काकभुशुंडिजी चिरंजीवी कैसे हुए ?

काकभुशुंडिजी चिरंजीवी कैसे हुए ?


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

श्री योगवाशिष्ठ महारामायण’ के निर्वाण प्रकरण में एक प्रसंग आता है-

देवताओं की सभा में देवर्षि नारद जी चिरंजीवियों की कथा सुना रहे थे। किसी कथा के प्रसंग में मुनिवर शातातप ने चिरंजीवी काकभुशुंडिजी की कथा सुनायी। तब वशिष्ठ जी को काकभुशुंडिजी से मिलने का कुतूहल हुआ और कथा समाप्ति के बाद वे मेरुगिरी के उत्तम शिखर पर जा पहुँचे।

काकभुशुंडिजी ने वशिष्ठ जी का अर्घ्य पाद्य से पूजन किया, तदनन्तर उनके आगमन का कारण पूछा। वशिष्ठ जी ने कहा- “वायसराज ! तुम किस कुल में उत्पन्न हुए हो ? तुम इतने महान कैसे बने ?”

काकभुशुंडिजीः “मेरी माता ब्रह्माणी की हंसिनी थी। जन्म के पश्चात जब हम उड़ने योग्य हो गये तो हमारी माता हमें ब्रह्माणी देवी के पास आशीर्वाद दिलाने के भर के लिए ले गयी। उन्होंने हम पर ऐसा अनुग्रह किया, जिसके फलस्वरूप हम जीवन्मुक्त होकर स्थित हुए।”

वशिष्ठ जीः “तुम चिरंजीवी हो। तुमने असंख्य प्रकार की सृष्टियों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय देखे हैं। अतः यह बताओ कि इस सृष्टि-क्रम में तुम्हें किस-किस आश्चर्यजनक सृष्टि का स्मरण है ?”

काकभुशुंडिजीः “मुनिश्रेष्ठ ! किसी समय यह पृथ्वी शिला और वृक्षों से रहित थी। तब यह 11 हजार वर्षों तक भस्म से परिपूर्ण थी। एक चतुर्युगी तक इस पृथ्वी पर केवल दैत्य ही दैत्य थे। अन्य चतुर्युगी के दो युगों तक इस पर केवल जंगली वृक्ष थे। एक समय चार युगों से भी अधिक काल तक यह केवल पर्वतों से आच्छादित थी। एक बार संपूर्ण पृथ्वी पर अंधकार-ही-अंधकार व्याप्त था।

ब्रह्मण ! मुझे तो यहाँ तक स्मरण है कि मेरे सामने सैंकड़ों चतुर्युगियाँ बीत गयीं। मुझे एक ऐसी सृष्टि का भी स्मरण है, जिसमें पर्वत और भूमि का नामोनिशान भी नहीं था। चंद्रमा और सूर्य के बिना ही पूर्ण प्रकाश छाया रहता था और देवता तथा सिद्ध मानव आकाश में ही रहते थे।

मुनिवर ! आप तो ब्रह्मा जी के पुत्र हैं और आपके भी 8 जन्म हो चुके हैं। इस आठवें जन्म में मेरा आपके साथ समागम होगा – यह मुझे पहले से ही ज्ञात था।

यह वर्तमान सृष्टि जैसी है, ठीक इसी तरह की तीन सृष्टियाँ पहले भी हो चुकी हैं, जिनका मुझे भली भाँति स्मरण है। हे मुनीश्वर ! मंदराचल पर्वत को क्षीरसमुद्र में डालकर जब देवता और दैत्य मथने लगे, तब मंदराचल समुद्र में डूबने लगा, जिससे उनके मुँह पर उदासी छा गयी। उस समय भगवान विष्णु ने कच्छप का रूप धारण कर पर्वत को अपनी पीठ पर उठाये रखा और मंथन के बाद सागर से अमृत निकला था – ऐसा बारहवाँ समुद्र मंथन है, यह भी मुझे स्मरण है।

प्रत्येक युग में वेद आदि शास्त्रों के ज्ञाता व्यास व अन्य महर्षियों द्वारा विरचित महाभारत आदि इतिहास भी मुझे याद हैं। 11 बार श्री राम और 16 बार श्री कृष्ण अवतार ले चुके हैं।

