सामान्य ज्ञान और विशेष ज्ञान

सामान्य ज्ञान और विशेष ज्ञान


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

ज्ञान नित्य है, अनादि है और अनंत है। ज्ञान का न जन्म होता है न मृत्यु।

ज्ञान दो प्रकार का होता है – एक होता है सामान्य सत्ता का ज्ञान और दूसरा होता है करणजन्य ज्ञान।

सामान्य सत्ता का ज्ञान नित्य है। करणजन्य विशेष ज्ञान सापेक्ष है। वह देश, काल और वस्तु के इर्द-गिर्द मंडराता है। सामान्य सत्ता के ज्ञान से ही करणजन्य विशेष ज्ञान होता है। जैसे सूर्य का प्रकाश सामान्य सत्ता के रूप में है। दर्पण लिया और विशेष दिखा तो यह विशेष की विशेषता सामान्य के आश्रय से ही है।

सामान्य सत्ता का ज्ञान परमात्मा है और करण कहा जाता है इन्द्रियों को। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार – ये अंदर की इन्द्रियाँ हैं, उन्हें अंतःकरण कहा जाता है।  आँख, नाक, कान आदि इंद्रियाँ बहिःकरण कहलाती है।। इनसे (करण विशेष से) जो ज्ञान होता है वह परमात्मा (सामान्य सत्ता के कारण ही होता है।

इन इन्द्रियों के कारण जगत में भिन्नता दिखती है किन्तु जिस सामान्य सत्ता से दिखती है, वह सदा एकरस है तथा उसी का ज्ञान पाना मानव-जीवन का परम लक्ष्य है।

जिस ज्ञान की मौत नहीं होती, जिस ज्ञान का जन्म नहीं होता, वही हमारी आत्मा है और वही परमात्मा है। जब तक उसका ज्ञान नहीं होता तब तक लगता है कि ‘परमात्मा मरने के बाद मिलेंगे… वैकुण्ठ में जायेंगे तब मिलेंगे… गुरु कृपा करेंगे फिर मिलेंगे….।’ परन्तु जब गुरुकृपा हुई और ठीक से जान लिया तो लगेगा कि उसे पाना कितना सरल है !

इतना सरल कि अर्जुन को युद्ध के मैदान में मिल गया, राजा जनक को घोड़े की रकाब में पैर डालते-डालते मिल गया, राजा खट्वांग को दो मुहूर्त में मिल गया और राजा परीक्षित को सात दिन में कथा सुनते-सुनते मिल गया।!

परमात्मा को पाना सरल भी है और कठिन भी। तीव्र, तीव्रतर अथवा तीव्रतम जिज्ञासा तथा छटपटाहट हो व पवित्रता हो और सदगुरु मिल जायें तो बड़ा सरल हो जाता है।

एक छोटा सा विनोदी दृष्टांत है-

बुद्धुसिंह की बड़े घर में शादी हो गयी। उसे दहेज भी खूब मिला। यहाँ तक की सूई भई सोने की मिली। बुद्धुसिंह उस सूई से कढ़ाई करने लगा। कढ़ाई करते-करते सुई हाथ से गिर गयी। संध्या का समय था। वह भागा और बाहर सड़क के किनारे बिजली के खंभे की रोशनी में सूई ढूँढने लगा।

सड़क पर चलते लोगों ने पूछाः

“भाई ! क्या कर रहे हो ?”

बुद्धुसिंह- “क्या बताऊँ ? अभी फुर्सत नहीं है, बाद में बताऊँगा।”

लोगों ने फिर पूछा- “आखिर बात क्या है ?”

बुद्धुसिंहः “मेरी सोने की सूई खो गयी है। मैं किसी साधारण सूई के लिए मेहनत नहीं कर रहा हूँ।”

लोगः “सोने की सूई है तो खोजनी ही पड़ेगी लेकिन यहाँ कैसे गिरी ?”

बुद्धुसिंहः “गिरी तो घर में थी किन्तु उधर दीया जलाना पड़ता, इसलिए इधर ढूँढ रहा हूँ।”

अब यह बुद्धुसिंह की चतुराई है या बेवकूफी कि घर में कौन दीया जलाये ? इससे तो अच्छा है बाहर रोशनी में ही ढूँढ लें।

ऐसे ही हम भी जहाँ आनन्द का खजाना छुपा है, जहाँ सुख का सागर लहरा रहा है तथा जहाँ सब दुःखों के अंत की कुंजी पड़ी है, उस अंतर्यामी आत्मदेव में गोता नहीं मारते और सुख के लिए बाहर भटकते रहते हैं।

उस बुद्धुसिंह ने तो 2-4 घंटे गँवाये होंगे परन्तु हम तो कई सदियों से, कई जन्मों से संसार की मजदूरी में समय गँवाते आ रहे हैं। सुख को बाहर खोजते आ रहे हैं कि सर्टिफिकेट मिल जाय तो सुखी हो जाऊँ…. नौकरी मिल जाय तो सुखी हो जाऊँ… शादी हो जाय तो सुखी हो जाऊँ… दुश्मन मर जाय तो सुखी हो जाऊँ…

यह सब हो जाय तब भी हम पूर्ण सुखी तो होते नहीं केवल कुछ समय के लिए सुखाभास होता है। फिर भी इन बाह्य सुखों के पीछे ही अपनी जिंदगी बरबाद किये जा रहे हैं और यह केवल एक-दो लोगों की बात नहीं है। गोरखनाथ जी कहते हैं-

एक भूला दूजा भूला, भूला सब संसार।

बिन भूल्या एक गोरखा, जाके गुरु का आधार।।

सारा संसार यही भूल कर रहा है। सभी बाह्य सुखों में उलझ रहे हैं। इससे तो केवल वही बच पाता है जिसको सदगुरु का आधार है।

आप जो मेहनत कर रहे हैं वह किसलिये कर रहे हैं ? दुःखों का अंत हो और सुखों की प्राप्ति हो इसीलिए मेहनत कर रहे हैं। सारी जिंदगी बीत जाती है फिर भी दुःखों का अंत नहीं होता है। कुछ न कुछ दुःख बना ही रहता है और जो सुख मिलते हैं वे भी स्थायी नहीं होते हैं क्योंकि खोज होती है बाहर….।

कभी न छूटे पिंड दुःखों से, जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं।

मूल है सामान्य ज्ञान, उसके आश्रय से वृत्तियाँ उठती हैं और विशेष-विशेष में भटकाती हैं, सामान्य में नहीं आती हैं। सोकर जब प्रभात में उठते हैं तब ‘मैं हूँ’ यह खबर सामान्य ज्ञान से आती है, फिर विशेष ज्ञान चालू हो जाता है कि ‘मैं मोहन हूँ…. मैं सोहन हूँ… मैं कमला हूँ।’

सामान्य ज्ञान नित्य है। सृष्टि से पहले भी ज्ञान है। सृष्टि हुई तब भी ज्ञान रहता है और सृष्टि का प्रलय हो जाता है तब भी ज्ञान रहता है। प्रलय हो जाता है, कुछ नहीं रहता तब भी उस प्रलय को देखने वाला रहता है।

एक व्यक्ति ने महल बनवाया। बड़ा आलीशान महल था। वह व्यक्ति मेहमानों को महल दिखाने ले गया। महल देखकर लौटते समय उसने अपने पुत्र से कहाः “जाओ, अन्दर देखकर आओ कि कोई रह तो नहीं गया ?”

बेटा गया और महल के ऊपर की छत से बोलाः “पिता जी ! यहाँ कोई नहीं है।”

पिताजी मुख्य द्वार को ताला लगाने लगे। बेटे ने पूछाः “पिता जी ! ताला क्यों लगा रहे हैं ?”

पिताः “तुमने ही तो कहा कि कोई नहीं है। इसीलिए ताला लगा रहा हूँ।”

पुत्रः “पिता जी ! ‘कोई नहीं है’ – ऐसा बोलने वाला मैं तो हूँ।”

‘कोई नहीं है।’ कहने वाला तो कोई है। इसी प्रकार महाप्रलय हो जाता है, कुछ भी नहीं रहता है, ब्रह्मा, विष्णु और शिव के लोक भी महाप्रलय में लीन हो जाते हैं, उसकी भी खबर नित्य ज्ञान देता है। ‘रात्रि में बड़ी अच्छी नींद आयी, कुछ नहीं दिखा।’ तो अच्छी नींद आयी, कुछ नहीं दिखा… इसको तो कोई देख रहा है। इसको जो देख रहा है वही प्रलय का ज्ञान भी दे रहा है। दोनों एक ही हैं।

यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे… जो पिंड में है वही ब्रह्मांड में है। जो पानी की बूँद में है वही सागर में है। जो श्वास तुम्हारे नाक के द्वारा जाता है वह विराट के वायुतत्त्व के साथ जुड़ा है, जो जलतत्त्व तुम्हारे भीतर है वह व्यापक जलतत्त्व से जुड़ा है। इसी प्रकार अन्य तत्त्व भी जुड़े हुए हैं।

अगर सूर्य ठंडा हो जाय तो वैज्ञानिक कहने को भी नहीं रहेंगे कि तुम प्रकाश की कुछ व्यवस्था करो। जिस समय सूर्य ठंडा हो गया उस समय आप भी नहीं रहेंगे। जैसे सूर्य से आपका ताप जुड़ा है, वैसे ही सामान्य ज्ञान के साथ विशेष ज्ञान जुड़ा है और उसी विशेष ज्ञान में उलझकर हम मर रहे हैं।

‘हमें यह मिले…. यह मिले…’ में ही जीवन पूरा हो जाता है। जो अपनी इच्छा के अनुसार जगत की चीजें पाता है, उसे संदेह और डर बना ही रहता है। ‘पत्नी तो सुंदर होनी चाहिए….’ अगर सुंदर मिल गयी तो शंका के शिकार हो जाते हैं कि ‘बड़ी सुंदर है, पड़ोसी देखते होंगे, फलाना देखता होगा।’ तो गया मजा।

ऐसे ही धन मिला तो फिर उसको रखने की चिंता रहती है और धन चला न जाय इसका भय रहता है। धन आया है तो चला जायेगा – यह बात पक्की है। या तो धन चला जायेगा या धन को सँभालने वाला चला जायेगा।

ऐसा कोई सुखभोग नहीं, जिसके पीछे भय, दुःख, रोग नहीं।

ऐसा कोई संयोग नहीं, जिसका कभी वियोग न हो।।

भोगी होकर सब पछताते हैं…

हमें सुख लेने के लिए जो मजदूरी करते हैं वही हमारे दुःख का कारण बन जाता है। इससे तो अच्छा है कि सुख बाँटो और अपने आत्मविश्रांति के सच्चे सुख से एकाकार हो। सुख-भोग की वासना को हटाओ। जो सुख के दाता बनते हैं वे कभी दुःखी नहीं हो सकते। जो यश के दाता बनते हैं उन्हें यश की कमी नहीं होती। अतः सुख के भोक्ता मत बनो, यश के भोक्ता मत बनो।

मिलता है विशेष, सामान्य नहीं। सामान्य तो सदा मौजूद रहता है। विशेष मिलता है तो बिछुड़ भी जाता है। जो मिलता है वह बिछुड़ता है, ऐसा समझकर उसका उपयोग कर लो और सामान्य में विश्रांति पाओ।

अगर सामान्य सत्ता में आ गये तो आप सारी विशेषताओं के स्वामी हो गये। अपने घड़े का पानी सरोवर में डाल दिया तो घड़े का सारा पानी सरोवर हो गया।

जल में कुंभ कुंभ में जल बाहर भीतर पानी ।

फूटा कुंभ जल जले समाना यह अचरज है ज्ञानी।।

अपना घड़ा आप सरोवर में डालते हैं और भरकर उठाते हैं तब भारी लगता है परन्तु सरोवर में रहता है तब भारी नहीं लगता। अगर घड़ा फूट गया तो सरोवर का पानी और घड़े का पानी एक हो जाता है।

ऐसे ही आप मन-बुद्धि में आये हुए ‘मैं-मेरे’ को छोड़ दो और अपने सामान्य ज्ञान में आ जाओ तो सारा जगत आपका अपना-आपा हो जायेगा, सारा विश्व आपकी विहार वाटिका हो जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2002, पृष्ठ संख्या 2-4, अंक 112

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