तीर्थ कैसे बने ?

तीर्थ कैसे बने ?


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

तीर्थ कैसे बने ? भगवान या भगवान के प्यारों के निवास के कारण ही तीर्थ बने हैं। जहाँ भगवान या भगवान के प्यारे संत निवास करते हैं वह भूमि तीर्थ हो जाती है।

राजा विक्रमादित्य से पूर्व अयोध्या के तीर्थ का पता नहीं था। राजा विक्रमादित्य युद्ध करके लौट रहे थे तब किसी योगी ने उन्हें बतायाः ‘यह इलाका भगवान श्रीराम के पदचिन्हों का है। विक्रमादित्य ! तुम धर्मात्मा हो, तनिक शांत होकर यहाँ बैठो। जहाँ-जहाँ तुम्हें स्फुरणा हो, वहीं-वहीं भगवान का प्रागट्य स्थल, भगवान का लीलास्थल, भगवान की पाठशाला आदि मिलेगी।’

तब विक्रमादित्य ने खोजा कि कौन सी जगह पर श्रीराम जी अवतरित हुए, किन स्थलों पर लीलाएँ की। उसके बाद अयोध्या के तीर्थ का निर्माण हुआ।

चैतन्य महाप्रभु के पहले वृन्दावन के तीर्थ का लोगों को विशेष पता नहीं था। गौरांग ने अपने शिष्यों सनातन एवं रूप गोसाईं को वहाँ भेजा। उनका हृदय शुद्ध था। उनके हृदय में जहाँ-जहाँ स्फुरण हुआ कि ‘यहाँ भगवान ने चीरहरण किया था, यहाँ मिट्टी खायी थी, यहाँ ऊखल-बंधन हुआ था, यहाँ रास हुआ था…।’ वहीं-वहीं उन तीर्थों की स्थापना हुई।

वल्लभाचार्य जी बताते हैं कि वृंदावन परसोली ग्राम के करीब था। उनका कहना भी सही है एवं चैतन्य महाप्रभु के शिष्यों का कहना भी सही है क्योंकि किसी युग में वृंदावन परसोली गाँव में था और इस युग का वृंदावन अभी जहाँ कहा गया है, वहाँ है।

आद्यशंकराचार्यजी से पहले बद्रीनाथ जी की मूर्ति का पता नहीं था। पंडितों ने उनसे प्रार्थना की तब शंकराचार्य जी ने नारद कुण्ड में गोता मारकर बद्रीनाथ जी की मूर्ति निकाली। तब बद्रीनाथजी के तीर्थ की स्थापना हुई।

जितने भी तीर्थ हैं वे सब उन्हीं महापुरुषों के तप से, प्रेरणा से बने हैं, जिन्होंने आत्मतीर्थ में गोता मारा है। इसीलिए जैनधर्म उन्हें तीर्थंकर कहता है।

आप भी अपने घर में एकाध कमरे को तीर्थ बना दें। जहाँ हरि का चिंतन होता है, जहाँ  परमात्मा का जप ध्यान होता है वह भूमि तीर्थ बन जाती है। जो हृदय हरि का चिंतन करता है वह हृदय तीर्थ हो जाता है। ऐसा तीर्थरूपी हृदय वाला साधक जिस घर में, जिस कमरे में ध्यान-भजन करता है, वह घर, वह कमरा भी तीर्थत्व को  प्राप्त हो जाता है। अतः मैं भी आपको यही शुभकामना एवं सत्प्रेरणा देना चाहता हूँ कि आप भी संतों की सीख मानकर अपने हृदयों तीर्थ बना दीजिये।

एक बार वैष्णवों और शैवों में झगड़ा हो गया। शैवों ने कहाः ‘भगवान शंकर कैलासपति हैं और यहाँ से कैलास जाया जाता है। इसीलिए इस जगह का नाम है – हरद्वार, हर+द्वार अर्थात् महादेव का द्वार।

वैष्णवों ने कहाः पागल हुए हो ? भगवान बद्रीनाथ के मंदिर में जाना हो तो यहाँ से जाया जाता है। इसलिए इस जगह का नाम है – हरिद्वार, हरि+द्वार अर्थात् विष्णु का द्वार।’

शैवः ‘चुप करो। हरिद्वार मत कहो, हरद्वार कहो।’

कभी-कभी भक्तों में अड़ियल दुनियादार भी घुस जाते हैं। किसी ने शैवों को भड़काया और किसी ने वैष्णवों को भड़काया। दोनों में झगड़ा हो गया। आखिर मुकद्दमा चला कि सरकार निर्णय करे कि ‘हरिद्वार’ है कि ‘हरद्वार’ है ?

लोगों को हुआ कि पता नहीं ब्रिटिश सरकार हिन्दू धर्म के तीर्थ के लिए क्या निर्णय करेगी ?

कई पेशियाँ पड़ीं। आखिर में अंग्रेज न्यायाधीश ने निर्णय दियाः ‘हरिद्वार भी नहीं और हरद्वार भी नहीं। यहाँ हिन्दू लोग अपने माता-पिता की हड्डियाँ डालते हैं इसलिए इसका नाम ‘हड्डीद्वार’ होगा।

यह नाम और निर्णय सरकारी फाइलों में धरा रह गया, सड़ रहा है। पक्षपाती अंग्रेज न्यायाधीश का काला मुँह करके यह आदेश फाइल में ही धरा रह गया। अभी भी लोग ‘हड्डीद्वार’ नहीं हरिद्वार या हरद्वार की कहते हैं।

