इस व्यापारी की कथा के पीछे छुपा था महत्वबुद्धि का गहरा मर्म…

इस व्यापारी की कथा के पीछे छुपा था महत्वबुद्धि का गहरा मर्म…


गुरुभक्तियोग की नींव गुरु के प्रति अखंड श्रद्धा में निहित है। शिष्य को समझ में आता है कि हिमालय की एकांत गुफा में समाधि लगाने की अपेक्षा गुरु की सेवा करने से वह उनके ज्यादा संयोग में आ सकता है। गुरु के साथ अधिक एकता स्थापित कर सकता है। गुरु को संपूर्ण बिनशर्ती आत्मसमर्पण करने से अचूक गुरुभक्ति प्राप्त होती है।

भगवद्गीता के 18 वे अध्याय का यह श्लोक –

*”यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।”*

यह श्लोक साधको व शिष्य समाज को सफल अध्यात्मिक यात्रा का सूत्र दे रहा है। यहाँ श्रीकृष्ण के नाम के पूर्व योगेश्वर शब्द का प्रयोग किया गया। योगेश्वर अर्थात ईश्वर की निराकार सत्ता का साकार स्वरूप। जब वह परम शक्ति एक महान लक्ष्य को लेकर मानवता के पथ प्रदर्शक बनकर सद्गुरु या जगद्गुरु रूप में अवतरित होती है, तो वह योगेश्वर कहलाती है।

भगवान श्रीकृष्ण इसी विषय में उद्घोष करते हैं कि अपने भक्तों के कल्याणार्थ धर्म की संस्थापना के लिए मैं बार-2 निराकार से साकार होता हूँ। साकार रूप में विराजमान गुरुसत्ता का महिमा श्रीकृष्ण गा रहे हैं।

भगवान शिव माँ पार्वती से कहते हैं,

*अत्रिनेत्र शिव साक्षात द्विबाहुश्च हरिस्मृतः।*

हे पार्वती! गुरु ही स्वयं ब्रह्म हैं। शंकर के समान उनके तीन नेत्र प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देते, परन्तु फिर भी वे भगवान शिव हैं। श्रीविष्णु के समान उनके चार हस्त नहीं है, किन्तु वे इस धराधाम पर दो हाथोंवाले विष्णु ही हैं। ब्रह्माजी की भांति वे चार मुखधारी भी नहीं हैं, परन्तु फिर भी वे साक्षात ब्रह्मा हैं।

सद्गुरु के इसी ईश्वरीय स्वरूप का साक्षात्कार हरयुग में शिष्यों ने अपने अन्तरघट में किया है। अतः समय-2 पर वही परम सत्ता योगेश्वररूप में, गुरुरूप में धरा पर प्रकट होती हैं। गुरुरूप में आकर अज्ञानता में पड़े समाज को ज्ञान प्रदान कर उन्हें परम लक्ष्य की ओर वहीं गुरुसत्ता अग्रसर करती हैं। सद्गुरु ही साक्षात योगेश्वर हैं।

श्लोक में जहां भगवान योगेश्वर श्रीकृष्ण कहकर संबोधित किया गया है, वहीं अर्जुन के लिए कहा गया कि ‘पार्थो धनुर्धर ‘ अर्थात केवल अर्जुन नहीं, धनुर्धर अर्जुन! क्योंकि धनुष से ही अर्जुन की गरिमा है। गाण्डीव रहित अर्जुन तो मोहग्रस्त है, विकारग्रस्त है, निराश है, उत्साहहीन है। बिना युद्ध के ही पराजित है। अतः गाण्डीव से ही अर्जुन की शोभा है। परन्तु वास्तव में यह अर्जुन है कौन?… अर्जुन कोई और नहीं अध्यात्मपथ के राही एक साधक, शिष्य का ही प्रतीक है।

अर्जुन का जीवन संघर्षों से परिपूर्ण था। वह कभी बाहर के शत्रुओं से तो कभी भीतर के मोह आदि विकारोरूपी शत्रुओं से घिरा रहता था। धर्म के मार्ग पर बढ़ते हुए, सत्य के मार्ग पर अग्रसर होते हुए उसे हरक्षण विपरीत परिस्थितियों से जुझना पड़ता था।

