सनातन धर्म के मंदिरों की छत पर एक त्रिकोणीय आकृति बनी होती है। जिसे वास्तुशास्त्र एवं वैज्ञानिक भाषा में पिरामिड कहते हैं। यह आकृति अपने आप में अदभुत है। हमारे ऋषियों ने ब्रह्माण्ड के तत्त्वों का सूक्ष्म अध्ययन करके उनसे लाभ लेने के लिए अनेक प्रयोग किये। मंदिर के शिखर की पिरामिडीय आकृति उन्हीं प्रयोगों में से एक है।
पिरामिड चार त्रिकोणों से बना होता है। ज्यामितीशास्त्र के अनुसार त्रिकोण एक स्थिर आकार है। अतः पिरामिड स्थिरता का प्रदाता है। पिरामिड के अऩ्दर बैठकर किया गया शुभ संकल्प दृढ़ होता है। कई प्रयोगों से यह देखा गया है कि किसी बुरी आदत का शिकार व्यक्ति यदि पिरामिड में बैठकर उसे छोड़ने का संकल्प करे तो वह अपने संकल्प में सामान्य अवस्था की अपेक्षा कई गुना अधिक दृढ़ रहता है और उसकी बुरी आदत छूट जाती है।
विशेषज्ञों का कहना है कि पिरामिड में कोई भी दूषित, खराब या बाधक तत्त्व टिकते नहीं हैं। अपनी विशेष आकृति के कारण यह केवल सात्त्विक ऊर्जा का ही संयम करता है। इसीलिए कुछ दिन भी पिरामिड में रहने वाले व्यक्ति के दुर्गुण भाग जाते हैं।
पिरामिड में किसी भी पदार्थ के मूल कण नष्ट नहीं होते इसलिए इसमें रखे हुए पदार्थ सड़ते-गलते नहीं हैं। मिश्र के पिरामिड में हजारों वर्षों पहले रखे गये शव आज भी सुरक्षित हैं, यह उपरोक्त तथ्य का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
मिश्र के पिरामिड मृत शरीर को विक्षिप्त होने से बचाने के लिए बनाये गये हैं। इनकी वर्गाकार आकृति पृथ्वी तत्त्व का ही गुण संग्रह करती है जबकि मंदिरों के शिखर पर बने पिरामिड वर्गाकार के साथ-साथ तिकोने व गोलाकार आकृति के होने से पंच महाभूतों को सक्रिय करने के लिए बनाये गये हैं। इस प्रकार के सक्रिय (ऊर्जामय) वातावरण में भक्तों की भक्ति, क्रिया तथा ऊर्जाशक्ति का विकास होता है। दक्षिण भारत के मंदिरों के सामने अथवा चारों कोनों में पिरामिड आकृति के गोपुर इसीलिए बनाये गये हैं। ये गोपुर एवं शिखर इस प्रकार से बनाये गये हैं ताकि मंदिर में आऩे जाने वाले भक्तों के चारों और कॉस्मिक एनर्जी का विशाल एवं प्राकृतिक आवरण तैयार हो जाये।
अपनी विशेष आकृति से पाँचों तत्त्वों को सक्रिय करने के कारण पिरामिड शरीर को पृथ्वी तत्त्व के साथ, मन को वायु तथा बुद्धि को आकाश तत्त्व के साथ एकरूप होने के लिए आवश्यक वातावरण तैयार करते हैं।
पिरामिड किसी भी पदार्थ की सुषुप्त शक्ति को पुनः सक्रिय करने की क्षमता रखता है। फलतः यह शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक क्षमताओं को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
पिरामिड ‘ब्रह्माण्डीय ऊर्जा’ जिसे विज्ञान ‘कॉस्मिक एनर्जी’ कहता है, उसे अवशोषित करता है। ब्रह्माण्ड स्वयं कॉस्मिक एनर्जी का स्रोत है तथा पिरामिड अपनी अदभुत आकृति के द्वारा इस ऊर्जा को आकर्षित कर अपने अऩ्दर के क्षेत्र में घनीभूत करता है। यह कॉस्मिक एनर्जी पिरामिड के शिखरवाले नुकीले भाग पर आकर्षित होकर फिर धीरे-धीरे इसकी चारों भुजाओं से पृथ्वी पर उतरती हैं। यह क्रिया सतत् चलती रहती है तथा इसका अद्वितीय लाभ इसके भीतर बैठे व्यक्ति या रखे हुए पदार्थ को मिलता है।
