संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
वेदों में मुख्य रूप से दो प्रकार के साधन बताये गये हैं- विधेयात्मक और निषेधात्मक।
यजुर्वेद के बृहदारण्यक उपनिषद् में आता है अहं ब्रह्मास्मि। अर्थात् ‘मैं ब्रह्म हूँ…’ तो जो मैं-मैं बोलता है, वह वास्तव में ब्रह्म है। लेकिन देह को मैं मानकर आप ब्रह्म नहीं होगे। आपका जोर देह पर है कि चेतन पर ? अहं पर जोर है कि ब्रह्म पर ? अहं ब्रह्मास्मि। ‘मैं ब्रह्म हूँ… मैं साक्षी हूँ….’ तो स्थूल ‘मैं’ पर जोर है कि शुद्ध ‘साक्षी’ पर ? यदि ‘मैं’ पर जोर है तो इससे अहंकार बढ़ने की संभावना है और ‘ब्रह्म1 पर जोर है तो अहंकार के विसर्जन की संभावना है। यह साधना है विधेयात्मक।
‘बीमारी होती है तो शरीर को होती है। दुःख होता है तो मन को होता है। राग-द्वेष होता है तो बुद्धि को होता है। गरीबी-अमीरी सामाजिक व्यवस्था में होती है। मैं इन सबसे निराला हूँ। बीमारी के समय में भी मैं बीमारी का साक्षी हूँ। दुःख के समय भी मन में दुःखाकार वृत्ति हुई उस वृत्ति का मैं साक्षी हूँ….’ इस प्रकार साक्षी स्वभाव…. ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की भावना वाली साधना को बोलते हैं कि विधेयात्मक साधना। किन्तु इसमें अहंकार होने की संभावना है कि ‘मैं ब्रह्म हूँ…. मैं चेतन हूँ… मैं साक्षी हूँ…. ये लोग संसारी हैं। मैं अकर्त्ता हूँ, ये लोग कर्त्ता हैं।’
दूसरी जो निषेधात्मक साधना है उसमें अहंकार के घुसने की जगह नहीं है। कैसे ?
निषेधात्मक साधना में साधक यह चिंतना करता हैः ‘ मैं शरीर नहीं हूँ… इन्द्रियाँ नहीं हूँ… चित्त नहीं हूँ… अहंकार नहीं हूँ…’ इत्यादि। इस प्रकार ‘यह नहीं…. यह नहीं…… नेति…. नेति….. ‘ करते-करते फिर जो बाकी उसमें वह शांत होता जायेगा।
‘मैं आत्म-साक्षात्कार करके ही रहूँगा….’ इसमें अहंकार हो सकता है। ‘मुझे आत्म-साक्षात्कार नहीं करना है…’ यह भी अहंकार है, परंतु ‘मुझे तो पाना है… मुझे अपना अहं मिटाना है….’ तो मिटने में अहंकार को घुसने की जगह नहीं मिलती है। इसलिए वह बड़ा सुरक्षित मार्ग हो जाता है।
इस तरह निषेधात्मक साधना भी विधेयात्मक साधना से ज्यादा सुरक्षित रूप से हमें परमात्मा की विश्रांति में पहुँचा देती है। लेकिन जो निराशावादी हैं उनके लिए निषेधात्मक साधना की अपेक्षा विधेयात्मक साधना ज्यादा लाभकारी है। इसीलिए वेदों में दोनों मार्ग बताये गये हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2002, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 115
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