करने में सावधान

करने में सावधान


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

कर्मप्रधान बिस्व करि राखा।

जो जस करहिं सो तस फल चाखा।।

जो कर्म अभानावस्था में होते हैं, उन कर्मों का संचय नहीं होता है। बाल्यावस्था में किये गये कर्मों का, मूढ़ावस्था में किये गये कर्मों का संचय नहीं होता है। पशु-पक्षियों के कर्मों का संचय नहीं होता है। जो अहंकार से रहित होकर कर्म करते हैं उनके कर्मों का संचय नहीं होता है। ज्ञानवानों के कर्मों का संचय नहीं होता है। ऐसे ही फल की इच्छा के बिना किये गये निष्काम कर्मों का भी संचय नहीं होता है।

कोई छोटा बच्चा नाचता-कूदता खेल रहा है और नासमझी में वह किसी बच्चे का गला दबा दे तो उसके ऊपर दफा 302 का केस नहीं चलेगा। ज्यादा से ज्यादा उसे दो-चार चाँटे लगा देंगे। किसी ने शराब पी हो, बेहोश अवस्था में हो और गालियाँ बकने लग जाये तो उसके ऊपर बदनक्षी का केस लगाना उचित नहीं होगा क्योंकि उसे कर्म करने का भान ही नहीं है, नशे-नशे में कर्त्तापन का भाव ही नहीं है। ज्ञानी महापुरुष भी अकर्त्ता भाव से कर्म करते हैं इसलिए कर्मबन्धन नहीं लगता।

इसी प्रकार तुम जहाँ भी रहो, जो करो वह अकर्त्ता होकर करो तो तुम्हें भी कर्मबन्धन नहीं लगेगा। कर्त्ताभाव होता है तो चलते-फिरते कीड़े-मकोड़े मर जाएँ तो भी कर्म का संचय नहीं होता है। किसी को पानी पिलाओ तब भी और किसी का कुछ ले लो तब भी कर्म का संचय होता है। किन्तु अकर्त्ता भाव से कर्म करने पर वे ही कर्म बँधनकारक नहीं होते।

एक बार बुद्ध और उनके शिष्य घूमते-घामते कहीं जा रहे थे। मार्ग में उन्होंने देखा कि एक साँप को बहुत सी चींटियाँ चिपककर काट रही थीं और साँप छटपटा रहा था।

शिष्यों ने पूछाः “भन्ते ! ऐसा क्यों ? इतनी सारी चींटियाँ इस एक साँप को चिपककर काट रही हैं और इतना बड़ा साँप इन चींटियों से परेशान होकर छटपटा रहा है ! क्या वह अपने किन्हीं कर्मों का फल भोग रहा है ?”

बुद्धः “कुछ साल पहले हम इस तालाब के पास से गुजर रहे थे, तब एक मच्छीमार मछलियाँ पकड़ रहा था। हमने उसे कहा भी था कि पाप-कर्म मत कर। केवल पेट भरने के लिए जीवों की हिंसा मत कर लेकिन उसने हमारी बात नहीं मानी। वही अभागा मच्छीमार साँप की योनि में जन्मा है और उसके द्वारा मारी हुई मछलियाँ ही चींटियाँ बनी हैं और वे अपना बदला ले रही हैं। मच्छीमार निर्दोष जीवों की हिंसा का फल भुगत रहा है।”

महाभारत के युद्ध के पश्चात् एक बार अत्यंत व्यथित हृदय से धृतराष्ट्र ने वेदव्यासजी से पूछाः “भगवान ! यह कैसी विडंबना है कि सौ के सौ पुत्र मर गये और मैं अंधा बूढ़ा बाप जिंदा रह गया ? मैंने इस जन्म में इतने पाप तो नहीं किये हैं और पूर्व के कुछ पुण्य होंगे तभी तो मैं राजा बना हूँ। फिर किस कारण से यह घोर दुःख भोगना पड़ रहा है ?”

वेदव्यासजी आसन लगाकर बैठे और समाधि में लीन हुए। धृतराष्ट्र के पूर्वजन्मों को जाना तब पता चला कि पहले वह हिरन था, फिर हाथी हुआ, फिर राजा बना।

समाधि से उठकर उन्होंने धृतराष्ट्र से कहाः “आज से एक सौ चौबीस वर्ष पहले तू राजा था और शिकार करने के लिए जंगल गया। वहाँ हिरन को देखकर उसके पीछे दौड़ा लेकिन तू हिरन का शिकार नहीं कर पाया। वह जंगल में अदृश्य हो गया। तेरे अहं को ठेस पहुँची। गुस्से में आकर तूने वहाँ आग लगा दी तो थोड़ा हरा-सूखा घास और सूखे पत्ते जल गये। वहीं पास में साँप का बिल था। उसमें साँप के बच्चे थे जो अग्नि से जलकर मर गये और सर्पिणी अंधी हो गयी। तेरे उस कर्म का बदला इस जन्म में मिला है। इससे तू अंधा बना है और तेरे सौ बेटे मर गये हैं।”

तुम जहाँ भी रहो, जो भी करो लेकिन अपने परमात्म-स्वरूप को जानकर, अकर्त्ता होकर कर्म करोगे तो कई कर्मबन्धन नहीं लगेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 1997, पृष्ठ संख्या 23,24 अंक 57

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