चारित्रिक क्रान्ति के उन्नायक पूज्य बापू

चारित्रिक क्रान्ति के उन्नायक पूज्य बापू


भारत की इस पावन धरा तथा ऋषियों के वंशजों पर भगवान की विशेष कृपा रही है। जब कभी भी इस भारत भूमि पर मानवजाति को किसी दुर्गुण ने ग्रसित किया, उसको पतनोन्मुख बनाने की कुचेष्टा की तब-तब यहाँ भगवान एवं भगवद् प्राप्त महापुरुषों का अवतरण होता रहा है। विश्व के किसी भी दूसरे देश में ऐसा अनुपम उदाहरण नहीं मिलता है।

इस भारतभूमि पर तो भगवान ने स्वयं प्रतिज्ञा की हैः

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।

‘हे भारत ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात् साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।’ (गीताः 4.7)

इस अनंत कालचक्र से जूझ रहे मानव के समक्ष समय-समय पर ऐसी बाधाएँ आती हैं जो उसकी वास्तविक उन्नति में बाधक बन जाती हैं। काल का दुष्प्रभाव और उसके पुराने कुसंस्कार सामाजिक संस्कारों को विकृत कर देते हैं जिससे पूरा समाज पतन के गर्त में गिरता चला जाता है।

समाज कको ऐसी विकट परिस्थिति से निकालकर उसे सच्ची सुख-शांति एवं वास्तविक उन्नति के मार्ग पर ले जाने के लिए ही भगवान तथा भगवद् प्राप्त महापुरुष इस अवनि पर अवतरित होते हैं। विभिन्न युक्तियों से मानव का वास्तविक कल्याण करने में समर्थ ऐसे अलौकिक पुरुष विरले ही होते हैं। परन्तु यह बात भी उतनी ही सच है कि यह भारतभूमि ऐसे विरले सत्पुरुषों से रिक्त कभी नहीं हुई।

आज जब भारतवासी अपनी महान संस्कृति को भूलकर विकृत पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करने में लगे हुए हैं और इसके दुष्प्रभाव से विश्वगुरु कहलाने वाले भारत में चारित्रिक पतन का विनाशकारी तांडव चल रहा है। ऐसे समय में चारित्रिक क्रान्ति के उन्नायक पूज्यपाद संत श्री आसाराम जी बापू हमारे बीच उपस्थित हैं।

भारतीय ब्रह्मर्षियों की गूढ़ रहस्यमयी आत्मविद्या के आचार्य तथा योग-सामर्थ्य के धनी पूज्य बापू भारतभूमि के ऐसे ही एक दुर्लभ संतरत्न है। भारतवर्ष की आध्यात्मिक एवं चारित्रिक उन्नति की बागडोर अपने समर्थ हाथों में लेकर आपने जागृति का जो शंखनाद किया है वह एक अभूतपूर्व दैवी कार्य है।

‘धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ-कुछ गया परन्तु चरित्र गया तो सब कुछ गया।’ भारतीय मनीषियों के इस सिद्धान्त को स्वीकार करते हुए आप भी चरित्रनिर्माण पर विशेष बल देते हैं। चरित्रनिर्माण के साथ आध्यात्मिकता का संगम करके आप मानव को महामानव तथा महामानव को महेश्वर बनाने के एक अदभुत मार्ग पर ले जा रहे हैं।

पूज्य बापू जी के इस  महान दैवी कार्य का जीवंत उदाहरण यह छोटी सी घटना है जो छोटी होने पर भी बहुत कुछ सीख दे देती है।

एक बार साबरमती, अमदावाद में स्थित संत श्री आसारामजी आश्रम में ‘ध्यान योग शिविर’ चल रहा था। उस समय आश्रम छोटा-सा ही था अतः साधकों के लिए नहाने-धोने की पर्याप्त व्यवस्था नहीं थी। साबरमती नदी में पानी की गहरी धारा बह रही थी उसी पर महिलाओं एवं पुरुषों के नहाने-धोने के लिए दो अलग-अलग घाट बना दिये गये।

नदी के उस पार भारतीय सेना की छावनी है जिसे ‘हनुमान कैम्प’ कहा जाता है। सुबह के समय सेना के दो जवान दौड़ लगाते हुए नदी के किनारे तक पहुँच गये जहाँ महिलाओं के स्नान का घाट बना था। उनके कारण उन शिविरार्थी साधिकाओं को नहाने में परेशानी हो रही थी क्योंकि वे दोनों जवान जानबूझकर वहाँ से खड़े-खड़े साधिकाओं को घूर रहे थे।

पूज्य बापू नित्य सुबह नदी किनारे घूमने जाया करते थे। पूज्य श्री की दृष्टि दूर से उन जवानों पर पड़ी। घट-घट की जानने वाले समर्थ योगी को वस्तुस्थिति समझने में कैसे देर लगती ? पूज्य श्री शीघ्र ही उन जवानों के पास पहुँचे और उनके हाथ पकड़कर बोलेः “चुपचाप मेरे साथ चलो।”

पूज्य बापू के मुखमण्डल तथा वाणी के तेज को देखकर वे जवान मानो सूखी लकड़ी के खम्भे से हो गये। उनकी हिम्मत ही नहीं हुई कि वे कुछ बोलें या प्रतिकार करें। रस्सी से बँधी गाय की तरह वे पूज्य बापू के साथ चल दिये।

दोनों को नाव से इस पार लाया गया। पूज्य श्री दोनों का गिरेबान (कॉलर) पकड़कर अपनी कुटिया की ओर बढ़ने लगे। कुछ आश्रमवासियों ने देखा तो दौड़कर पूज्यश्री के पास आये और बोलेः

“बापू जी ! हम पकड़ें ?”

