मंत्रजाप-महिमा

मंत्रजाप-महिमा


(सिद्धान्तों को समझने के लिए शास्त्रों-पुराणों में कथा-वार्ताएँ हैं, उसी के कुछ अंशरूप, रोहतक मार्च 2001 में हुए सत्संग-ज्ञानयज्ञ में अपने प्यारों को मंत्रजाप के विषय में पूज्य बापू जी समझा रहे हैं-)
पुराण में कथा आती हैः कौशिकवंशी पिप्पलाद का पुत्र मंत्रदीक्षा लेकर गुरुमंत्र जपने लगा। कई वर्षों तक संयमपूर्वक एकान्त में जपने लगा। कई वर्षों तक संयमपूर्वक एकान्त में जप करते-करते उसके शरीर के कण देदीप्यमान हो उठे। उसका तप बढ़ गया तब स्वर्ग से इन्द्र आये और उससे कहने लगेः “कौशिकवंशी पिप्पलाद-पुत्र ! तुम अपना मनोरथ कह दो। धरती पर जो संभव नहीं है ऐसे ऊँचे स्वर्ग के भोग तुम्हारे लिए हाजिर हैं। तुम स्वर्ग के अधिकारी हो।”
पिप्पलाद-पुत्र ने सत्संग में सुन रखा था कि स्वर्ग के सुख-भोग तब तक मिलते हैं जब तक पुण्य रहते हैं। पुण्य नष्ट होने पर जीव स्वर्गलोक से गिरा दिया जाता है। उसने कहाः “इन्द्रदेव ! आपका स्वागत है। स्वर्ग का सुख मुझे नहीं चाहिए। मुझे मंत्रजाप का फल अप्सराएँ, नंदनवन या स्वर्ग के भोग के रूप में नहीं चाहिए। अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मंत्र में मेरी प्रीति और बढ़ जाय, इतनी कृपा करें।
इन्द्रदेव ने कहाः “पिप्पलाद-पुत्र ! तुम्हारा तप इतना बढ़ चुका है कि धर्म स्वयं आकृति लेकर तुम्हारे पास आयेंगे, काल भी आयेंगे, मृत्युदेव भी आयेंगे, यम भी आयेंगे…. लो देखो ये सब सामने ही प्रगट हो गये हैं।”
धर्मराज ने कहाः “हे पिप्पलादवंशी ! तुम्हारा मंगल हो। तुमने खूब एकाग्रता से, संयम से, श्रद्धा से मंत्रजाप किया है। अब तुम स्वयं धर्म का स्वरूप हो गये हो। मैं साकाररूप से तुम्हारा स्वागत करने के लिए आया हूँ। तुम धर्म का जो भी फल भोगना चाहो, स्वर्ग अथवा उससे भी ऊपर के लोकों के द्वार तुम्हारे लिए खुले हैं।
पिप्पलाद-पुत्रः “मैं किसी लोक में जाकर सुखी होऊँ, उसकी अपेक्षा यहीं गुरुमंत्र-जाप करके सुख को प्राप्त हो रहा हूँ।”
यमराजः “तुम यह शरीर सदा के लिए नहीं रख सकते। ये कालदेवता भी आये हैं।”
कालदेवताः पिप्पलाद-पुत्र ! तुम यह शरीर सदा के लिए नहीं रख सकते, यह शरीर तो छोड़ना ही पड़ेगा। मेरे पास खड़े ये मृत्युदेव हैं।”
मृत्युदेवः “हाँ, हाँ, कालदेवता ठीक कह रहे हैं, धर्मराज भी ठीक कह रहे हैं।”
राजा इक्ष्वाकु तीर्थ करके उसी समय वहाँ से लौट रहे थे। उन्होंने देखा कि इन्द्र, काल, मृत्यु, यम और धर्मराज साकाररूप में पिप्पलाद-पुत्र के आश्रम में पधारे हैं और उसे कुछ कह रहे हैं।
राजा इक्ष्वाकु ने उन पाँचों को प्रणाम किया और इस कौशिकवंशी जापक ने अर्घ्य-पाद्य से सबका सत्कार किया।
राजा ने जापक से कहाः “आप मंत्रजप में इतने तल्लीन हो गये कि उसके प्रभाव से ये देवता साकाररूप लेकर आपके आश्रम में पधारे हैं। महाराज ! मैं राजा इक्ष्वाकु हूँ। आपको जो चाहिए, माँग लें। जितना धन चाहिए, माँग लें, जितने हाथी, जितने घोड़े चाहिए, माँग लें…. और मुझसे जो एक बार माँगता है उसे फिर कहीं माँगना नहीं पड़ता।”
पिप्पलाद पुत्रः “मुझे कुछ नहीं माँगना। मेरे पास तो गुरुमंत्र का धन है कि आप जो चाहो माँग लो। मैं अब माँगने वालों की जगह पर नहीं हूँ। अब तो आपको जो चाहिए, माँग लो।”
राजा इक्ष्वाकुः “हे ब्राह्मणदेव ! यदि आप देना ही चाहते हैं तो आपने जो मंत्रजाप किया है, उसमें से सौ वर्ष के मंत्रजप का फल मुझे दे दें।”
पिप्पलाद-पुत्र ने हाथ में जल लिया और सौ वर्ष के जप का फल संकल्प करके राजा को दे दिया।
राजा ने पूछाः “इसका फल क्या है?”
