सेवा में दृष्टिकोण कैसा हो ?

सेवा में दृष्टिकोण कैसा हो ?


गीता (17.27) में आता हैः

कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ।।

उस परमात्मा के लिए किया हुआ कर्म ‘सत्’ कहलाता है क्योंकि वह मोक्ष का साधन है ।

सद्भाव से सत्सेवा होती है, दृष्टिकोण में व्यापकता रहती है । आत्मवतु सर्वभूतेषु…. सब प्राणियों के प्रति अपने जैसा बर्ताव करना, यह है व्यापक दृष्टिकोण । दृष्टिकोण यदि संकीर्ण हो तो वास्तविक सेवा नहीं हो सकती, सेवा में निष्कामता नहीं आ सकती, कर्ताभाव की कलुषितता नहीं मिट सकती । स्वार्थी व्यक्ति अपने लिए बहुत कुछ सहन कर लेता है पर दूसरे के लिए कुछ भी सहना नहीं चाहता, उसका दृष्टिकोण संकीर्ण है । परंतु जिसका दृष्टिकोण व्यापक होता है वह दूसरों के हित के लिए सहर्ष कष्ट सहता है ।

व्यापक दृष्टिकोण वाले व्यक्ति को केवल दया या कारूण्य भाव का ही सुख नहीं मिलता अपितु आत्मिक उदारता, अद्वैत माधुर्य, आत्मतृप्ति भी मिलते हैं । ऐसे व्यक्ति की सेवा-परोपकार करके भी यह नहीं लगता कि मैंने किसी पर कोई उपकार किया है । वासुदेवः सर्वमिति… ‘सब कुछ वासुदेव ही है’ ऐसा निश्चय उसकी मति में दृढ़ होने लगता है । उसके जीवन में हर हाल में सम और प्रसन्न रहने की कला आ जाती है । ऐसा व्यापक दृष्टिकोण ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों के वेदांत-ज्ञान के सत्संग से एवं उनकी प्रीतिपूर्वक की सेवा से बनता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2019, पृष्ठ संख्या 17 अंक 320

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