक हो तो वह व्यक्ति तो धन्य है ही, उसके माता-पिता धन्य हैं, उसका कुल धन्य है और वह जिस घऱ में रहता है वह धरती भी धन्य मानी जाती है।
भक्ति के बिना मनुष्य पशु से भी बदतर है। पशु को बेटे-बेटी की शादी की कोई चिंता नहीं होती, महँगाई की कोई चिंता नहीं होती, तबादले का कोई तनाव नहीं होता। ʹनो इन्कमटैक्सʹ…. ʹनो सेल्सटैक्सʹ… ʹनो सरचार्जʹ…. ʹनो अदर चार्जʹ…. उसे कोई चिन्ता नहीं होती, जबकि मनुष्य को ये सब चिंताएँ होती हैं।
गाय कभी गाली नहीं देती, हाथी कभी झूठ नहीं बोलता, पहाड़ कभी चोरी नहीं करता फिर वे वही के वहीं हैं। जबकि मनुष्य गाली भी देता है, झूठ भी बोलता है, चोरी भी करता है फिर भी सभी से ऊँचा माना जाता है क्योंकि वह चाहे तो जप-तप करके, साधन-भजन करके, सत्संग-स्वाध्याय करके महान भी बन सकता है।
मनुष्य के गिरने की नौबत आ जाती है लेकिन उसे सत्संग मिल जाये, संत-सान्निध्य मिल जाये तो वह इतना ऊँचा उठ जाता है कि भगवान का सखा बन जाता है, मित्र बन जाता है, सत्पुरुष भी बन जाता है। अरे ! भगवान का माई-बाप भी बन जाता है।
शास्त्र में आता हैः भजनस्य किं लक्षणम् ? भजन का लक्षण क्या है ?
भजनस्यं लक्षणम् रसनम्। अंतरात्मा का रस जिससे उभरे, उसका नाम है भजन।
वस्तु, व्यक्ति, भोग-सामग्री के बिना भी हृदय में जो आनंद आता है, रस आता है वह भजन का रस है। वस्तु के बिना, व्यक्ति के बिना, विशेष परिस्थिति के बिना ही आपके हृदय में अपने अंतर्यामी आत्मदेव का रस आने लगे तो समझना कि भजन हो रहा है।
ताल-लय के साथ राग अलापने का नाम भजन नहीं है, माला घुमाने का नाम भजन नहीं है लेकिन हृदय में अंतरात्मा का रस प्रगट हो जाये तो समझना कि भजन हो रहा है। फिर चाहे शबरी भीलन की भाँति प्रभु के लिए बुहारी करते हो तो भजन है, शिवाजी की तरह गुरुआज्ञा मानकर शत्रुओं से भिड़ते हो तो भी भजन है और हनुमान जी की नाँई प्रभुसेवा में लंका जला देते हो तो भी भजन है। बस, अंतःकरण से शुद्ध रस प्रगट हो जाये तो समझना कि हो गया भजन।
मनु महाराज कहते हैं किः “मनुष्य को तब तब सत्कर्म और निष्काम कर्म खोज-खोजकर करने चाहिए जब तक आत्मसंतोष न हो, आत्मरस न प्रगटे।”
जब आत्मरस प्रगट होता है तो भजन अपने आप हो जाता है, भक्त भगवद्-कृपा का अधिकारी हो जाता है। भगवान की कृपा के आगे दुनिया का पाप क्या महत्त्व रखता है ? ऐसा कौन-सा अपराध है जो भगवान की कृपा से बड़ा हो ? ऐसा कौन सा रोग है जो परमात्मा से बड़ा हो ? भगवान कहते हैं-
यथाग्निः सुसमृद्धार्चिः करोत्येधांसि भस्मसात्।
तथा मद्विषया भक्तिरूद्धवैनांसि कृत्स्नशः।।
ʹउद्धव ! जैसे धधकती हुई आग लकड़ियों के बड़े ढेर को जलाकर खाक कर देती है, वैसे ही मेरी भक्ति भी समस्त पाप-राशि को पूर्णतया जला डालती है।ʹ (श्रीमद् भागवतः 11.14.19)
भक्ति फलरूपा भी है, रसरूपा भी है। भक्ति रस भी देती है और मुक्ति का फल भी देती है। भक्ति करते समय भी रस आता है और अंत में फल भी भगवत्प्राप्ति का मिलता है।
