आखिर क्यों किया भक्त नंदी ने हलाहल का पान। सुनिए सुना रहे हैं शिव जी…

आखिर क्यों किया भक्त नंदी ने हलाहल का पान। सुनिए सुना रहे हैं शिव जी…


जो कोई मनुष्य दुखों से पार होकर सुख एवं आनंद प्राप्त करना चाहता हो, उसे सच्चा अंतःकरण से गुरु भक्ति योग का अभ्यास करना चाहिए। गुरु के पवित्र चरणों के प्रति भक्ति भाव सर्वोत्तम गुण है, इस गुण को तत्परता एवं परिश्रम पूर्वक विकसित किया जाए तो, इस संसार के दुःख और अज्ञान के कीचड़ से मुक्त होकर, शिष्य अखुट आनंद और परमसुख के स्वर्ग को प्राप्त करता है।

कैलाश पर्वत की बर्फीली चोटी, एक पवित्र शिखर पर बाघ अंबर बिछा था, उस पर महादेव शंकर ध्यानस्थ थे।धीरे-धीरे यह ध्यान गहन समाधि में विलीन हो गया। इतने में मलंगी में झूमता हुआ महादेव का परम गण नंदी आया। नंदी ने विचार उठा, किसी उच्च लक्ष्य साधने हेतु मेरे प्रभु समाधि में स्थित है। मुझे भी सहयोग देना चाहिए। दिव्य तरंगों को सघन करना चाहिए। यही विचार कर नंदी ने महादेव शंकर के समक्ष धरा पर एक आसन बिछाया, फिर पद्मासन धारण कर तन को तान कर साधना में बैठ गया। साधना के प्रताप से उसके हृदय का सूक्ष्म तार महादेव की ब्रह्मा चेतना से जुड़ गया । एक तार निर्बाध और अटूट जुड़ाव था। कुछ समय बाद एक अनहोनी घटी। दुष्ट जालंधर जो महादेव से घोर शत्रुता रखता था, वह कैलाश में घुसपैठ कर कर गया। छल-बल से महादेव के भार्या देवी पार्वती का अपहरण करके ले गया। शिवलोक में हाहाकार मच गया। देवगण और शिवगण घोर चिंता से व्याकुल हो उठे। उन्होंने सामूहिक निर्णय लिया कि इस हरण वाली दुर्घटना की सूचना महादेव को दी जाए। परंतु कैसे महादेव तो घन समाधि में लीन थे। गणेश जी ने उन्हें उठाने के भरसक प्रयत्न किए, परंतु विफल ही रहे। भगवान की समाधि तो अतल गहराइयों को छू चुकी थी। ऐसे में क्या करें?

विवेक के देवता गणेश जी को युक्ति सूझी उन्होंने महादेव के परम गण नंदी को साधन बनाया। ध्यान में लीन नंदी के कान में सारी दुर्घटना कह दी। इधर नंदी के कान में सूचना गई, उधर भगवान के नेत्र तुरंत उन्मीलित हो खुल गए। महादेव समाधि से उठ गए। कैसा अद्भुत सूक्ष्म जुड़ाव था भक्त और भगवान का। बस तभी से यह ऐतिहासिक घटना एक आराधना पद्धति या प्रथा के रूप में ले गई। आज अनेक शिव मंदिर इस प्रकार निर्मित है, जिनमें महादेव की मूर्ति के ठीक सामने नंदी की प्रतिमा होती है। भक्तजन अपने मनोकामना नंदी के कान में कहते हैं। मान्यता है कि, यह कामना सीधा भगवान शिव तक संप्रेषित हो जाती है।

अब मन में जिज्ञासा उठती है, भला ऐसा कौन सा गुण है इस शिवगण नंदी में, जो भगवान ने स्वयं को समाधि से उठाने का श्रेय उसे दे दिया।

एक दिन यही जिज्ञासा माता पार्वती के हृदय में दस्तक देने लगी। पार्वती जी ने महादेव जी से पूछा कि, आपको नंदी इतना प्रिय क्यों है?

महादेव जी ने कहा क्योंकि, नंदी में सेवा और भक्ति का दोनों का समन्वय है। उसकी सेवा कर्मों में शौर्यता है, धार है, एक सतत वेग है। उसकी भक्ति आराधना में तप है, समर्पण है, निरंतर सुमिरन है इसलिए नंदी मुझे प्राणवत प्रिय है। प्रभु भक्ति भाव और समर्पण तो आपके सभी भक्तों और गणों में है फिर नंदी के भक्ति में ऐसा क्या विशेष है। जो आपके हृदय को गदगद कर दिया है।