हे मुनीश्वर ! इस प्रकार मुझे अनेक सृष्टियाँ स्मरण आती हैं, किंतु सभी भ्रममात्र हैं, कोई उपजी नहीं है। ये जगतस्वरूप भ्राँति-जल में बुलबुले के समान कभी स्थित दिख पड़ती है, किंतु वास्तव में इनका किसी काल में अस्तित्व नहीं है।”

वशिष्ठ जी ने पुनः पूछाः “आपके चिरंजीवी होने का कारण क्या है ?”

काकभुशुंडिजीः “आप सब कुछ जानते हैं, फिर भी मुझसे पूछ रहे हैं। आपके प्रश्न का उत्तर मैं देता हूँ, क्योंकि आज्ञा का पालन ही सज्जनों की सबसे बड़ी सेवा है – ऐसा मुनिलोग कहते हैं।

भगवन् ! समस्त संकल्पों से रहित परमात्म-विषयक भावना से अज्ञानरूपी अंधकार का, उसके कार्यों के साथ, भली प्रकार विनाश हो जाता है। इस परमात्म-विषयक भावना के अनेक भेद हैं। उनमें से संपूर्ण दुःखों का विनाश करने वाली प्राणभावना का मैंने आश्रय लिया है। वही मेरे चिरंजीवी होने का आधार है।

श्वास भीतर जाता है और बाहर आता है, उसके बीच की अवस्था को मैं देखता हूँ। इसी प्रकार श्वास बाहर आता है और दुबारा भीतर जाता है, उसके बीच की अवस्था को भी मैं देखता हूँ। उस अवस्था में जो चैतन्य है, शुद्ध-बुद्ध परमात्मा है उसका मैं सुमिरन करता हूँ। वही सबका अपना आपा है।

महात्मन् ! प्राण और अपान की गति के तत्त्व को जानकर उसका अनुसरण करने वाला पुरुष जन्म-मरणरूपी फाँसी से छूट जाता है, सदा के लिए मुक्त हो जाता ह। फिर वह इस संसार में लौटकर नहीं आता।”

श्वास अंदर जाते हैं तो उसे प्राण कहते हैं और बाहर आते हैं तो उसे अपान कहते हैं। श्वास के अंदर जाने और बाहर आने के बीच की जो शांत क्षण है, वह परमेश्वरीय क्षण है। इसी प्रकार श्वास के बाहर आने और अंदर जाने के बीच की जो क्षण है, जो सेकेंड-आधे सेकेंड का समय है, वह परमात्म क्षण है। उस परमात्म क्षण में जो स्थित होने का अभ्यास करता है, उसे बहुत लाभ होता है।

सुबह उठें तब भी ऐसा करें और ध्यान करें तब भी ऐसा अभ्यास करें। प्राणायाम करने से पहले और बाद में भी इस प्राणकला का अनुसंधान करे तो जीव मुक्त हो  जाता है।

भीष्म पितामह इसी प्राणकला के बल  से शरशय्या पर लेटे रहे। अंत समय में भगवान श्री कृष्ण के दर्शन करते-करते ज्यों ही उन्होंने प्राणकला को समेटा, त्यों ही उनके शरीर से बाण निकलते गये और घाव भरते गये।

इंद्रियों का स्वामी मन है और मन का स्वामी प्राण है। इस प्राणकला पर जितना-जितना नियंत्रण होगा, उतना ही व्यक्ति समर्थ, सुखी और स्वस्थ रहेगा। बीमारी तब होती है जब प्राणापान की गति बिगड़ती है। खूब सर्दी लग गयी हो तब बायाँ नथुना बंद करके थोड़ी देर के लिए दायाँ नथुना चालू कर दें तो सर्दी गायब हो जाती है। गर्मी लगती हो तो दायाँ नथुना बंद करके बायाँ चालू कर दें तो गर्मी गायब हो जाती है। इस प्रकार प्राणकला को जानकर व्यक्ति स्वस्थ तो रह ही सकता है, साथ ही साधना में भी बड़ा लाभ उठा सकता है।

