सफलता का विज्ञान

सफलता का विज्ञान


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

विदेश में किसी व्यक्ति ने सुना कि फलानी जगह पर खोदने से सोना निकलेगा। उसने वह जमीन खरीद ली और खुदवाना शुरु किया। खोदने के कार्य में उसके लाखों रूपये खर्च हो गये किन्तु कुछ मिला नहीं। वह अत्यंत निराश हो गया, तब उसके किसी मित्र ने कहाः “इतना तो खुदवा ही दिया है। अब हो सकता है कि दो-पाँच फुट और खोदने पर सोना मिल जाये।”

वह व्यक्ति बोलाः “जब इतना-इतना खोदा फिर भी सोना नहीं मिला तो पाँच फुट और खुदवाने पर कैसे मिलेगा ? मेरा भाग्य ही ऐसा है।”

अपने भाग्य को दोष देते हुए उसने खदान को अत्यंत कम मूल्य पर बेच दिया। दूसरे व्यक्ति ने खरीद कर उसे फिर से खुदवाना शुरु किया। पाँच-छः फुट और खुदवाने पर ही उसे खूब सोना मिला। तब बेचने वाले ने कहाः “क्या करें ? उसका भाग्य अच्छा था इसलिए उसे मिल गया। मेरा तो भाग्य ही फूटा हुआ है।”

वास्तव में पहले का भाग्य फूटा हुआ और दूसरे का अच्छा था, ऐसी बात नहीं है। पहले वाले ने धैर्य और श्रद्धा खो दी जबकि दूसरे का धैर्य और श्रद्धा ज्यादा थी इसलिए उसे सोना मिल गया।

विफल वे ही लोग होते हैं जो लापरवाह होते हैं, निराशावादी होते हैं। जिस कार्य के लिए जितना धैर्य, जितनी तत्परता व समझ होनी चाहिए उसकी कमी के कारण लोग निराश होते हैं और असफल हो जाते हैं। उसी काम को दूसरा व्यक्ति उत्साह, धैर्य और तत्परता से करता है तो सफल हो जाता है।

परिस्थितियाँ मनुष्य को गुलाम नहीं बनातीं, मनुष्य परिस्थितियों को बनाता है। बाग्य मनुष्य को नहीं बनाता, मनुष्य अपने भाग्य को बनाता है।

एक बार तक्षशिला को शत्रुओं ने घेर लिया। सेनापति ने आकर राजा से कहाः “शत्रु का सैन्यबल, राज्यबल हमसे अधिक है। युद्ध में हम हार जायेंगे। अतः अच्छा यही है कि हम शरणागत हो जायें। दूसरा कोई उपाय नहीं है।”

तक्षशिला के नरेश को वह बात ठीक भी लग रही थी। इतने में एक महात्मा आ गये और बोलेः “तुम्हारा सेनापति तुम्हारी श्रद्धा और मनोबल तोड़ रहा है। इसे अभी-अभी सेनापति के पद से हटा दो और सेनापति का पद मुझे दे दो। मैं तुम्हारी सेना लेकर जाऊँगा और जरूर विजयी होकर आऊँगा।”

पहले तो राजा हिचकिचाया लेकिन बाद में उसे हुआ कि इन महात्मा की वाणी में विश्वास और गहराई है। अतः उसने निराशाजनक विचार करने वाले सेनापति की बात को ठुकराकर महात्मा को सेनापति का पद प्रदान कर दिया।

महात्मा सेना को लेकर आगे बढ़े। शत्रुपक्ष की सेना और तक्षशिला की सेना के बीच देवी का एक मंदिर था। महात्मा ने सेना को वहीं रोककर सैनिकों से कहाः “देखो, अगर देवी माँ ‘हाँ’ कहेंगी तो हमारी विजय निश्चित है। मैं यह सिक्का उछालता हूँ। अगर सीधा पड़ा तो विजय हमारी होगी और अगर उल्टा पड़ा तो हम उल्टे पैर वापिस लौट चलेंगे।”

यह कहकर महात्मा ने अपनी जेब से सिक्का निकाला और आसमान में उछाला। सिक्का धरती पर सीधा गिरा। महात्मा ने पुनः कहाः “देखो, देखो, सिक्का सीधा पड़ा है। हमारी विजय निश्चित है। भले ही शत्रु संख्या में ज्यादा है लेकिन माँ ने स्वीकृति प्रदान कर दी है। अतः विजय हमारी ही होगी।”

इस प्रकार महात्मा ने तीन बार सिक्का उछाला और तीनों बार सिक्का सीधा पड़ा। इससे सैनिकों के मनोबल में दृढ़ता व श्रद्धा का संचार हो गया और वे पूरे जोश के साथ युद्ध में कूद पड़े। देखते ही देखते वे शत्रुपक्ष की विशाल सेना पर इस तरह हावी हो गये मानों, हाथियों के झुंड पर सिंह। थोड़े ही समय में शत्रु सेना के पैर उखड़ने लगे एवं तक्षशिला की जीत हो गयी।

प्रसन्नता से सैनिक कह उठेः “देवी माँ की जय…… देवी माता ने ही हमें विजय दिलायी है।”

महात्मा ने रहस्योदघाटन करते हुए कहाः “विजय देवी माता ने तो क्या, तुम्हारे विश्वास और उत्साह ने ही दिलवायी है। तुममें विश्वास जगाने के लिए ही  मैंने यह प्रयोग किया था कि सिक्का सीधा पड़ेगा तो विजय हमारी होगी। वास्तव में सिक्का दोनों तरफ से सीधा ही सीधा था। ऐसा सिक्का तुम्हारे श्रद्धा विश्वास को बढ़ाने के लिए मैंने बनवाया था। यह देखो वही सिक्का दोनों तरफ से सीधा है। विजय तो तुम्हारे विश्वास की हुई है।”

जिसका उत्साह और विश्वास मरता है वही मरता है। जिसमें विश्वास और उत्साह तीव्र होता है वह विलक्षण सफलता प्रदान करता है। अतः कैसी भी विकट परिस्थिति हो, अपना धैर्य, श्रद्धा, विश्वास एवं उत्साह नहीं खोना चाहिए वरन् बुद्धिपूर्वक विश्लेषण करके लगे रहना चाहिए, डटे रहना चाहिए। मुसीबतों का सामना अटल एवं अडिग होकर करो। विजय तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रही है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2001, पृष्ठ संख्या 13-14, अंक 102

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