सदगुरु महिमा

सदगुरु महिमा


सदगुरु अनेकानेक लोगों के लिए छाया के समान है। शिष्य वर्ग के लिए तो वे माता के समान ही हैं। उनके प्रति जो असूया प्रदर्शित करेगा, उसकी आत्मप्राप्ति नष्ट हुई समझनी चाहिए। अतः गुरु के जो अंकित या अनुग्रहप्राप्त शिष्य हैं, उन सभी को शिष्य गुरु के समान ही मानता है। असूया उसके चित्त को छूती तक नहीं है। वह सभी से बड़ा ही प्रेमपूर्ण व्यवहार करता है। इसके विपरीत, कोई गुरुबन्धु कनिष्ठ एवं गरीब हो, उसमें उत्तम गुण भी हों, तो भी उन्हें जान-बूझकर स्वीकार न करना तथा उसके प्रति खोटे आरोप लगाना ये कुशिष्य के लक्षण होते हैं।

दूसरे के उत्तम गुणों को भी मिथ्या दोष लगाकर निन्दित बताना तथा उसके ज्ञान को मिथ्या व खोटा बताना – इसे ही असूया कहते हैं। प्रत्यक्ष भेंट होने पर उसके गुणों का स्तुतिगान करना, नम्रता से चरण पकड़ना लेकिन तत्काल पीछे से उसके प्रति छल करना तथा निंदा करना, इन सबका नाम असूया है। सत्शिष्य का वर्तन इस विषय में पूर्णतया शुद्ध ही होता है। वह अपने में असूया दोष उत्पन्न ही नहीं होने देता। कोई उत्तम हो, मध्यम हो या बिल्कुल प्राकृत या साधारण हो उन सभी को वह वन्दन करता है। छल करने का उसे ज्ञान ही नहीं होता।

हे उद्धव ! इस प्रकार किसी भी प्राणी से छल न कर सकना ही सत्शिष्य का ‘अनसूया’ नामक गुण है। इस तरह 1. सम्मान की इच्छा न करना 2. निर्मत्सरता 3. दक्षता 4 निर्ममता 5. गुरु को ही पूर्णरूप से अपना आप्त मानना 6. अंतःकरण का निश्चलपना 7. परमार्थ विषय में अतिशय प्रेम (जिज्ञासता) 8. अनुसूया (झूठ, कपट रहित व्यवहार)। इन आठों सदगुणरूपी महामणियों की माला जिसके हृदय में निरन्तर निवास करती है, वह सदगुरु की सन्निधि में पहुँच जाता है। उस भेंट की अपूर्वता का वर्णन क्या किया जाये ?

इसके अतिरिक्त एक नौवाँ लक्षण और है। वह भी विलक्षण ही है। व्यर्थ की बातें छोड़कर वह शिष्य सत्य व पवि6 भाषण ही करता है। सदगुरु से वह बड़ी ही विनम्रता से और मृदु वाणी से प्रश्न करता है और वह भक्तिपूर्वक मानता है कि सदगुरु के वचन सत्यों के भी सत्य हैं। नाना प्रकार की युक्तियाँ लड़ाना, अनेक प्रकार के मत प्रतिपादित करके अकाण्डतांडव करना, पाखण्ड की सहायता से महावाद खड़े करके व्यर्थ गाल बजाते रहना, साधक-बाधक युक्तियों की सहायता से शब्दछल करना और अपनी ही युक्तियों का प्रदर्शन करते रहना… ये सब बातें शिष्य के मन में नहीं आतीं।

सदगुरु के सम्मुख वाहियात या अशिष्ट रूप से बोलना बड़ा ही पाप है, ऐसा जानकर वह व्यर्थ करता। शिष्य का बोलना कैसा होता है ? मानों परिपक्व हुई वाणी से निकलने वाला वह अमृत ही है। दूसरों की दुखती रगों को वह कभी नहीं छूता तथा जो बोलने से दूसरों का मन दुःखी हो अथवा जो बोलना अधर्मयुक्त प्रतीत होता हो, ऐसा बोल वह कभी नहीं बोलता। व्यर्थ शंका वह कभी नहीं करता। निन्दा के विषय में भी वह मूक ही रहता है। उससे कर्कश नहीं बोला जाता दूसरे का उपहास करना उसे नहीं आता। बोलते समय भी वह कुछ आशा रखकर नहीं बोलता। वह केवल निष्काम भाव से और वैराग्यपूर्वक ही बोलता है। उसे मन में गाँठ रखकर बोलना ही नहीं आता, शब्दछलपूर्वक कुत्सितपना करना भी उसे नहीं आता। अधिक बोलना भी उसे अच्छा नहीं लगता। वह मौन की महानता जानता है और बहुधा मौन रहता है। उसे वादविवाद अथवा वितण्डावाद नहीं रूचता। किसी से व्यर्थ भाषण करना भी उसे नहीं आता। उसे टेढ़ा बोलना नहीं आता। उसके भाषण में कभी कपट नहीं होता। वह तो निरन्तर सदगुरु का ही स्मरण करता है। अपने बोलने से वह किसी को उद्विग्न नहीं करता, व्यर्थ बोलने की खटपट नहीं करता। बोलने में वह कभी आवेश नहीं दिखाता। वह ऐसी वाणी ही बोलता है जिससे किसी को उद्वेग न हो। वह ऐसी मधुर हरिकथा ही कहता है जो सत्य होती है, सुनने में आह्लादक होती है तथा सबके लिए हितकारी होती है। सदगुरु की प्रार्थना करते हुए भी वह बहुत अधिक नहीं बोलता। आत्मसुख मिलने के साधन के विषय में भी वह एकाध शब्द के द्वारा ही प्रश्न करता है।

शिष्य के इस तरह ये नौ लक्षण हैं। ये नौ खण्डवाली पृथ्वी के भूषण हैं। नारायण ने कृपा करके इन्हें भक्तों को दिया है। इन नवरत्नों की सुन्दर माला जो सदगुरु के कंठ में डालेगा, वह तत्काल ही मोक्ष के माधुर्य को पायेगा। इन नौ रत्नों के तगमे जिस शिष्य के हृदय पर शोभित होंगे, वही सदगुरु का निश्चित विश्वासपात्र होगा। इन नौ रत्नों का अभिनव गुच्छ सदगुरु की भेंट के लिए जो भी लायेगा वह आत्म परमात्म राज्य के मुकुट पर महामणि बनकर चमकने लगेगा। अतः सभी कल्याण कामियों को चाहिए कि सत्य का, संयम का मौन का, सत्शास्त्र और श्रेष्ठ व्रतों का अवलंबन लेकर परममंगल कर लें। आत्म स्वराज्य के सुख को पा लें।

श्री एकनाथी भागवत से

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2001, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 101

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