शिष्य की मनमुखता और गुरु का धैर्य

शिष्य की मनमुखता और गुरु का धैर्य


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

गुरु अपने शिष्य की सौ-सौ बातें मानते हैं, सौ-सौ नखरे और सौ-सौ बेवकूफियाँ स्वीकार करते हैं ताकि कभी-न-कभी, इस जन्म में नहीं तो दूसरे जन्म में यह जीव पूर्णता को पा ले। बाकी तो गुरु को क्या लेना है ! अगर गुरु को कुछ लेना है तभी गुरु बने हैं तो वे सचमुच में सदगुरु भी नहीं हैं। सदगुरु को तो देना-ही-देना है। सारा संसार मिलकर भी सदगुरु की सहायता नहीं कर सकता है पर सदगुरु अकेले पूरे संसार की सहायता कर सकते हैं। मगर संसार उनको सदगुरु के रूप में समझे, माने, मार्गदर्शन ले तब न ! ऐसा तो है नहीं इसलिए लोग बेचारे पच रहे हैं।

सब एक दूसरे को नीचा दिखाकर, एक दूसरे का अधिकार छीनकर सुखी होने में लगे हैं। सब-के-सब दुःखी हैं, सब के सब पच रहे हैं, नहीं तो ईश्वर के तो खूब-खूब उपहार हैं – जल है, तेज है, वायु है, अन्न है, फल हैं, धरती है और इसी धरती पर ब्रह्मज्ञानी सदगुरु भी हैं तो आनंद से जी सकते हैं, मुक्तात्मा हो सकते हैं। लेकिन राग में, द्वेष में, स्वार्थ में, अधिक खाने में, अधिक विकार भोगने में, सुखी होने में, मनमुखता में लगे हैं। गुरु आज्ञा-पालन में रूचि नहीं इसलिए ज्ञान में गति नहीं, पर जो आज्ञा-पालन में रुचि रखते हैं उनको गुरु-ज्ञान नित्य नवीन रस, नित्य नवीन प्रकाश देता है, वे जीवन्मुक्त हो जाते हैं। वे परम सुख में विराजते हैं, परमानंद में, परम ज्ञान में, परम तत्त्व में एकाकार रहते हैं। परमात्म-तत्त्व की प्राप्ति यह बहुत ऊँची स्थिति है, मानवता के विकास की पराकाष्ठा है। स्वर्ग मिल गया तो कुछ नहीं मिला। स्वर्ग से बढ़कर तो धरती पर कुछ नहीं है। तत्त्वज्ञानी की नजर में स्वर्ग भी कुछ नहीं है। स्वर्ग के आगे पृथ्वी का राज्य कुछ नहीं है। क्लर्क का पद प्रधानमंत्री पद के आगे छोटा है, तुच्छ है। ऐसे ही प्रधानमंत्री पद स्वर्ग के इन्द्रपद के आगे तुच्छ है और स्वर्ग का इन्द्रपद भी परमात्मपद के आगे तुच्छ है और स्वर्ग का इन्द्रपद भी परमात्मपद के आगे तुच्छ है। जो सदगुरु की कृपा को सतत पचाने में लगेगा, उसको ऐसे परमात्मपद की प्राप्ति हो सकती है। अतः अपने हृदय में ईश्वरप्राप्ति की तड़प बढ़ायें। तड़प और प्यास बढ़ने से अंतःकरण की वासनाएँ, कल्मष और दोष तप-तपकर प्रभावशून्य हो जाते हैं। जैसे गेहूँ को भून दिया फिर वे बीज बोने के काम में नहीं आयेंगे, चने या मूँगफली को भून दिया तो फिर उसका विस्तार नहीं होगा, ऐसे ही ईश्वरप्राप्ति की तड़प से वासनाएँ भून डालो तो फिर वे वासनाएँ संसार के विस्तार में नहीं ले जायेंगी। ईश्वर की तड़प जितनी ज्यादा है उतना ही शिष्य गुरु की आज्ञा ईमानदारी से मानेगा। गुरु की समझ और धैर्य गजब का है और शिष्य की अपनी मनमुखता भी गजब की है, फिर भी दोनों की गाड़ी चल रही है तो गुरु की करूणा और शिष्य की श्रद्धा से। गुरु अपनी करुणा हटा लें तो शिष्य गिर जायेगा अथवा तो शिष्य अपनी श्रद्धा हटा ले तो भी गिर जायेगा। गुरु की दया और शिष्य की श्रद्धा का मेल…..। नहीं तो गुरु कहाँ और शिष्य कहाँ ! गुरु सत्स्वरूप में जीते हैं और शिष्य असत् में जीता है, दोनों का मेल होना सम्भव ही नहीं है। अमावस्या की काली रात और दोपहर का सूर्य कभी मिल सकते हैं क्या ? लेकिन यहाँ मिलन है। गुरु अपनी ऊँचाइयों से थोड़ा नीचे आ जाते हैं जहाँ शिष्य है और शिष्य अपनी नीची वासना से थोड़ा ऊपर श्रद्धा के बल से चलने को तैयार हो जाता है। जहाँ गुरु हैं वहाँ पहुँचने की भावना तो बनती है बेचारे की। चलो, आज नहीं कल पहुँचेगा।

