(महर्षि बाल्मीकि कृत श्री योगवाशिष्ठ महारामायण में उत्तम पद की व्याख्या कर रहे हैं ब्रह्मर्षि वशिष्ठ और सुन रहे हैं भगवान श्रीराम।)
भगवान श्री राम ने वशिष्ठ से पूछाः
हे मुनिशार्दूल ! त्रिभुवन में सबसे उत्तम चीज कौन-सी है, उत्तम पद कौन सा है और उत्तम पुरुष कौन सा है ?
वशिष्ठ जी ने कहाः हे रामचन्द्र जी ! इन्द्रियों के भोगों में लिप्त होकर, मान-बड़ाई की जंजीरों में फँसकर जीव बेचारे चहुँ और भटकते हैं। कोई-कोई विरला इन आकर्षणो से बचकर परम पद को पाता है, आत्मज्ञान को पाता है वह उत्तम है।
मेरे मत में देवता उत्तम नहीं है क्योंकि वे भोग की खाई में पड़े हैं और अपने को भाग्यवान मानते हैं। पुण्यनाश होने के बाद, भोग नष्ट हो जाने के बाद वे दुःखी हो जाते हैं और फिर उन्हें नीचे आना पड़ता है।
मेरे मत में वे गंधर्व भी उत्तम नहीं हैं क्योंकि उन्हें तो आत्मज्ञान की गंध भी नहीं है। वे रूप बदल सकते हैं, सर्वत्र गति करने वाले विमान में आ जा सकते हैं, इधर-उधर के लोकों में गति कर सकते हैं, लेकिन जिससे गति होती है उस गतिदाता की मुलाकात नहीं करते, उन गंधर्वों को धिक्कार है।
उन विद्याधरों को भी धिक्कार है जो वेदों की विद्या तो जानते हैं, वेद की ऋचाएँ भी बोल लेते हैं लेकिन आत्मविद्या में उनको रस नहीं है। वेद के लक्ष्य का अमृत जिनको प्राप्त नहीं हुआ उन विद्याधरों को धिक्कार है।
यक्ष और किन्नरों को भी धिक्कार है जो आत्मपद से वंचित होकर इधर-उधर नाच-गान में, रूप लावण्य में और विषय-वासना में जीवन बरबाद कर रहे हैं।
पाताल लोक में जो नाग रहते हैं वे भी सुंदर नागिनियों के पीछे मोहांध हो जाते हैं। उन नागों को भी धिक्कार है जो आत्मरस से वंचित होकर काम विकार में अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं।
हे राम जी ! मनुष्यों को तो तुम जानते ही हो। मेरा अपना घर हो जाये.. धंधे में बरकत हो जाये… धन बढ़ जाये… पुत्र मिल जाये… इसी चिंता में बेचारे चूर हो रहे हैं। वे नराधम यह नहीं जानते कि जिस आत्मपदको जानने के लिए जीवन मिला है उसकी पहचान करनी चाहिए। वे ब्रह्मविचार नहीं करते। अपना घर हो, पत्नी सुंदर हो, पुत्र आज्ञाकारी हो, पड़ोसी अच्छा हो, इधर ऐसा हो, उधर वैसा हो… इन विचारों में तो जिंदगी नष्ट कर देते हैं लेकिन उन्हें ब्रह्मविचार के लिए समय नहीं मिलता है।
कोई-कोई विरला होता है जो ब्रह्मविचार के अमृत तक पहुँचता है। सागर में जंतु बहुत होते हैं, घोंघे बहुत होते हैं लेकिन सीप तो कहीं-कहीं होती है जो मोती पकाती है। ऐसे ही संसार-सागर में अज्ञानी, मूढ़ तो बहुत होते हैं, कोई-कोई विरला होता है जो ब्रह्मविचार करके आत्म साक्षात्कार कर लेता है। उसको मेरा नमस्कार है।
हे राम जी ! लोगों की नजर में जो ऊँचे दिखते है, वे भी भोग के कीचड़ में खदबदाते हैं। लोगों की दृष्टि से जो बड़े पद पर हैं, बड़ी सत्ता पर हैं, अपार धनराशि के स्वामी हैं, लोगों की दृष्टि से मान देने योग्य हैं, ऐसे लोग भी इन्द्रियों के विषयों में तपते हैं। कोई विरला ही होता है, जो इन्द्रियातीत, देशातीत, कालातीत तत्व को पाकर अपना जन्म सार्थक करता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 5-6, अंक 108
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