पूज्य बापू जी ने दृढ़तापूर्वक उत्तर दियाः “नहीं, इनमें इतनी शक्ति नहीं है कि अपने-आपको मुझसे छुड़ा सकें।” फिर उन्हें अपनी कुटिया में  ले जाकर बंद कर दिया और सेवकों को आदेश दिया किः “इनके मुखिया को फोन करके कहो कि यदि अपने जवान चाहिए तो यहाँ आकर ले जाय।”

थोड़ी ही देर बाद सेना का एक ऑफिसर गाड़ी लेकर आश्रम में पहुँचा। गाड़ी से उतरते ही वह कुटिया की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा तो भक्तों ने उसे रोककर कहाः “भाई साहब ! आपके जूते उतार दो। यह बापू जी का निवासस्थान है। जूते ले जाना मना है।”

इस पर उसने चिढ़कर जवाब दियाः “हम  मिलेट्रीवाले जूते नहीं उतारते। ये हमारी वर्दी के अन्तर्गत आते हैं, समझे ?” लेकिन ज्यों ही उसने अपना पैर दूसरी सीढ़ी पर रखना चाहा त्यों ही उसका शरीर पसीना-पसीना हो गया। उसने शायद ही कभी सोचा होगा कि ऐसा भी हो सकता है। उसका पैर पहली सीढ़ी से आगे नहीं बढ़ सका। लाख प्रयास करने के बाद भी वह अपने पैर को ऊपर की सीढ़ी पर नहीं रख सका। अब उसकी सारी अक्कड़ धूल में मिल चुकी थी। घबराते हुए वह नीचे उतरा और जूते उतारकर बड़े नम्र भाव से कुटिया को प्रणाम करके अंदर गया। अंदर पहुँचते ही उसने पूज्य बापू  देखकर प्रणाम किया।

पूज्य श्री ने उसे डाँटते हुए कहाः “तुम लोग देश के रक्षक हो या भक्षक ? देशवासियों ने तुम्हें यह वर्दी इस देश की माँ-बहनों की लाज बचाने के लिए पहनाई है या उन पर बुरी नजर डालने के लिए ? जब तुम लोग ही ऐसा पाप करने लगोगे तो दूसरों को कैसे सुधारा जायेगा ?”

पूज्य श्री की निर्भीक तेजस्वी वाणी को सुनकर वह थर-थर काँपने लगा। इन समर्थ योगी की महान शक्ति का छोटा सा अनुभव तो वह सीढ़ियों पर चढ़ते समय ही कर चुका था। गिड़गिड़ाते हुए उसने पूज्य श्री से क्षमा माँगी और वचन दिया किः “जो आप कहेंगे इनको वही सजा दी जायेगी।”

पूज्य श्री ने उन दोनों जवानों को कमरे से बाहर निकाला। उन्हें चरित्र की महानता बतायी और फिर तीनों को प्रसाद दिया। पूज्य बापू ने उनके ऑफीसर से कहाः “इन्हें कोई सजा नहीं देना। अब ये दुबारा ऐसी गलती नहीं करेंगे।”

वाह री संतों की करुणा ! कैसी महानता है ! क्रोध ऐसा कि मानो अभी प्रलय हो जाय और कुछ ही देर में प्रेम भी उतना ही ! संसार में रहकर भी संसार से परे। अपनी अविचल आत्ममस्ती में रमण करने वाले संतों की लीला को कोई संत ही जान सकते हैं।

15-20 दिन बाद वे दोनों जवान सत्संग में आये और बापू जी को प्रणाम करके बोलेः

“महाराज ! जब आपने हमें पकड़ा था तब हमारी शक्ति पता नहीं कहाँ चली गई थी ! उस दिन के बाद हमें अण्डा, माँस, शराब आदि से घृणा होने लगी है। हमारे दुर्गुण अपने आप पलायन हो रहे हैं और कोई अदृश्य शक्ति हमें बार-बार यहाँ सत्संग में आने की प्रेरणा देती है।”

कैसी अदभुत लीला होती है संतों की ! जवानों का कॉलर पकड़कर लाये, कमरे में बंद किया, डाँट लगायी परन्तु इस कठोरता के द्वारा उन्हें सच्चे मनुष्य बना दिये। प्रेम करके तो कृपा करते ही हैं लेकन सजा देकर भी वैसी ही कृपा करते हैं। दोनों तरफ से कल्याण करने की शक्ति भगवान और भगवद् प्राप्त संतों के अलावा और भला किसमें हो सकती है ?

‘श्रीरामचरितमानस’ में संतों की करुणा-कृपा का बखान करते हुए संत श्री तुलसीदास जी कहते हैं किः ‘कवियों ने संतों के हृदय को मक्खन के समान कह तो दिया परन्तु वे असली बात नहीं कह सके। क्योंकि मक्खन तो अपने को ताप मिलने के कारण पिघलता है जबकि परम पवित्र संत दूसरों के दुःख से पिघलते हैं।’

भारत के नवयुवकों में बढ़ रहे चारित्रिक पतन को देखते हुए पूज्य बापू ने युवाओं के चारित्रिक एवं आध्यात्मिक उत्थान के लिए ‘युवाधन सुरक्षा अभियान’ के रूप में चारित्रिक क्रांति का सूत्रपात किया है। पूज्य श्री के मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद से यह अभियान पूरे भारत में चल रहा है। आइये, हम सभी इस महान् भारत  भावी कर्णधारों को सुसंस्कारवान् एवं चरित्रवान बनाने के दैवी कार्य में सहभागी बनकर अपना जीवन सार्थक करें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2001, पृष्ठ संख्या 13-15, अंक 100

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