उद्देश्य ऊँचा बनायें

उद्देश्य ऊँचा बनायें


(उच्च कोटि के साधकों के लिए)

संत श्री आशाराम जी के सत्संग प्रवचन से

धन जोबन का करे गुमान वह मूरख मंद अज्ञान।

धन, यौवन, पद, विद्या, चतुराई, प्रमाणपत्र का जो गुमान करता है वह मूर्ख है, अज्ञानी है। जब तक तू ब्रह्मवेत्ता की तराजू में सही नहीं उतरता तब तक जीवात्मा है और जीवात्मा तो जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि का खिलौना है। जब तक ब्रह्मवेत्ताओं के गढ़ में ईमानदारी, समर्पण भाव या सच्चाई से नहीं पहुँचा तब तक तू जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि का खिलौना है।

वशिष्ठ जी महाराज कहते हैं- “हे राम जी ! ज्ञानवान की भली प्रकार सेवा करनी चाहिए। उनका बड़ा उपकार है। वे संसार-सागर से तारते हैं। आत्मज्ञानी के वचनों का आदर करना चाहिए। आत्मज्ञानी के वचनों का अनादर करना मुक्तिफल का त्याग करना है। आत्मज्ञानी में एक भी गुण हो तो ले लेना चाहिए किंतु उनमें दोष नहीं देखना चाहिए।”

आत्मज्ञानी का अपना प्रारब्ध होता है मिलने-जुलने, लेने-देने, खाने पीने इत्यादि का…. कुछ लोग गुरु के आगे तो कुछ बात करते हैं और अंदर में होता है कुछ दूसरा…. तो ऐसे लोगों पर गुरुकृपा नहीं छलकती। उनका मन भी मलीन हो जाता है।

अतः साधक को चाहिए की ईमानदारी से अपना कर्तव्य  करे। ईमानदारी से सेवा करे। ईमानदारी और सच्चाई उसमें सत्य की जिज्ञासा पैदा कर देगी।

साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।

जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आप।।

जो ज्यादा चतुराई करते हैं, आलस करते हैं, कामचोर बनते हैं उनको भगवान के रास्ते जाने की रूचि नहीं होगी।

साधक होने का मतलब है अपनी इच्छाएँ,  वासनाएँ, आलस्य-प्रमाद और दुष्चरित्र का त्याग करके भगवान के लिए अपने अहं को मिटाकर भगवत्प्रीति बढ़ाने हेतु, एक ऊँचा उद्देश्य पाने के लिए पूरे प्रयत्न से लग जाना।

अगर उद्देश्य ऊँचा बनाया है तो उसमें विकल्प के लिए कोई स्थान नहीं है। हजारों जन्मों का काम एक ही जन्म में करना है, हजारों जन्मों के संस्कार इसी जन्म में मिटाने हैं, हजारों जन्मों की दुष्ट वासनाएँ इसी जन्म में नष्ट करनी है।

साधक को चाहिए कि तत्परता और ईमानदारी से सेवा करे। अगर वह ईमानदारी और सच्चाई से सेवा करेगा तो उसकी सेवा भी साधना बन जायेगी। जो तत्परता से सेवा करता है उसे किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए-यह अपने आप ही आ जाता है। जैसे, अपनी दुकान अथवा घर का काम तत्परता से करते हैं उससे भी ज्यादा सेवा के स्थल पर तत्परता आ जाये तो समझो, ईमानदारी की सेवा है।

नौकरी कामधंधे से समय बचाकर सेवा मिल गयी तो सेवा करें, नहीं तो जप ध्यान करें। अपना समय व्यर्थ न गँवायें।

भगवान सत्यस्वरप हैं। जो सच्चाई से जीता है, सच्चाई से सेवा करता है और सच्चाई से ध्यान-भजन करता है, वही ईश्वर के मार्ग पर दृढ़ता से चल पाता है।

लोग अपने कपड़े बदल देते हैं, मकान बदल देते हैं, अपना व्यवसाय बदल देते हैं लेकिन अपना स्वभाव नहीं बदलते। स्वभाव ही मनुष्य को स्वर्ग में ले जाता है, उसमें देवत्व ला देता है, स्वभाव ही मनुष्यों को नरकों में ले जाता है, स्वभाव ही मनुष्य को कामी-क्रोधी-लोभी-मोही बना देता है, स्वभाव ही मनुष्य को दूसरे की निन्दा करने वाला बना देता है और अगर स्वभाव दिव्य हो जाये तो ब्रह्मज्ञान भी प्राप्त हो जाता है।

शरीर तो जैसे का तैसा ही होता है, शरीर को क्या बदलेंगे और आत्मा तो अबदल है, अतः स्वभाव को ही बदलना है। उद्धव ने कृष्ण से पूछाः “सबसे बड़ी बहादुरी, शौर्य क्या है ?”

श्रीकृष्ण ने कहाः “बाह्य शत्रुओं पर विजय, दुनिया की सारी सत्ता पर विजय यह बड़ा शौर्य नहीं है अपने स्वभाव पर विजय पाना ही सबसे बड़ी बहादुरी, शौर्य है। स्वभावो विजयं शौर्यं।” श्रीमद भागवत

अपने अंतःकरण को बदलना चाहिए। अंतःकरण में अगर भगवद् ज्ञान, भगवन्नामजप और भगवद् ध्यान होगा तो अंतःकरण पवित्र होगा और पवित्र अंतःकरण में ही भगवद् प्राप्ति की प्यास जग सकेगी। भगवद् प्राप्ति से मनुष्य सारे पाशों से, सारे बंधनों से सदा के लिए छूट जायेगा।

अतः अपना उद्देश्य् भगवत्प्राप्ति का बनायें। अपना उद्देश्य ऊँचा बनायें और उसकी प्राप्ति में ईमानदारी से लगें। सावधान और सतर्क रहें कि कहीं समय व्यर्थ तो नहीं जा रहा ? अपने परमात्मप्राप्ति के लक्ष्य को सदैव याद रखें और लक्ष्य की तरफ जाने वालों का संग करें। अपने से ऊँचों का संग करें। इससे उद्देश्य को पाने में सहायता मिलेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2002, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 109

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