कर्म में प्रतिवाद आये तो प्रायश्चित करना पड़ता है लेकिन भक्ति में प्रतिवाद का प्रायश्चित नहीं करना पड़ता है क्योंकि भगवान समझते हैं किः ʹबच्चा है, कोई बात नहीं। मुझे प्रेम करता है न !ʹ प्रेम में कोई नियम नहीं होता। बच्चे की नाक बहती है, वह गंदगी कर देता है फिर भी माँ समझती है कि ʹबच्चा है, अपना है।ʹ उसे प्रेम से उठाकर उसकी गंदगी साफ कर देती है। ऐसे ही भगवान के होकर जीते हैं तो भगवान भी कहते हैं- ʹचलो जाने दो अपना ही बालक है।ʹ
जिसके जीवन में क्रूरता नहीं है, हिंसा नहीं है, असहिष्णुता नहीं है, द्वेष नहीं है एवं भगवान के लिए प्रीति है, जो भगवान के प्रभाव को, दयालुता को, सर्वव्यापकता को जानता है और भगवान के अटल-अविनाशी नियम को मानता है उसके हृदय में स्वाभाविक ही प्रसन्नता, निःस्वार्थता, नम्रता, सरलता, परदुःखकातरता आदि सदगुण आ जाते हैं।
फलरूपा और रसरूपा भक्ति भगवदर ले आती है और जब भगवदरस आता है तब भगवान के गुण भी स्वाभाविक ही आ जाते हैं। जैसे, सूर्योदय से पहले आकाश में लालिमा छा जाती है फिर सूर्य उदय होता है, ऐसे ही भगवददर्शन के पहले हृदय में भक्ति आती है और भगवान के गुण भी आ जाते हैं। भक्त के जीवन में अमानीत्व आ जाता है। ऑफिस में चाहे कोई कितना भी बड़ा साहब होकर, कुर्सी पर बैठकर कार्य करे लेकिन संतों की सभा में जाकर वह भी सरलता से जमीन पर बैठता है। अमानीत्व, अदांभित्व, सरलता, विनम्रता, परदुःखकातरता आदि सदगुण सहज ही भक्त के जीवन में आ जाते हैं और इन सदगुणों का रस भी उसके जीवन में आ जाता है।
कबीरा आप ठगाइये, और न ठगिये कोई।
ʹआप ठगे सुख उपजे, और ठगे दुःख होई।।
भक्त को बाहर से भले थोड़ा घाटा पड़े, फिर भी वह भीतर से दूसरे का हित करता है। ऐसा करने से बाहर की वस्तु भले थोड़ी कम हो जाये लेकिन भीतर की जो खुशी मिलती है, भीतर का जो बल बढ़ता है और भीतर का जो आनंद आता है उसे भक्त ही जानता है।
जो भक्ति के रास्ते चलते हैं उऩकी कुटिलता हटती जाती है, सरलता बढ़ती जाती है, हिंसात्मक वृत्ति मिटती जाती है। अहिंसात्मक वृत्ति बढ़ती जाती है। हिंसा करना तमोगुण है, प्रतिहिंसा करना रजोगुण है, अहिंसा सत्त्वगुण है। भक्ति करने से सत्त्व गुण बढ़ता है।
भक्त कभी कभार जरूरत पड़ने पर प्रतिक्रिया करता भी है लेकिन हिंसा की वृत्ति से नहीं, वरन् सामने वाले की भलाई के लिए करता है ताकि उसकी गलती दूर हो और वह सत्य की ओर चल पड़े।
भक्ति में यह ताकत है कि वह जीव को संसारी विषय-विकारों के सुख में नहीं, वरन् आत्मा परमात्मा के सुख में पहुँचा देती है, परम सुखस्वरूप, परम रसस्वरूप परमात्मा के अनुभव में जगा देती है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2000, पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 95
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