काकभुशुंडिजी ने कहा- “ब्रह्मण ! महाप्रलय से लेकर प्राणियों की उत्पत्ति और विनाश को देखता हुआ मैं ज्ञानवान हुआ आज भी जी रहा हूँ। जो बात बीत चुकी है और जो होने वाली है, उसका मैं कभी चिंतन नहीं करता।

उपर्युक्त प्राणायाम विषयक दृष्टि का अवलंबन लेकर मैं इस कल्पवृक्ष पर स्थित हूँ। न्याययुक्त जो भी कर्त्तव्य प्राप्त हो जाते हैं, उनका फलाभिलाषाओं से रहित होकर केवल सुषुप्ति के समान उपरत बुद्धि से अनुष्ठान करता रहता हूँ।

प्राण और अपान के संयोगरूप कुंभककाल में प्रकाशित होने वाले परमात्म-तत्त्व का निरंतर स्मरण करता हुआ मैं अपने आप में स्वयं ही नित्य संतुष्ट हूँ, इसलिए दोषरहित होकर चिरकाल से जी रहा हूँ।

मैंने आज यह प्राप्त किया और भविष्य में दूसरा और सुंदर पदार्थ प्राप्त करूँगा – इस प्रकार की चिंता मुझे कभी नहीं होती। मैं अपने या दूसरे किसी के कार्यों की किसी समय, कहीं पर, कभी स्तुति और निंदा नहीं करता। शुभ की प्राप्ति होने पर मेरा मन हर्षित नहीं होता और अशुभ की प्राप्ति होने पर कभी खिन्न नहीं होता, क्योंकि मेरा मन नित्य सम ही रहता है।

मुने ! मेरे मन की चंचलता शांत हो गयी है। मेरा मन शोकरहित, स्वस्थ, समाहित और शांत हो चुका है, इसलिए मैं विकाररहित हुआ चिरकाल से जी रहा हूँ। लकड़ी, रमणी, पर्वत, तृण, अग्नि, हिम, आकाश – इन सबको मैं समभाव से देखता हूँ। जरा और मरण आदि से मैं भयभीत नहीं होता और राज्य-प्राप्ति आदि से भी हर्षित नहीं होता। इसलिए मैं अनामय होकर जीवित हूँ।

ब्रह्मन् ! यह मेरा बंधु है, यह मेरा शत्रु है, यह मेरा है और यह दूसरे का है – इस प्रकार की भेदबुद्धि से मैं रहित हूँ। लेन-देन और विहार करने वाला, बैठने और खड़ा रहने वाला, श्वास तथा निद्रा लेने वाला यह शरीर ही है, आत्मा नहीं है – यह मैं अनुभव करता हूँ।

मैं जो कुछ क्रिया करता हूँ, जो कुछ खाता-पीता हूँ, वह सब अहंता-ममता से रहित हुआ ही करता हूँ। मैं दूसरों पर आक्रमण करने में समर्थ होते हुए भी आक्रमण नहीं करता, दूसरों द्वारा खेद पहुँचाये जाने पर भी दुःखी नहीं होता और दरिद्र होने पर भी कुछ नहीं चाहता, इसलिए मैं विकाररहित हुआ बहुत काल से जी रहा हूँ।

मैं आपत्तिकाल में भी चलायमान नहीं होता, वरन् पर्वत की तरह अचल रहता हूँ। जगत, आकाश, देश, काल, परंपरा, क्रिया – इन सबमें चिन्मयरूप से मैं ही हूँ, इस प्रकार की मेरी बुद्धि है। इसलिए मैं विकाररहित  हुआ बहुत काल से स्थित हूँ।

स्वर्ग में मेरे दीर्घ आयुष्य की कथा सुनकर आप यहाँ पधारे। मेरे चिरंजीवी होने का रहस्य प्राणकला योगसाधना है। अधिक जीने या जल्दी शरीर छोड़ने से परमात्मानुभव में कोई फर्क नहीं पड़ता। चित्त को सम रखकर अल्प आयुष्यवाले भी उस परमात्मा का ऐसा अनुभव कर सकते हैं।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 8-10, अंक 119

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