सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् असत्यमप्रियम्।
सत्य बोलो, प्रिय बोलो किन्तु अप्रिय (अकल्याणकारी), असत्य मत बोलो।
जो व्यक्ति झूठ बोलता है, उसकी वाणी का प्रभाव कम हो जाता है, उसके दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं और जो सत्य बोलता है, मधुर बोलता है, उसकी हिम्मत बढ़ जाती है। जो किसी की निंदा करता है, चुगली करता है उसको डर लगता है कि कहीं मेरी बात खुल न जाय ! जो निंदा नहीं करता, चुगली नहीं करता, उसको डर भी नहीं रहता। वह निर्भय रहता है, निश्चिन्त रहता है। अतः सदैव ऐसा ही बोलें जो सत्य हो, प्रिय हो और हितकर हो।
बादशाह अकबर के नौ रत्नों में एक रत्न बनारसी दास भी थे। वे सदैव सत्य ही बोला करते थे। एक दिन अकबर ने सोचा किः ‘आज बनारसी दास को झूठ बोलने वाला साबित करना है।’ उसने एक जीवित पक्षी लिया और उसे कपड़े से ढाँककर ले गया राजदरबार में। वहाँ अकबर ने बनारसी दास से पूछाः
“यह पक्षी जिंदा है कि मरा हुआ ?”
बनारसी दास अकबर की चाल समझ गये कि ‘आज बादशाह मुझे झूठा साबित करना चाहते हैं। यदि मैं कहूँगा कि पक्षी जिंदा है तो उसकी गरदन दबोच देंगे और अगर कहूँगा कि मरा हुआ है तो उसे जीवित उड़ा देंगे।’
सत्य तो बोलना चाहिए परन्तु सत्य से किसी की हानि न होती हो, किसी के साथ अन्याय न होता हो ऐसा सत्य बोलना चाहिए। यह सोचकर बनारसीदास न कहाः
“जहाँपनाह ! यह पक्षी तो मर गया है फिर भी आप चाहें उसे जीवित कर सकते हैं।”
अकबर उनका उत्तर सुनकर आश्चर्यचकित हो उठा और उसने उस पक्षी को उड़ा दिया। फिर बनारसीदास से कहाः
“तुमने सत्य भी कहा और झूठ भी। ऐसा क्यों ?”
बनारसीदासः “जहाँपनाह ! यदि मैं कहता कि पक्षी जीवित है तो आप उसकी गरदन दबा देते और अगर मैं कहता कि पक्षी मर गया है तो आप उसे जीवित निकाल देते। मैं सत्य बोलता कि पक्षी जीवित है तो एक निर्दोष पक्षी की हत्या हो जाती इसलिए एक निर्दोष पक्षी की जान बचाने के लिए मुझे झूठ बोलना पड़ा तो कोई हर्ज नहीं है।”
वचन सत्य तो हो किन्तु उस सत्य से किसी की हिंसा न हो, किसी का अहित न हो यह भी ध्यान में रखना चाहिए।
सत्य बोलो, प्रिय बोलो और हितकर बोलो। कभी-कभी हितकर बोलने में वाणी की प्रियता और सत्यता कम भी होती है। जैसे, माँ बच्चे को बोलती हैः ‘दवा पी ले…. मीठी है।’ यहाँ ‘दवा मीठी है’ यह बात सरासर झूठ है लेकिन माँ का प्रयोजन हितकर है इसलिए झूठ बोलती है। बालक नहीं पीता है तो डाँटती भी है। यह डाँट अप्रिय है किन्तु हितकर है। माँ झूठ बोलती है, अप्रिय भी बोलती है परन्तु उसके मूल में बालक के हित की भावना है। अतः उसे झूठ बोलने का पाप नहीं लगता।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2002, पृष्ठ संख्या 13,14 अंक 112
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