पूज्यपाद संत श्री आशाराम जी बापू के दिशा-निर्देशन में कई संत श्री आशाराम जी आश्रमों में साधना के लिए पिरामिड बनाये गये हैं। मंत्रजप, प्राणायाम एवं ध्यान के द्वारा साधक के शरीर में एक प्रकार की विशेष सात्त्विक ऊर्जा उत्पन्न होती है। यह ऊर्जा उसके शरीर के विभिन्न भागों से वायुमण्डल में चली जाती है परन्तु पिरामिड ऊर्जा का संचय करता है। अपने भीतर की ऊर्जा को बाहर नहीं जाने देता तथा ब्रह्माण्ड की सात्त्विक ऊर्जा को आकर्षित करता है। फलतः साधक पूरे समय सात्त्विक ऊर्जा के बीच रहता है।
आश्रम में बने पिरामिडों में साधक एक सप्ताह के लिए अन्दर ही रहता है। उसका खाना-पीना अऩ्दर ही पहुँचाने की व्यवस्था है। इस एक सप्ताह में पिरामिड के अऩ्दर बैठे साधक को अनेक दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं। यदि उस साधक की पिरमामिड में बैठने से पहले तथा पिरामिड से बाहर निकलने के बाद की शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक एवं बौद्धिक स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो कोई भी व्यक्ति पिरामिड के प्रभाव को प्रत्यक्ष देख सकता है।
पिरामिड द्वारा उत्पन्न ऊर्जा शरीर की नकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक ऊर्जा में बदल देती है जिसके कारण की रोग भी ठीक हो जाते हैं। व्यक्ति के व्यवहार को परिवर्तित करने में भी यह प्रक्रिया चमत्कारिक साबित होती है। विशेषज्ञों में तो परीक्षण के द्वारा यहाँ तक कह दिया कि पिरामिड के अन्दर कुछ दिन तक रहने से मांसाहारी पशु भी शाकाहारी बन सकता है।
इस प्रकार पिरामिड की सात्त्विक ऊर्जा का यदि साधना व आदर्श जीवन के निर्माण हेतु प्रयोग किया जाय तो आशातीत लाभ हो सकते हैं। हमारे ऋषियों का मंदिरों की छतों पर ‘पिरामिड शिखऱ’ बनाने का यही हेतु रहा है। हमें उनकी इस अनमोल देन का यथावत् लाभ उठाना चाहिए।
अधिकांश लोग यही समझते हैं कि पिरामिड मिश्र की देन है परन्तु यह सरासर गलत है। पिरामिड के बारे में हमारे ऋषियों ने मिश्र के लोगों से भी सूक्ष्म एवं गहन खोजें की हैं। मिश्र के लोगों ने पिरामिड को मात्र मृत शरीरों को सुरक्षित रखने के लिए बनाया जबकि हमारे ऋषियों ने इसे जीवित मानव की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिए बनाया।
भारतीय संस्कृति विश्व की सबसे प्राचीन संस्कृति है तथा भारत के अति प्राचीन शिल्पग्रन्थों एवं शिव स्वरोदय जैसे धार्मिक ग्रंथों में भी पिरामिड की जानकारी मिलती है। अतः हम कह सकते हैं कि पिरामिड मृत चमड़े की सुरक्षा करने वाले मिश्रवासियों की नहीं अपितु जीवात्मा एवं परमात्मा के एकत्त्व का विज्ञान जानने वाले भारतीय ऋषियों की देन हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 105
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