कुछ बाह्यतीर्थ हैं, कुछ आभ्यांतर तीर्थ हैं। जैसे गंगाजी, यमुनाजी, गोदावरी जी आदि के तट पर स्थित जो तीर्थ हैं वे धरती के उन स्थानों पर हैं, जहाँ विशेष चैतन्य के प्रभाव के परमाणु हैं। जैसे, शरीर में कुछ अंग मलिन होते हैं और कुछ अंग उत्तम होते हैं। नीचे के अंगों पर या पैर पर हाथ लग जाये तो हाथ धोना चाहिए लेकिन ललाट पर उँगली लग गयी तो हाथ धोने की जरूरत नहीं पड़ती है। ऐसे ही पृथ्वीरूपी शरीर पर कुछ विशेष चैतन्य के प्रभाव के परमाणु हैं वे बाह्यतीर्थ कहलाते हैं।

आत्मज्ञानरूपी रस और आत्ममाधुर्यरूपी भाव में जो नहाते हैं वे तीर्थों को तीर्थत्व देने वाले होते हैं।

तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि सच्छास्त्रीकुर्वन्ति शास्त्राणि।

जिन्होंने मन इन्द्रियों पर अनुशासन करके आत्मिक यात्रा की और अंदर का वैदिक अनुभव प्राप्त करके जो कुछ कहा, वही शास्त्र बन गये।

अयोध्या मथुरा माया काशी कांची ह्यवंतिका।

पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः।।

इन सात स्थानों की भूमि में वे विशेष परमाणु हैं। इसीलिए वहाँ जाने वालों को थोड़ा सा ही जप तप करने से आनंद और शांति की प्राप्ति होती है। ऐसे ही जहाँ जप-तप ध्यान भजन होता है और आत्मतीर्थ में नहाये हुए कोई महापुरुष मिलते हैं तो ऐसे स्थल अंतर के तीर्थ हैं, आभ्यांतर तीर्थ हैं।

कुछ स्थावर तीर्थ होते हैं, कुछ जंगम तीर्थ होते हैं। जैसे, गंगा, यमुना ये स्थावर तीर्थ हैं। ऐसे पुरुष जो आत्मगंगा, आत्मतीर्थ में नहाते हैं जंगम तीर्थ हैं, चलते फिरते तीर्थ हैं।

कुछ लोग मानते हैं कि ‘चलो, कुंभ में गये, नहाये पुण्य हुआ… तीर्थ में गये, बढ़िया हो गया….’ यह सब ठीक है। लेकिन यदि आत्मतीर्थ में नहीं आये तो इन तीर्थों के आस-पास रहने  वालों के हाल जरा देख लो। तीर्थ में जाना पुण्यकर्म तो है लेकिन जो आत्मतीर्थ में नहीं नहाते हैं, उन्हें शास्त्र सावधान करते हैं। शास्त्र कहते हैं-

ज्ञानो अमृतो न तृप्तस्य कृतकृतश्च योगिनाः।

नैवस्ति किंचित् कर्त्तव्यस्ति चेतसा तत्परितः।।

‘जो पुरुष ज्ञानरूपी अमृत से तृप्त हैं और कृतकृत्य हैं उन्हें किंचित भी कर्त्तव्य नहीं है। यदि वे अपने में कर्त्तव्य मानते हैं तो वे तत्त्ववेत्ता नहीं हैं।’

इदं तीर्थं इदं तीर्थम् भ्राम्येति तामसाजनाः।

आत्मतीर्थम् न जानन्ति कथं मोक्ष जितयेः।।

‘कपिल गीता’ का यह श्लोक एकदम ऊँचा, तात्त्विक ज्ञान की तरफ संकेत करने  वाला है। ‘इस तीर्थ में चलो, उस तीर्थ में चलो….’ ऐसा तामसी और राजसी सुख में उलझे हुए ल ग ही बोलते हैं। इन तीर्थों में, आत्मतीर्थ में आने के लिए ही जाया जाता है।

कभी जाये केदार कभी जाये मक्के।

आत्मतीर्थ में नहीं आया तो खा ले दर-दर के धक्के।।

इदं तीर्थं इदं तीर्थं…. ‘यह तीर्थ है, वह तीर्थ है’ – ऐसा करके अज्ञानी जीव घूमते-फिरते रहते हैं क्योंकि वे आत्मतीर्थ को नहीं जानते हैं।

जिस पुरुष की अपने आत्मा में ही प्रीति है और जो अपने आत्मा में ही तृप्त हैं, संतुष्ट हैं, उनके लिए कोई कर्त्तव्य नहीं है।

लोग मृत्यु के समय काशी जाना पसंद करते हैं लेकिन आत्मतीर्थ में पहुँचे हुए कबीरजी ने कहाः

“ऐसा कहा जाता है कि मगहर में मरने वाला सुअर बनता। क्या उस स्थान का इतना प्रभाव है कि वह मेरे आत्मा-परमात्मा के आत्यंतिक सुख, आत्मज्ञान को छीन लेगा ? नहीं छीन सकता।”

कबीर जी मरने के लिए मगहर में गये। कबीर जी जैसा दृढ़ बोध जिनको हो जाता है वे ही तृप्त रहते हैं। बाकी के लोग तो कहते हैं- ‘मुझे तीर्थ में ले जाओ, मुझे गंगाजल पिलाओ।’ ऐसा कहना ठीक है, उचित है, लेकिन जिनको ब्रह्मज्ञान हो गया है वे गंगाजल पीयें यह कोई जरूरी नहीं है। वे तो जिस जल को छू दें, वही गंगाजल है और जहाँ चरण रख दें वहीं तीर्थ हैं। आत्मतीर्थ की ऐसी दिव्य महिमा है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2002, पृष्ठ संख्या 15,16 अंक 110

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