वाममार्ग और भ्रष्टाचार

वाममार्ग और भ्रष्टाचार


हमारे देश के युवावर्ग को एक ओर तो तथाकथित मनोचिकित्सक गुमराह कर उसे संयम-सदाचार और ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट करके अनिंयत्रित विकारों के शिकार बना रहे हैं तो दूसरी ओर कुछ तथाकथित विद्वान वाममार्ग का सही अर्थ न समझ सकने के कारण स्वयं तो दिग्भ्रमित हैं ही, साथ ही उसके आधार पर ʹसंभोग से समाधिʹ की ओर ले जा जाने के नाम पर युवानों को पागलपन और महाविनाश की ओर ले जा रहे हैं। इन सबसे समाज व राष्ट्र को भारी नुकसान पहुँच रहा है। कोई भी दिग्भ्रमित व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र कभी उन्नति नहीं कर सकता, उसका पतन निश्चित है। अतः समाज को सही मार्गदर्शन की नितांत आवश्यकता है।

आजकल तंत्रतत्त्व से अनभिज्ञ जनता में वाममार्ग को लेकर एक भ्रम उत्पन्न हो गया है। वास्तव में प्रज्ञावान प्रशस्य योगी का नाम ʹवामʹ है। और उस योगी के मार्ग का नाम ʹवाममार्गʹ है। अतः वाममार्ग अत्यन्त कठिन है और योगियों के लिए भी अगम्य है तो फिर इन्द्रियलोलुप लोगों के लिए वह कैसे गम्य हो सकता है ? वाममार्ग जितेन्द्रिय के लिए है और जितेन्द्रिय योगी ही होते हैं।

वाममार्ग उपासना में मद्य, मांस मीन, मुद्रा और मैथून – ये पाँच आध्यात्मिक मकार जितेन्द्रिय, प्रज्ञावान योगियों के लिए ही प्रशस्य हैं क्योंकि इनकी भाषा सांकेतिक है जिसे संयमी एवं विवेकी व्यक्ति ही ठीक-ठीक समझ सकता है।

मद्यः शिव-शक्ति के संयोग से जो महान अमृतत्त्व उत्पन्न होता है उसे ही ʹमद्यʹ कहा गया है अर्थात् योगसाधना द्वारा निरंजन, निर्विकार, सच्चिदानंद परब्रह्म में विलय होने पर जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे ʹमद्यʹ कहते हैं और ब्रह्मरन्ध्र में स्थित सहस्रपद्मादल से जो अमृतत्त्व स्रावित होता है उसका पान करना ही ʹमद्यपानʹ है। यदि इस सुरा का पान नहीं किया जाता तो सौ कल्पों में भी ईश्वरदर्शन करना असंभव है। ʹतंत्रतत्त्वप्रकाशʹ में आया है किः “जो सुरा सहस्रार कमलरूपी पात्र में भरी है और चंद्रमा-कला-सुधा से स्रावित है वही पीने योग्य सुरा है। इसका प्रभाव ऐसा है कि यह प्रकार के अशुभ कर्मों को नष्ट कर देती है। इसी के प्रभाव से परमार्थकुशल ज्ञानियों-मुनियों ने मुक्तिरूपी फल प्राप्त किया है।”

मांसः विवेकरूपी तलवार से काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि पाशवी वृत्तियों का संहार कर उनका भक्षण करने को ही ʹमांसʹ कहा गया है। जो इनका भक्षण करे एवं दूसरों को सुख पहुँचाये वही बुद्धिमान है। ऐसे ज्ञानी और पुण्यशील पुरुष ही पृथ्वी पर के देवता कहे जाते हैं। ऐसे सज्जन कभी पशुमांस का भक्षण करके पापी नहीं बनते बल्कि दूसरे प्राणियों को सुख देने वाले निर्विषय तत्त्व का भक्षण करते हैं।

आलंकारिक रूप से यह आत्मशुद्धि का उपदेश है अर्थात् कुविचारों, पाप-तापों, कषाय-कल्मषों से बचने का उपदेश है। किन्तु पशुलोलुपों ने अर्थ का अनर्थ कर उपासना के अतिरिक्त हवन-यज्ञों में भी पशुवध प्रारम्भ कर दिया था।

मत्स्यः अहंकार, दम्भ, मद, मत्सर, द्वेष, चुगलखोरी – इन छः मछलियों को विषय विरागरूपी जाल में फँसाकर सदविद्यारूपी अग्नि में पकाकर इनका सदुपयोग करने को ही ʹमीनʹ या ʹमत्स्यʹ कहा गया है अर्थात् इन्द्रियों का वशीकरण, दोषों तथा दुर्गुणों का त्याग, साम्यभाव की सिद्धि और योगसाधन में रत रहना ही ʹमीनʹ या ʹमत्स्यʹ ग्रहण करना है। इनका सांकेतिक अर्थ न समझकर प्रत्यक्ष मत्स्य के द्वारा पूजन करना तो अर्थ का अनर्थ होगा और साधना-क्षेत्र में एक कुप्रवृत्ति को बढ़ावा देना होगा।