इसीप्रकार भक्तिमार्ग पर अग्रसर एक शिष्य के जीवन में भी विपरीत परिस्थितियों की आँधी चलायमान रहती है। उसे भी कभी अपने मन के विकारों, संस्कारों से कभी बाहरी परिस्थितियों से निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। किन्तु यहां विचारणीय तथ्य है, कौन से शिष्य इन विषम परिस्थितियों को सफलतापूर्वक पार कर पाते हैं? कौन से शिष्य मार्ग की चुनौतीयों को चुनौती देकर अपने लक्ष्य तक पहुंच पाते हैं? क्योंकि यह तो प्रमाणित है कि उत्साहहीन, निस्तेज, परिस्थितियों से उदासीन हुआ शिष्य कभी मंजिल की प्राप्ति नहीं कर सकता।

वह शिष्य जो प्रमादी व आलसी है उसके जीवन में गुरुआज्ञा से अधिक मन और इंद्रियों का सुख ही महत्वपूर्ण है। उसके लिए विजयश्री का आलिंगन करना असंभव है। जो शिष्य अपने ध्येय के प्रति, पुरुषार्थ के प्रति बेपरवाह है, उसके लिए सफलता प्राप्त करना तो दूर भक्तिपथ पर चलना भी दूभर होता है। परन्तु आखिर क्यों एक शिष्य अपने कर्म के प्रति लापरवाह हो जाता है? अपने ध्येय के प्रति उदासीन क्यों हो जाता है? उत्साहहीन क्यों हो जाता है?

ऐसा केवल तभी होता है जब उसके लिए लक्ष्य की महत्ता या गुरु की प्रसन्नता की प्रधानता कम हो जाती है।… क्योंकि कोई भी व्यक्ति किसी वस्तु के लिए लापरवाह तभी होता है, जब उसकी दृष्टि में उस वस्तु की कीमत कम हो जाती है। इस पक्ष को एक दृष्टांत के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं।

एक व्यापारी था। उसे अपनी कलम भूल जाने की आदत थी। कहीं भी हस्ताक्षर के लिए कलम उपयोग में लाता तो वही टेबल पर ही भूल जाता। अपनी उसी आदत से वह परेशान था।

उसके मित्र ने उसे सलाह दी कि आप एक सोने की कलम बनवा लीजिए और ऊपर एक हीरा भी लगवा लीजिए।

व्यापारी ने कहा कि मेरी कलम भूलने की आदत से अगर सोने की कलम भी भूल गया तो?

मित्र ने कहा, ऐसी बात नहीं होगी।

व्यापारी ने कलम बनवा ली। 6 महीने बाद जब व्यापारी पुनः अपने मित्र से मिला तो बड़ी ही प्रसन्नता से बोला कि अब मेरी कलम भूलने की आदत चली गई। देखो मेरी कलम मेरी जेब में ही है।

मित्र ने कहा, यह कमाल है कलम की कीमत का! तुम्हारी दृष्टि में अब यह कलम इतनी कीमती हो गई है कि तुम अनजाने में भी इसे नजरअंदाज नहीं कर सकते, इसके प्रति लापरवाह नहीं हो सकते। लापरवाही भी वही आती है जहां वस्तु की कीमत कम हो जाती है।

इसलिए एक शिष्य भी अपने धर्म के प्रति, अपने कर्म अर्थात सेवा-साधना के प्रति तभी लापरवाह होता है, जब उसके जीवन में इनकी कीमत कम हो जाती है। ऐसा शिष्य कभी अपने लक्ष्य को पूर्ण नहीं कर पाता। किन्तु इस समस्या का समाधान है ‘धनुर्धर पार्थ’!

धनुर्धर शब्द अर्जुन के पुरुषार्थ अथवा कर्मठता का परिचायक है। उसी अर्जुन के समक्ष विजय है जो गाण्डीव से सुसज्जित है, शस्त्रों से लैश है। एक शिष्य को भी विजय प्राप्त करने हेतु अपने शस्त्रों को धारण करना होगा। उसे कर्मशील व विभूतिवान बनना होगा। हरक्षण पुरुषार्थ में रत रहना होगा। राह की बाधाओं का, विपरीत परिस्थितियों का अपनी साधना के ओज, से गुरु की कृपा के ओज से डटकर सामना करना होगा।

जब ऐसा गांडीवधारी अर्थात पुरुषार्थी शिष्य अपने योगेश्वर गुरु के दिखाए मार्गपर सतत बढ़ता है, तो सफलता को भी उसके कदम चूमने ही पड़ते हैं। ऐसे ही शिष्य को फिर सुरमा की उपाधि से अलंकृत किया जाता है।

*सींचते हैं कर्मभूमि को अपने पुरुषार्थ से,*

*साधनारत रहते हैं नित्य भावना निस्वार्थ से।*

*गुरुआज्ञा धर शीश पर जो आगे बढ़ते जाते हैं,*

*वहीं तो भक्तिपथ के सुरमा कहलाते हैं!!*

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