संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
श्री रामचरितमानस में आया हैः
गौधन गजधन बाजिधन, और रतन धन खान।
जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान।।
भक्त तुलाधार इसी संतोषरूपी धन के धनी थे। उन्होंने अयाचक व्रत ( न माँगने का व्रत) धारण किया था। वे खेत में फसल कटने पर अन्न के गिरे हुए दाने बीनकर एकत्र कर लेते थे एवं उन्हीं से अपनी क्षुधा शांत कर लेते थे। शरीर पर वस्त्र के नाम पर एक ही फटी धोती एवं फटा गमछा था।
पत्नी भी ऐसी ही पवित्र थी। वह पति के व्रत में सहयोगी थी। दोनों भगवद भजन में मस्त रहते थे। इच्छाएँ छोड़कर भगवान के रस में इतने तृप्त हो गये थे कि बड़े-बड़े राजाओं का सुख भी उनको आत्मसुख के आगे तुच्छ दिखता था। जो निष्कामी होते हैं, निःस्पृहि होते हैं, आत्मारामी होते हैं, ऐसे पवित्र संतों को प्रसिद्ध करने के लिए भगवान भी कभी कुछ-न-कुछ लीला कर लिया करते हैं !
तुलाधार स्वयं तो कुछ नहीं चाहते थे लेकिन उनकी महिमा बढ़ाने के लिए भगवान ने उनकी परीक्षा की। एक दिन जब तुलाधार स्नान करने के लिए नदी पर गये तो देखा कि चार-पाँच नये वस्त्र पड़े हैं। तुलाधार ने देखा लेकिन मन-ही-मन विचार करने लगे कि मेरा गुजारा तो इस फटी धोती से ही हो जाता है। जिस शरीर को ढँकता हूँ, वह शरीर भी एक दिन न रहेगा तो ढँकने का साधन ये वस्त्र कितने दिन तक ? किसी के पड़े हुए वस्त्र मैं क्यों लूँ ? जिस शरीर को एक दिन जला देना है उसके लिए चिंता क्यों करूँ ? मुझे तो भगवान का चिंतन करना चाहिए।
तुलाधार ने वस्त्र न उठाये, स्नान करके अपने घर चले गये। भगवान ने देखा कि है तो पक्का। दूसरे दिन भगवान ने मार्ग में तुलाधार को दिखे इस प्रकार अशर्फियों से भरा घड़ा रख दिया।
तुलाधार स्नान करने के लिए गये तो देखा कि अशर्फियों से भरा घड़ा ! सोने की मोहरें देखकर उन्हें अपनी दरिद्रता का ख्याल भी आया। परंतु उनके हृदय ने कहाः ‘मैंने तो अयाचक व्रत लिया है। मेरा सोना तो मेरा आत्मा, मेरा राम है। मेरा सोना तो पवित्र आचार है। फिर भी मैं अगर यह धन ले लूँ तो धन तो अनर्थों की जड़ है। धन आते ही भोग की इच्छा बढ़ने लगती है। धन आते ही अहंकार बढ़ने लगता है। धन आते ही कुटुंबी और स्वजनों में राग-द्वेष बढ़ने लगता है।
तुलाधार सोने की अशर्फियों को वहीं छोड़कर स्नान करके चले गये।
भगवान ने देखाः तुलाधार बड़ा पक्का है। इतनी स्वर्णमुहरें भी उसके चित्त को चलित न कर पायीं ! अब भगवान से रहा न गया… परीक्षा का पेपर जितना बढ़िया होता है उतनी कड़क जाँच होती है, वैसे ही भक्त जितना बढ़िया होता है उतनी कसौटी भी ज्यादा होती है।
भगवान एक ज्योतिषी का रूप लेकर भक्त के नगर में प्रविष्ट हुए। किसी का हाथ देखते थे, किसी का ललाट देखते थे और उसका भविष्य बता देते थे। देखते-देखते वे तुलाधार के पड़ोस में पहुँचे। तुलाधार की पत्नी ने देखाः कोई बड़े ज्योतिषी आये हैं और सब सच-सच बता देते हैं’ वह भी गयी ज्योतिषी के पास ?
उसे देखते ही ज्योतिषी ने कहाः
“आपके पति का नाम तुलाधार है।”
पत्नीः “आप धन्य हैं महाराज ! धन्य हैं।”
ज्योतिषीः “आपके पति अयाचक व्रत में दृढ़ नहीं हैं। आप गरीबी नहीं चाहती हो लेकिन पतिव्रता होने के कारण आपने पति की इच्छा को में मिला दिया है।”
पत्नीः “महाराज ! आप बिल्कुल सच कहते हैं।”
ज्योतिषीः “आपके पास ही एक ही साड़ी है। उसी को स्नान के पश्चात गीली होने पर रसोईघर में वहाँ की गरमी से अपने तन पर सुखाती हो। आप लोग खेत में अन्न के दाने चुनकर लाते हो और उन्हीं से सत्तू बनाकर भगवान को भोग लगाकर खा लेते हो। आज तक भगवान ने आपको कुछ न दिया, फिर भी उसी भगवान का आप भजन करते हो?”
पत्नीः “महाराज ! ऐसा न कहें। आपकी बात तो सच है, लेकिन हम धन या अन्न वस्त्र पाने के लिए उन्हें नहीं रिझाते।”
ज्योतिषीः दो दिन पहले ही आपके पति जब नदीं में नहाने के लिए गये थे, तब उन्हें रास्ते में पाँच-छः सुंदर धोती और साड़ियाँ पड़ी मिली थीं। आपके पति ने उन्हें छुआ तक नहीं और नहाकर वापस चले आये।”
पत्नीः “महाराज ! आप सच कहते हैं ?”