जल में रहने वाली मछलियों को खाना तो सर्वथा धर्मविरुद्ध है, पापकर्म है। दो मत्स्य गंगा-यमुना के भीतर सदा विचरण करते रहते हैं। गंगा यमुना से आशय है मानव शरीरस्थ इड़ा-पिंगला नाड़ी का। उनमें निरन्तर बहने वाले श्वास-प्रश्वास ही दो मत्स्य हैं। जो साधक प्राणायाम द्वारा ऩ श्वास प्रश्वासों को रोककर कुंभक करते हैं वे ही यथार्थ में मत्स्य साधक हैं।

मुद्राः आशा, तृष्णा, निंदा, भय, घृणा, घमंड, लज्जा, क्रोध – इन आठ कष्टदायक मुद्राओं को त्यागकर ज्ञान की ज्योति से अपने अन्तर को जगमगाने वाला ही ʹमुद्रा साधकʹ कहा जाता है। सत्कर्म में निरत पुरुषों को इन मुद्राओं को ब्रह्मरूप अग्नि में पका डालना चाहिए। दिव्य भावानुरागी सज्जनों को सदैव इनका सेवन करना चाहिए और इनका सार ग्रहण करना चाहिए। पशुहत्या से विरत ऐसे साधक ही पृथ्वी पर शिव के तुल्य उच्च आसन प्राप्त करते हैं।

मैथुनः ʹमैथुनʹ का सांकेतिक अर्थ है मूलाधार चक्र में स्थित सुषुप्त कुण्डलिनी शक्ति का जागृत होकर सहस्रार चक्र में स्थित शिवतत्त्व (परम ब्रह्म) के साथ संयोग अर्थात् पराशक्ति के साथ आत्मा के विलास रस में निमग्न रहना ही मुक्त आत्माओं का मैथुन है, किसी स्त्री आदि का ग्रहण कर उसके साथ संसारव्यवहार करना मैथुन नहीं है। विश्ववंद्य योगीजन सुखमय वनस्थली आदि में ऐसे ही संयोग का परमानंद प्राप्त किया करते हैं।

इस प्रकार तंत्रशास्त्र में  पंचमकारों का वर्णन सांकेतिक भाषा में किया गया है किन्तु भोगलिप्सुओं ने अपने मानसिक स्तर के अनुरूप उनके अर्थघटन कर उन्हें अपने जीवन में चरितार्थ किया और इस प्रकार अपना एवं अपने लाखों अनुयायियों का सत्यानाश किया। जिस प्रकार सुन्दर बगीचे में असावधानी बरतने से कुछ जहरीले पौधे उत्पन्न हो जाया करते हैं और फूलने-फलने भी लगते हैं, इसी प्रकार तंत्र-विज्ञान में बहुत-सी अवांछनीय गन्दगियाँ आ गयी हैं। यह विषयी-कामान्ध मनुष्यों और मांसाहारी एवं मद्यलोलुप अनाचारियों की ही काली करतूत मालूम होती है, नहीं तो श्रीशिव और ऋषि-प्रणीत मोक्षप्रदायक पवित्र तंत्रशास्त्र में ऐसी बातें कहाँ से और क्यों आतीं ? जचिस शास्त्र में अमुक-अमुक जाति की स्त्रियों का नाम ले-लेकर व्यभिचार की आज्ञा दी गयी हो और उसे धर्म तथा साधना बताया गया हो, जिस शास्त्र में पूजा की पद्धति में बहुत ही गंदी वस्तुएँ पूजा सामग्री के रूप में आवश्यक बतायी गयी हों, जिस शास्त्र को मानने वाले साधक हजारों स्त्रियों के साथ व्यभिचार को और नरबालकों की बलि को अनुष्ठान की सिद्धि में कारण मानते हों, वह शास्त्र तो सर्वथा अशास्त्र और शास्त्र के नाम को कलंकित करने वाला ही है। ऐसे विकट तामसिक कार्यों को शास्त्रसम्मत मानकर भलाई की इच्छा कार्यों को शास्त्रसम्मत मानकर भलाई की इच्छा से इन्हें अपने जीवन में अपनाना सर्वथा भ्रम है, भारी भूल है। ऐसी भूल में कोई पड़े हुए हों तो उन्हें तुरंत ही इससे निकल जाना चाहिए।

आजकल ऐसे साहित्य और ऐसे प्रवचनों की कैसेटें बाजार में सरेआम बिक रही हैं। अतः ऐसे कुमार्गगामी साहित्य और प्रवचनों की कड़ी आलोचना करके जनता को उनके प्रति सावधान करना भी राष्ट्र के युवाधन की सुरक्षा करने में बड़ा सहयोगी सिद्ध होगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2000, पृष्ठ संख्या 19-21 अंक 95

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