भगवान का चित्र तो काल्पनिक है, किसी ने बनाया है परंतु भगवान जहाँ अपनी महिमा में प्रकट हुए हैं, ऐसे महापुरुष तो साक्षात् हमारे पास हैं। वे महापुरुष पूजने व उपासना करने योग्य हैं। ‘मुण्डकोपनिषद’ में आता है कि ‘जिसको इस लोक का यश और सुख-सुविधा चाहिए वह भी ज्ञानवान का पूजन करे और मरने के बाद किसी ऊँचे लोक में जाना हो तब भी ज्ञानवान की पूजा करे।’

यं यं लोकं मनसा संविभाति

विशुद्धसत्त्वः कामयते यांश्च कामान्।

तं तं लोकं जयते तांश्च कामां-

स्तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चयेद् भूतिकामः।।

‘वह विशुद्धचित्त आत्मवेत्ता मन से जिस-जिस लोक की भावना करता है और जिन-जिन भोगों को चाहता है, वह उसी-उसी लोक और उन्हीं-उन्हीं भोगों को प्राप्त कर लेता है। इसलिए ऐश्वर्य की इच्छा करने वाला पुरुष आत्मज्ञानी की पूजा करे।’

(मुण्डकोपनिषद् 3.1.10)

वे ज्ञानी अपने शिष्य या भक्त के लिए मन से जिस-जिस लोक की भावना करके संकल्प कर देते हैं, उनका शिष्य उसी-उसी लोक में जाता है। तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चयेद् भूतिकामः। अपनी कामना पूर्ण करने के लिए आत्मज्ञानी महापुरुष का पूजन-अर्चन करें, उपासना करें। हम तो कहते हैं कि आत्मज्ञानी पुरुष का पूजन-अर्चन करो यह तो ठीक लेकिन आप ही आत्मज्ञानी हो जाओ मेरा ध्यान उधर ज्यादा है। घुमा-फिराकर मेरा प्रयत्न उधर की ओर ही रहता है।

आत्मज्ञानी महापुरुष ऐसे उत्तम पद में पहुँचे होते हैं, उनकी चेतना इतनी व्यापक, इतनी ऊँचाई में व्याप्त रहती है कि चन्द्र, सूर्य और आकाशगंगाओं से पार अनेकों ब्रह्माण्ड भी उनके अंतर्गत होते हैं। साधारण आदमी को यह बात समझ में नहीं आयेगी। जो मजाक में भी झूठ नहीं बोलते थे ऐसे सत्यनिष्ठ रामजी को वसिष्ठ जी ने यह बात बतायी थी। रामजी के आगे उपदेश देना कोई साधारण गुरु का काम नहीं है और राम जी किसी ऐरे-गैरे को गुरु को नहीं बनाते हैं, अपने से कई गुना ऊँचे होते हैं वहीं माथा झुकता है। गुरु का स्थान कोई ऐरा-गैरा नहीं ले सकता है। कितनी भी सत्ता हो, कितनी भी चतुराई का ढोल पीटे फिर भी गुरु के लिए हृदय में जो जगह है उस जगह पर, गुरु के सिंहासन पर ऐसे किसी को भी थोड़े ही बिठाया जाता है, कोई बैठ ही नहीं सकता। हमारे जीवन में कई ऊँचे-ऊँचे साधु-संत आये परंतु सब मित्रभाव से आये, सदगुरु तो हमारे पूज्यपाद भगवत्पाद श्री श्री लीलाशाह जी महाराज ही हैं। कई नेता आये, कई भक्त आये किंतु मेरे गुरुदेव के लिए मेरे हृदय में जो जगह है, उस जगह पर आज तक कोई बैठा नहीं है क्या ! अदृश्य होने वाले, हवा पीकर पेड़ पर रहने वाले योगियों से भी हमारा परिचय हुआ परंतु गुरुकृपा से जो आत्मज्ञान का सुख मिला उसके आगे बाकी सब नन्हा, बचकाना है। तो गुरु की जगह तो गुरु की है, उस जगह पर और कोई बैठ ही नहीं सकता। वह बहुत ऊँचा स्थान है। गुरु-गोविन्द दोनों एक साथ आ जायें तो क्या करोगे ?

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय।

बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।

उस ईश्वरस्वरूप आत्मा-ब्रह्मवेत्ता को कौन तौल सकता है ? किससे तौलोगे ? उसके समान कोई बाट हो तभी तो तौलोगे !

किसी को परेशान होना हो, अशांत होना हो तो आत्मज्ञानी गुरु के लिए फरियाद करे कि ‘हमारा तो कुछ नहीं हुआ, हमको तो कोई लाभ नहीं हुआ।’ निषेधात्मक विचार करेगा तो निषेध ही हो जायगा। जो उनके प्रति आदरभाव और विधेयात्मक विचार करेगा, उसकी बहुत प्रगति होगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 18,19,22 अंक 211

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