ज्योतिषी तो भगवान का स्वरूप थे। वे सच न बोलेंगे तो कौन बोलेगा ?
पत्नी भागी-भागी गयी अपने पति के पास और बोलीः “एक अंतर्यामी महाराज आये हैं, वे पूरे अंतर्यामी हैं। आप भी चलकर उनका दर्शन करें।”
तुलाधार ने आकर ज्योतिषी को प्रणाम किया और कहाः
“महाराज ! जरा आप हमारा भी ललाट देखें परंतु हमारे पास देने के लिए दक्षिणा नहीं है।”
ज्योतिषी ने कहाः “हम दक्षिणा लेते ही नहीं हैं। हम लेने को नहीं देने को निकले हैं।”
फिर तुलाधार का हाथ देखते हुए बोलेः “आपको दो दिन पहले धोती और साड़ियाँ मिली थीं, परन्तु आपने उन्हें नहीं लिया। धन की रेखा तो है लेकिन ‘ना-ना’ करके यह चौकड़ी आ गयी हैं। आज सुबह भी आपको स्वर्णमुद्राओ से भरा कलश मिला था….”
यह सुनकर तुलाधार को बड़ा आश्चर्य हुआः “महाराज ! ये बातें तो मैंने किसी को नहीं बतायीं, आपको कैसे पता चल गयी ?
ज्योतिषीः “किसी को नहीं बतायीं लेकिन रेखाएँ साफ—साफ बोल रही हैं। आपने उन स्वर्णमुहरों को देखा, आपको अपनी गरीबी भी याद आयी। फिर भी आपने नहीं ली।”
तुलाधारः “महाराज ! आपकी बात सही है।”
ज्योतिषीः “तुलाधार ! आप अपने भाग्य को स्वयं ठोकर मारते हो। हम ज्योतिषी हैं इसलिए सच्ची बात बताते हैं। सब गुण धन में आश्रित होते हैं। धनवान के अवगुण दब जाते हैं। धन से आदमी होम-हवन, यज्ञ-याग कर सकता है। धन से आदमी माता-पिता और गुरुजनों की सेवा करके आशीर्वाद पा सकता है। धन से क्या नहीं हो सकता है ?”
तुलाधारः “महाराज ! धन से सब कुछ होता है। धन से स्वर्ग का सुख मिलता है और स्वर्ग का सुख भोगकर फिर नरक में जाना पड़ता है। धन से अभिमान बढ़ता है, धन से भोग-वासना बढ़ती है, धन से लोभ बढ़ता है और धन की रक्षा-रक्षा में आदमी की आयुष्य पूरी हो जाती है।”
ज्योतिषी महाराज कहते हैं कि धन से सब कुछ होता है और तुलाधार भी कहते हैं कि धन से सब कुछ होता है, लेकिन जहाँ ज्योतिषी धन का प्रलोभन दिखा रहे हैं, वही तुलाधार धन के दोष बता रहे हैं। जिनको आत्मधन मिल गया वे नश्वर धन की कामना क्यों करेंगे ? जिनको आत्मसुख मिल गया वे संसार के नश्वर सुख की इच्छा क्यों करेंगे ? जिनको आत्मजीवन मिल गया वे देह की आसक्ति क्यों करेंगे ?
आखिरी ज्योतिषी चुप हो गये क्योंकि सत्य के आगे तो न्यायाधीशों को भी चुप रहना पड़ता है। तुलाधार धन के पूरे दोष बताने में सफल हो गये तो भगवान मौन हो गये। भगवान भीतर से बड़े प्रसन्न हो गये और अपनी प्रसन्नता की जरा-सी निगाह तुलाधार पर डाल दी।
अब तुलाधार को हुआः ‘हमारा हित चाहने के लिए इन्होंने इतनी बातें बतायीं और मैंने इनकी सब बातें काट दीं, फिर भी ये क्रोधित न हुए। जिसको कामना होती है, उसी को क्रोध आता है। मालूम होता है कि ये कोई महात्मा हैं या फिर स्वयं परमात्मा हैं क्योंकि इन्हें तनिक भी क्रोध नहीं आया।’
तुलाधार ने गहराई से देखा तो उसके चित्त में शांति और प्रसन्नता का साम्राज्य बढ़ा। उन्होंने ज्योतिषी के चरण पकड़ लिये और बोलेः
“भगवान ! आप और इस वेश में ! आप यह छलिया-वेश धारण करके आये ! अब आप अपने असली वेश में प्रगट हो जायें कृपा करें…. प्रभु !”
भगवान नारायण अपने असली रूप में प्रगट हो गये और तुलाधार को गले से लगा लिया।
जिनको कोई कामना नहीं है उन्हीं को भगवान अपने गले से लगाते हैं। कामना घटाने दो तरीके हैं-
ईश्वर से प्रीति इतनी हो जाये कि उनके सिवाय कोई कामना उठे ही नहीं।
अगर कामना उठे भी तो खुद सुख लेने की नहीं, वरन् दूसरों को सुख देने की कामना उठे। जो दूसरों को सुख देता है, वह स्वयं सुख का दाता हो जाता है। राजवैभव से युक्त जनक, श्रीकृष्ण, श्रीराम तथा विरक्त प्रारब्धप्रधान शुकदेव और तुलाधार ये सभी अनासक्ति एवं आत्मसुख की तृप्ति के अनुभव में एक ही थे।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 18-20, अंक 108
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