संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से
सम्राट अशोक के राज्य में अकाल पड़ा। सम्राट ने राज्य में कई सदाव्रत खुलवा दिये ताकि प्रजा में जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक न हो वे अपने लिए निःशुल्क सीधा-सामान ले जायें।
एक दिन सदाव्रत में लंबी कतार पूरी होने पर शरीर से दुर्बल एवं वृद्ध व्यक्ति आया। सदाव्रतवालों ने कहाः “अब हम सदाव्रत बंद कर रहे हैं। कल आना।”
इतने में एक युवक ने आकर कहाः “लंबी कतार में खड़े रहने की शक्ति न होने से यह वृद्ध छाया में दूर बैठा था। तुम इसको सीधा-सामान दे दो तो अच्छा होगा।”
युवक की प्रभावशाली वाणी सुनकर सदाव्रतवालों ने उस वृद्ध को सीधा-सामान दे दिया। पाँच-दस सेर जितना आटा, दाल, चावल आदि सामान की गठरी बाँधकर वह वृद्ध कैसे ले जाता ? उस युवक ने गठरी बाँधी और अपने सिर पर रख ली एवं वृद्ध के साथ चलने लगा।
दोनों कुछ आगे बढ़े होंगे कि इतने में सामने से सेना की एक टुकड़ी आयी। टुकड़ी के नायक ने घोड़े से उतरकर वृद्ध के साथ चल रहे युवक का अभिवादन किया। यह देखकर वृद्ध चौंक उठा और सोचने लगा कि ‘यह युवक कौन है ?’ युवक ने टुकड़ी के नायक को संकेत से अपना परिचय देने के लिए मना कर दिया।
वह वृद्ध भी अनुभवसम्पन्न था, जमाने का खाया हुआ था। वह समझ गया कि मेरे साथ जो युवक है वह कोई साधारण आदमी नहीं है। अतः उसने स्वयं ही युवक से परिचय पूछाः
“युवक तुम कौन हो ?”
युवकः “आप वृद्ध हैं और मैं युवक हूँ। आपका शरीर दुर्बल है और मेरे शरीर में बल है। मुझे सेवा का अवसर मिला है। उसका लाभ उठा रहा हूँ। बस, इतना ही परिचय काफी है।”
लेकिन वह वृद्ध भला कैसे चुप रहता ? उस युवक को एकटक देखते-देखते उसने युवक का हाथ पकड़ लिया और अधिकारपूर्वक वाणी में कहाः “तुम और कोई नहीं वरन् इस देश के सम्राट अशोक हो न !” सम्राट अशोक ने हाँ भर दी।
जो निष्काम कर्म करते हैं और यश नहीं चाहते, यश-कीर्ति तो उनके इर्द-गिर्द ही मँडराती रहती है। इसलिए सेवा, विनम्रता, दया और करुणा जैसे सदगुणों को अपनाकर अपना जीवन तो उन्नत करना ही चाहिए एवं औरों के लिए भी आपका जीवन पथ-प्रदर्शक बन सके – ऐसा प्रयास करना चाहिए।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2002, पृष्ठ संख्या 17, अंक 110
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