देवी अनेक वर्षों पूर्व की बात है। अपने पिता ऋषि शीलाद के द्वारा, नंदी को यह पता चला कि वह अल्पायु है। समस्या है तो समाधान भी होगा। यही विचार कर नंदी भुवन नदी के किनारे साधना करने लगा। अटूट लगन और एकचित्तता थी उसकी सिमरन में। जब एक कोटी सुमिरन पूर्ण हुए तो मैं प्रकट होकर दर्शन देने को विवश हो गया। हे देवी! जानती हो, यह साधना सुमिरन में इतना निमग्न था कि मुझसे वर मांगना उसे ध्यान ही नहीं था। उसे साधना रत छोड़कर मैं फिर विलीन हो गया। ऐसे ही दो बार और हुआ। तृतीय बार जब मैं प्रकट हुआ तब मैंने ही अपना वरदहस्त उठा कर उसे वर प्राप्ति के लिए प्रेरित किया।

जानती हो देवी तब भी नंदी ने दीर्घायु का वर नहीं मांगा। अपने अखंड साधना का ही फल चाहा। उसकी चाहत ही केवल मेरा सान्निध्य है। महादेव मुझे अपने अलौकिक संगति का वर दो।अपना प्रेम में सानिध्य और स्वामित्व दो, मैं तो दास भाव से आपके संग सदा रहना चाहता हूं | मेरा हृदय अन्य कोई अपेक्षा नहीं रखता। सरल हृदय से नंदी ने यह भोले भाले वचन कहें।मेरा हृदय द्रवित हो उठा, मैंने प्रसन्न होकर उसे अपना अविनाशी वाहन और परम गण घोषित कर दिया।

मां पार्वती कहती है कि, किंतु वाहन ही क्यों कोई अन्य भूमिका क्यों नहीं? देवी वाहन का समर्पण अद्वितीय होता है। नंदी का मन इतना समर्पित है कि मैं सदा उस पर आरूढ़ रहता हूं। अर्थात उसके मन पर आरूढ़ रहता हूं, उसकी अपनी कोई इच्छा, कोई मति, कोई आकांक्षा नहीं। नंदी मेरी इच्छा, मेरी आज्ञा, मेरी आदर्शों का वाहक बन गया है इसलिए वह मेरा वाहन है।

ऊपरी लिखित संवाद बड़ा ही गहरा सूत्र हमें दे रहा है। बहुत से साधक को प्रश्न होता है, मन में समर्पण कैसे आता है? स्वयं भगवान शिव जी समझा रहे हैं, साधना और समर्पण का अटूट नाता है, जितनी साधना और सुमिरन होगा उतना ही मन अपनी ठोसता छोड़ता चला जाएगा। लचीला अर्थात समर्पित होता जाएगा। शिष्य के ऐसे ही समर्पित मन पर सतगुरु की आज्ञा आरूढ़ होती है। ऐसा ही शिष्य अपने सद्गुरु का वाहन बन पाता है। अर्थात उनकी आज्ञा का वाहन, उनकी छांव का वाहन, उनकी सिद्धांतों का वाहन बन जाता है।

माता पार्वती कहती है कि सत्य है प्रभु नंदी की भक्ति, साधना और समर्पण तो अनुपम है। अब उसकी शौर्य और कर्म की भी तो विशेषता बताइए। मैं जानने को उत्सुक हूं।

महादेव जी कहते हैं, तुम्हें स्मरण है देवी! समुद्र मंथन कि वह असाधारण बेला,समुद्र को मथते-मथते निकला हलाहल विष संसार के प्राण के लिए हमें उसका पान करना पड़ा परंतु विषपान करते हुए विष की कुछ बूंदे धरा पर गिर गई। इन बूंदों के कुप्रभाव से पृथ्वी त्राहि-त्राहि करने लगी। तभी मेरे नंदी ने अपने जिह्वा से उन विष बिंदुओं को चाट लिया। यह ना सोचा कि मेरा क्या होगा?

देवों ने व्यग्र होकर कारण पूछा। नंदी तुमने ऐसा क्यों किया?

नंदी ने कहा मेरे स्वामी ने प्याला भर विषपान किया। क्या मैं सेवक होकर कुछ बूंदे सेवा में ग्रहण नहीं कर सकता क्या? जगत के त्राण और कल्याण में क्या इतना भी सहयोग नहीं दे सकता। सो ऐसा है नंदी का कर्म, शौर्य, नंदी की अतुलनीय सेवा निष्ठा, सच्चे सेवक, शिष्य के यही लक्षण होते हैं कि गुरु के देवी कार्य में वह संघर्षों का विष पीता है। गुरु के मान के लिए विरोधी परिस्थितियों के हलाहल को पीने से भी नहीं चूकता।अपने स्वामी अपने गुरुदेव के लक्ष्य को पूर्ण करने में पूरा पूरा सहयोग देता है। हम भी नंदी जैसे परम शिष्य बने, कर्म और भक्ति की, सेवा और साधना की मिसाल बने।

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