श्रद्धायुक्त दान का फल

श्रद्धायुक्त दान का फल


एक सेठ था। वह खूब दान-पुण्य इत्यादि करता था। प्रतिदिन जब तक सवा मन अन्नदान न कर लेता तब तक वह अन्न जल ग्रहण नहीं करता था। उसका यह  नियम काफी समय से चला आ रहा था।

उस सेठ के लड़के का विवाह हुआ। जो लड़की उसकी बहू बनकर आई, वह सत्संगी थी। वह अपने ससुर जी को दान करते हुए देखती तो मन-ही-मन सोचा करतीः ‘ससुर जी दान तो करते हैं, अच्छी बात है, लेकिन बिना श्रद्धा के किया हुआ दान कोई विशेष लाभ प्रभाव नहीं रखता।’

दान का फल तो अवश्य मिलता है किन्तु अच्छा फल प्राप्त करना हो तो प्रेम से व्यवहार करते हुए श्रद्धा से दान देना चाहिए।

वह सत्संगी बहू शुद्ध हाथों से मुट्ठीभर अनाज साफ करती, पीसती और उसकी रोटी बनाती। फिर कोई दरिद्रनारायण मिलता तो उसे बड़े प्रेम से, भगवद्भाव से भोजन कराती। ऐसा उसने नियम ले लिया था।

समय पाकर उस सेठ की मृत्यु हो गयी और कुछ समय बाद बहूरानी भी स्वर्ग सिधार गयी।

कुछ समय पश्चात् एक राजा के यहाँ उस लड़की (सेठ की बहू) का जन्म हुआ और वह राजकन्या बनी। वह सेठ भी उसी राजा का हाथी बनकर आया।

जब राजकन्या युवती हुई तो राजा ने योग्य राजकुमार के साथ उसका विवाह कर दिया। पहले के जमाने में राजा लोग अपनी कन्या को दान में अशर्फियाँ, घोड़े, हाथी इत्यादि दिया करते थे। राजा ने कन्या को वही हाथी, जो पूर्वजन्म में उसका ससुर था, दान में दिया। राजकन्या को उसी हाथी पर बैठकर अपनी ससुराल में जाना था। जैसे ही उसे देखा तो दैवयोग से हाथी को पूर्वजन्म की स्मृति जग गयी। उसे स्मरण हुआ कि ‘यह तो पूर्वजन्म में मेरी बहू थी ! मेरी बहू होकर आज यह मेरे ऊपर बैठेगी ?’

हाथी ने सूँड और सिर हिलाना शुरु कर दिया कि ‘चाहे कुछ भी हो जाय में इसे बैठने नहीं दूँगा।’

राजकन्या ने सोचा कि ‘यह हाथी ऐसा क्यों कर रहा है ?’ शरीर और मन तो बदलते रहते हैं परन्तु जीव तो वही का वही रहता है। जीव में पूर्वजन्म के संस्कार थे, संत पुरुषों का संग किया था, इसलिए राजकन्या जब थोड़ी शांत हुई तो उसे भी पूर्वजन्म का स्मरण हो आया।

वह बोलीः “ओहो ! ये तो ससुर जी हैं… ससुर जी ! आप तो खूब दान करते थे। प्रतिदिन सवा मन अन्नदान करने का आपका नियम था, लेकिन श्रद्धा से दान नहीं करते थे तो सवा मन प्रतिदिन खाने को मिल जाय, ऐसा हाथी का शरीर आपको मिल गया है। आप सबको जानवरों की तरह समझकर तिरस्कृत करते थे, पशुवृत्ति रखते थे। सवा मन देते थे तो अब सवा मन ही मिल रहा है।

मैं देती तो थी मात्र पावभर और पावभर ही मुझे मिल रहा है लेकिन प्रेम और आदर से देती थी तो आज प्रेम और आदर ही मिल रहा है।”

यह सुनकर हाथी ने उस राजकन्या के चरणों में सिर झुकाया और मनुष्य की भाषा में बोलाः “मैं तेरे आगे हार गया। आ जा….. तेरे चरण मेरे सिर-आँखों पर, मेरे ऊपर बैठ और जहाँ चाहे वहाँ ले चल।”

प्रकृति को हम जैसा देते हैं, वैसा ही हमें वापस मिल जाता है। आप जो भी दो, जिसे भी दो, भगवद्भाव से, प्रेम से और श्रद्धा से दो। हर कार्य को ईश्वर का कार्य समझकर प्रेम से करो। सबमें परमेश्वर के दर्शन करो तो आपका हर कार्य भगवान का भजन हो जायेगा और फल यह होगा कि आपको अंतर-आराम, अंतर-सुख, परमात्म-प्रसाद पानी की रूचि बढ़ जायेगी और उनको पाना आसान हो जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2002, पृष्ठ संख्या 13, 14 अंक 111

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *