अद्वैत ज्ञान की महिमा

अद्वैत ज्ञान की महिमा


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

दुःख क्यों होता है ?

मानव की प्रज्ञा पूर्ण विकसित नहीं है तथा उसे आत्मज्ञान में रुचि नहीं है इसीलिए दुःख होता है। यदि आत्मज्ञान में रुचि हो तो दुःख टिक नहीं सकता और अगर ज्ञान में रुचि न हो तो सुख टिक नहीं सकता।

जिसको अज्ञान ने घेर रखा है वह कहीं-न-कहीं दुःख बना ही लेगा और जो ज्ञान से परितृप्त है वह चारों ओर दुःख होते हुए भी सुखी रहेगा। ज्ञान ऐसी चीज है।

हम अपने मन के अनुसार, अपनी कल्पना के अनुसार जगत को देखना चाहते हैं। कल्पना की इस दासता को मिटाने के लिए घर छोड़ना पड़े, नौकरी छोड़नी पड़े तो भी सब कुछ छोड़कर इस आत्मविद्या को पा लेना चाहिए। ज्ञान बेवकूफी छुड़ाता है और ब्रह्म-परमात्मा का सुख देता है। यह आत्म-साक्षात्कार का रास्ता है। ब्रह्मविद्या ब्रह्म परमात्मा के पद पर प्रतिष्ठित कर देती है और चित्त की बेवकूफी छुड़ा देती है।

जगत में जो भी दुःख होते हैं सब चित्त की बेवकूफी के कारण होते हैं। जितनी बेवकूफी मजबूत उतना दुःख मजबूत, जितनी बेवकूफी कम उतना दुःख कम और बेवकूफी नहीं तो दुःख भी नहीं। तो कृपानाथ ! आप अपने ऊपर कृपा करना कि जब दुःख आये तो समझ लेना कि बेवकूफी के कारण दुःख आया है।

ईश्वर तथा प्रकृति कुछ और चाहते हैं और आप कुछ और चाहते हैं… आप वस्तु, व्यक्ति, परिस्थितियों को पकड़े रखना चाहते हैं तभी आप दुःखी होते हैं। आप अपने को जानते नहीं हैं और पकड़ रखते हैं, इस बेवकूफी के कारण ही दुःख होता है। आप अपने को जानते नहीं हैं और कहते हैं कि ‘यह मेरा सिद्धान्त है।’ फिर अपने सिद्धान्त के विपरीत कुछ होता है तो दुःखी हो जाते हैं।

जिन्होंने अपने-आपको जान लिया है, ऐसे ही किन्हीं महापुरुष के वचन हैं-

देखा अपने आपको मेरा दिल दीवाना हो गया।

न छेड़ो मुझे यारों मैं खुद पे मस्ताना हो गया।।

अपने आप पर जो मस्ताना हो गया, अपने-आपको जिसने जान लिया उसे फिर दुनिया का कोई भी दुःख दुःखी नहीं कर सकता और कोई भी सुख सुखी नहीं कर सकता।

जब तक अपने-आपको नहीं जाना था, तब तक हम भी न जाने क्या-क्या सोचते थे ! परमात्मा कहाँ होंगे ? कैसे होंगे ?…. तपस्या करेंगे, भगवान शिवजी आयेंगे और कहेंगे कि ‘वरदान माँगो।’ हम कहेंगे कि ‘कुछ नहीं चाहिए।’ शिवजी प्रसन्न हो जायेंगे और आलिंगन करेंगे, सिर पर हाथ रखेंगे…..’ आदि-आदि।

किन्तु जब गुरु की कृपा हुई तब पता चला कि शिव भी हम हैं और काली भी हम हैं, राम भी हम हैं और रहमान भी हम हैं, श्रोता भी हम हैं और वक्ता भी हम हैं…. केवल हम-ही-हम हैं गैर का नामोनिशान भी नहीं है।

कीड़ी में तू नानो लागे हाथी में तू मोटो क्यूँ ?

बन महावत ने माथे बैठो हाकणवालो तू को तू….

ऐसा आत्मज्ञान जिसको हो गया उसको दुःख कहाँ ? काल भी आ जाय तो काल की क्या ताकत ? ‘काल में भी मेरा ही स्वरूप है।’ ऐसा उसको बोध हो जाता है।

दुःख में द्वैत होता है, भय द्वैत में होता है, क्रोध दूसरे पर होता है, आकर्षण दूसरे से होता है। कितना भी भयानक आदमी हो, डरावना हो अपने-आपसे डरेगा क्या ? कितना भी सुन्दर आदमी हो उसे अपने-आपसे काम वासना होगी क्या ? कितना भी आदमी खराब हो उसे अपने आप पर क्रोध आयेगा क्या नहीं ? अपने-आपसे कैसा भय ? अपने-आप पर कैसा क्रोध ? अपने-आपसे कैसा आकर्षण ?

जहाँ दूसरा दिखता है वहीं सब मुसीबतें आ जाती हैं। ऐसा कोई दुर्गुण नहीं है जो द्वैत की भावना से न आये और ऐसा कोई सदगुण नहीं है जो अद्वैत की भावना से न खिले। ऐसा कोई आनंद और सामर्थ्य नहीं है जो अद्वैत की भावना से पैदा न हो।

लेकिन भेद ज्ञान के कारण, द्वैत के कारण हम अभेद ज्ञान से, अद्वैत ज्ञान से दूर चले गये। समाज में जब त्याग-वैराग्य की भावना थी, बुद्धि का  विकास था, उस समय उपनिषदों के ज्ञान का प्रचार था। जब समाज से त्याग-वैराग्य और संयम छूटता गया, ब्रह्म को जानने  वाले महापुरुष कम होते गये और धन-धान्य को प्यार करने वाले व्यक्ति बढ़ते गये, उनका प्रभाव बढ़ता गया, क्षुद्र वस्तुओं में उलझने वाले व्यक्तियों का प्रभाव बढ़ता गया, भोग को ही सार मानने वाले भोगियों का प्रभाव बढ़ता गया तबसे सेवाधर्म का प्रचार-प्रसार हुआ।

‘सेवा करेंगे तो हमें पुण्य मिलेगा…. स्वर्ग का सुख मिलेगा…. ‘ ऐसा सोचकर सेवा करने से पुण्य तो होता है किन्तु जन्म-मरण का चक्र नहीं छूटता। इसीलिए ज्ञानवान महापुरुष कहते हैं कि किसी को वस्तुएँ देकर, किसी की सुविधाएँ बढ़ाकर, किसी को सुख देकर किसी के अभावग्रस्त जीवन में सहायक होकर तुम अपने को कर्त्ता मत मानो। वरन् कर्त्ता-भर्ता श्रीहरि को मानकर तुम निष्काम हो जाओ।

निष्काम हो जाओगे तो स्वर्ग की वासना नहीं रहेगी। ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए तुमने सेवाएँ की तो वासनाएँ नष्ट हो जायेंगी, अंतःकरण शुद्ध हो जायेगा, कल्मष क्षीण हो जायेंगे और तुम ज्ञान के अधिकारी बन जाओगे।

जो लोग सेवा तो करते हैं परन्तु वाहवाही नहीं चाहते, ईश्वर को ही चाहते हैं उनका अंतःकरण शुद्ध हो जाता है, कल्मष क्षीण होते जाते हैं और कल्मष क्षीण होते ही उनमें ब्रह्म विद्या को पाने की प्यास जगती है।

जिसके कल्मष ज्यादा होते हैं उसको आत्मज्ञान पाने की रुचि नहीं होती और जबरन कोई सुनाये तो इस विद्या पर उसे विश्वास नहीं होता।

‘मैं आत्मा हो सकता हूँ ? मैं अमर हो सकता हूँ ? मैं पहले आत्मा को देखूँगा फिर मानूँगा…..

‘पहले तू आत्मा को देखेगा फिर मानेगा तो तू कौन है ?’

‘मैं गोविन्द भाई हूँ, पशा काका का भतीजा हूँ।’ इस तरह की मान्यताओं में ऐसे लोग उलझे रहते हैं।

स्वल्पपुण्यवतां राजन् विश्वासो नैव जायते….

जिनके पुण्य कमजोर हैं वे सत्संग सुन भी नहीं सकते। कुछ पुण्य होंगे तब सत्संग सुन तो पायेंगे किंतु सत्संग की बातों पर, ब्रह्मज्ञान की बातों पर उन्हें विश्वास नहीं होगा और यदि विश्वास होगा भी तो पुरानी मान्यता एक तरफ खींचेगी तथा आत्मज्ञान दूसरी तरफ खींचेगा। फिर वे जिसको मदद करेंगे उस ओर आगे बढ़ जायेंगे।

अगर दो चार सामाजिक फर्ज एक साथ निभाने को आ जायें तो पहले कौन सा निभाना चाहिए ? इसका निर्णय करने में कई लोग फिसल जाते हैं। फिर वर्षों बीत जाते हैं तथा इन काल्पनिक फर्जों को निभाते-निभाते जीवन पूरा हो जाता है और मुख्य कर्तव्य रह जाता है।

वास्तविक जीवन जीने की आदत पड़ जाय तो काल्पनिक जीवन का प्रभाव ही न पड़े। किन्तु वास्तविक जीवन जीने की पद्धति ही नहीं जानते हैं इसीलिए काल्पनिक जीवन जीने का इतना प्रभाव है कि संसार से सिवा कुछ दिखता ही नहीं है।

संसारी जिसे दुःख मानते हैं वह तो दुःख है ही लेकिन अनजान लोग जिसको सुख मानते हैं वह भी दुःख से भरा है। सुख चला न जाय इस दुःख से भरा है। भोग भोगने के लिए भी भोग देना पड़ता है।

जिसको अंदर का सुख नहीं मिला वह बाहर के सुखों को टिकाने में ही जिंदगी पूरी कर देता है फिर भी सुख तो टिकता नहीं है और सुख को सँभालने की मजदूरी सिर पर आ पड़ती है। पति को रिझाओ, पत्नी को रिझाओ, साहब को रिझाओ, सेठ को रिझाओ, नेता को रिझाओ, जनता को रिझाओ…. इन सबको रिझाने के पीछे माँग तो सुख की ही है और सुख तो टिकता नहीं है किन्तु रिझाने-रिझाने में ही जीवन पूरा हो जाता है।

परन्तु जो अपना मुख्य कर्तव्य निभा लेता है, अपने-आप में आराम पा लेता है, अपने आपको जान लेता है, वह किसी को रिझाने के चक्कर में नहीं पड़ता है बल्कि लोग उसको रिझाने के लिए उसके पीछे-पीछे फिरकर अपना भाग्य बना लेते हैं।

एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।

एक मुख्य फर्ज (परमात्म-ज्ञान) को पा लिया तो बाकी के सब फर्ज पूरे हो जाते हैं।

आप अगर अध्यात्म-ज्ञान के रास्ते चलोगे तो दूसरों को मान देना, दूसरों का हित चाहना, दूसरों का भला चाहना – यह आपका स्वभाव हो जायेगा।

एक बार कोई केवल तीन मिनट के लिए भी अपने स्वरूप में जग जाय तो उसका तो बेड़ा पार हो ही जायेगा, उसका दर्शन करके यक्ष, गंधर्व, किन्नरादि भी अपना भाग्य बना लेंगे। ऐसा  परमात्मा सबके हृदय में छुपा है फिर भी सब दुःखी हो रहे हैं…..

वह दूर भी नहीं है और उसको पाना कठिन भी नहीं है केवल अपनी उलटी मान्यताएँ छोड़ते चले जायें और सही मान्यताएँ,  वेद, उपनिषद् अथवा गीता के वचन और महापुरुषों के उपदेश को स्वीकार करते जायें। बेवकूफी के संस्कारों को छोड़ते जायें और वेदान्त के संस्कारों को प्रगट होने दें बस, बेड़ा पार हो जायेगा।

मानव का मन  अकारण फालतू विचार करने वाला  कारखाना है। मन अकारण दुःख बना लेता है, अकारण कल्पना कर लेता है। जो-जो विचार व्यक्ति के मन में आते हैं उन्हें ईमानदारी से लिखता जाय तो उसे लगेगा कि ‘लोग कहते हैं कि पागलखाना फलानी जगह है लेकिन पागलखाना तो मेरे ही पास है।’

एक बार पंडित जवाहरलाल नेहरू किसी मानसिक चिकित्सालय में गये। वहाँ किसी पागल ने नेहरू जी से पूछाः “तुम कौन हो ?”

नेहरू जी ने मुस्कराते हुए कहाः “मैं भारत का प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू हूँ।”

पागल ने कहाः “मैं भी पहले ऐसा ही बोलता था। आप यहाँ भर्ती हो जाओ, ठीक हो जाओगे।”

तो ये पूरी दुनिया एक पागलखाना है। पागल की नजर में नेहरू जी कैसे दिखते हैं ? ऐसे ही संसारियों की नजर में ब्रह्मवेत्ता दिखते हैं। जैसे वह पागल नेहरू जी को अपनी पंक्ति में लाना चाहता था, वैसे ही हम लोग भी आत्मारामी महापुरुषों को अपनी तराजू में तौलना चाहते हैं और अपनी पंक्ति में लाना चाहते हैं।

एक बार भगवान बुद्ध अपने प्यारे शिष्य आनन्द के साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक कुआँ था। एक आदमी पानी भरने के लिए बार-बार बालटी को कुएँ में डाल रहा था। बालटी छिद्रवाली थी। वह आदमी पानी भरने के बाद बालटी को ऊपर खींचता था लेकिन जब बालटी हाथ में आती थी खाली हो जाती थी। एक चुल्लू पानी भी उसके हाथ में नहीं आ पाता था। लगता तो ऐसा था कि कुएँ में कोई बड़ा काम चल रहा है, बड़ी प्रगति हो रही है परन्तु वह कमबख्त खुद भी प्यासा रहा और दूसरों को भी उसने प्यासा ही रखा।

करीब आधे घंटे तक बुद्ध वहीं ठहरे, फिर आगे गये। थोड़ी दूर जाने पर उन्होंने आनन्द से कहाः

“देखा ? वह आदमी क्या कर रहा था ? वह अभागा खुद भी नहीं पी पा रहा था और दूसरों को भी नहीं पिला पा रहा था। वह केवल अकेला ही ऐसा नहीं है। सारा संसार ऐसा ही है।

संसारी लोग भी बहुत परिश्रम करते हैं, शोर भी बहुत होता है, लगता है कि वे बहुत काम कर रहे हैं, बहुत प्रगति कर रहे हैं लेकिन वे अज्ञानी होकर जन्मे और अज्ञानी होकर ही मरेंगे। आत्मा का अमृत न वे खुद पी पाते हैं न किसी को पिला पाते हैं…. उनकी भी हृदयरूपी बालटी खाली की खाली ही रह जाती है…. हृदय आत्मरस से वंचित ही रह जाता।

अगर हृदय को आत्मरस से भरना है तो उपाय यही है कि संसार की चीजों को नश्वर मानकर अमर आत्मा से प्रीति कर लो। आत्मविचार को महत्व दो और उसे अपना बना लो। वेदान्त के अनुभवों को खूब प्यार करो और उसे अपना बना लो। फिर जैसे सूर्य अंधकार को खोजने जाय, रात्रि को खोजने जाय तो उसके वह मुश्किल है, वैसे ही आपके लिए परेशानियों को खोजना मुश्किल हो जायेगा।

अगर आप परेशानी को खोजने जाओगे तो परेशानी-को-परेशानी हो जायेगी कि यह मेरे पीछे क्यों पड़ा है ? आपको आत्म ज्ञान हो जाये फिर आप मुसीबत खोजो। लोग मुसीबत भेजेंगे अथवा आप पैदा भी कर लोगे तो मुसीबत-को-मुसीबत हो जायेगी कि ‘मैं कौन से घर आ गयी ?’ ऐसा है आत्मज्ञान ! ऐसी है ब्रह्मविद्या !

ब्रह्मज्ञानी आप भी निर्दुःख हैं और औरों को भी निर्दुःख करता है। जैसे पर्वत आप भी अडिग है तथा औरों को भी तरंगों की मार से बचाता है, ऐसे ही ज्ञानी भी अपने परमात्मस्वरूप में अडिग है और जो संसार की कल्पना की तरंगों की थपेड़ें खाकर थक-हारकर ज्ञानी के नजदीक आते हैं, उनको भी धीरज मिल जाती है, शांति मिल जाती है। लेकिन वे फिर उन्हीं तरंगों में दूर चले जाते हैं और जब थपेड़ें लगती हैं तब फिर पर्वत की ओर आते हैं। ऐसा करते-करते भी पर्वत पर ठहरने की आदत हो जाय तो बेड़ा पार हो जाय….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2002, पृष्ठ संख्या 6-9, अंक 113

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