पिप्पलाद-पुत्रः “इसका मुझे पता नहीं है।”
राजाः “जिसके फल का पता नहीं है वह लेकर मैं क्या करूँगा और लोग बोलेंगे कि क्षत्रिय ने ब्राह्मण से दान ले लिया। मेरी बदनामी होगी।”
पिप्पलाद-पुत्र “आपने माँगा और मैंने दे दिया। राजन् ! अब अपने वचन से न डिगो, नहीं तो आपकी अपकीर्ति होगी। दी हुई चीज हम वापस नहीं लेते।”
राजाः “मैं कैसे लूँ ? मेरी बदनामी होगी कि क्षत्रिय ने ब्राह्मण से दान ले लिया। दान के फल का भी आपको पता नहीं है।”
पिप्पलाद-पुत्रः “मुझे मेरे गुरुदेव ने मंत्र दिया और कहाः ‘जप करो’ मैंने स्वार्थ से तो जप किया नहीं। गुरु के वचन मानकर जप किये हैं। मैंने यम आदि देवों को बुलाया नहीं, अपने-आप पधारे हैं। मैंने आपको भी बुलाया नहीं, आप भी अपने आप पधारे हो। मैंने तो केवल गुरु वचनों को स्मरण में रखा किः ‘बेटा ! मंत्र जपते रहना। सब अपने-आप हो जायेगा।’ ये देवता अपने आप पधारे हैं ! इसके आगे मंत्रजाप का क्या फल है, वह मैं नहीं जानता।”
राजाः “कुछ भी हो आप अपना फल वापस ले लें।”
पिप्पलाद पुत्रः “मैं वापस नहीं लूँगा चाहे कुछ भी हो। लोग आपकी धर्मनिष्ठा पर लांछन लगायेंगे कि एक बार वचन लेकर चीज ली और वापस लौटा दी। मुझे झूठा सिद्ध करने के लिए आप दबाव न डालें। दिया दुआ दान वापस ले लेना बड़ा भारी अपराध है, बड़ा भारी पाप है।”
मंत्रजाप की कितनी बड़ी महिमा है ! परमात्मदेव के अधीन सारा जगत है और मंत्र अधीन वह परमात्मदेव है।
देवाधिनजगत्सर्वं मंत्राधिनश्च देवता।
इतने में भगवान नारायण, भगवान शिव और भगवान ब्रह्माजी आये और बोलेः “कौशिकवंशी पिप्पलाद-पुत्र ! तुम्हारा मंगल हो। अब तुम्हारा समय पूर्ण हो गया। तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारा और हमारा संवाद जो सुनेगा उसका भी कल्याण होगा।”
सब देव अंतर्ध्यान हो गये। शरीर छोड़ने का समय निकट जानकर पिप्पलाद-पुत्र तीन आचमन लेकर बैठ गये, प्राणायाम किये। प्राणों को नाभि तक नीचे ले गये। मूलाधार केन्द्र से अपनी मनःवृत्ति को ऊपर लाये। फिर स्वाधिष्ठान, मणिपुर केन्द्र से अनाहत केन्द्र में लाये, फिर आज्ञाचक्र में लाये। प्रकाश…. प्रकाश…. देदीप्यमान प्रकाश… तत्पश्चात् अपनी मनःवृत्ति को सहस्रार में लाये और प्राणों को रोककर दृढ़ भावना की किः ‘यह शरीर अब भले छूटे।’
देखते ही देखते उनके ब्रह्मरन्ध्र से एक ज्योति निकली। आकाश में देवताओं ने दुन्दुभियाँ बजायीं और फूलों की वृष्टि कीः ‘साधो ! साधो ! साधो !….. ‘ की ध्वनि गूँज उठी।
वह दिव्य ज्योति ब्रह्मलोक में गयी। भगवान ब्रह्माजी उठ खड़े हुए और दिव्य ज्योतिस्वरूप उन ऋषि का अभिवादन करके उन्हें अपने सिंहासन पर बैठाया।
जिस इक्ष्वाकु को पिप्पलाद-पुत्र अपने जप का फल दे बैठे थे, उनकी भी जीवनज्योति इसी तरह ब्रह्मलोक में पहुँची। ब्रह्माजी ने इक्ष्वाकु का भी सत्कार किया।
देवतागण, ऋषिगण, मरुदगण सब एकत्रित हुए और मंत्रजाप की यह महान और अत्यंत गूढ़ फलश्रुति सुनकर प्रशंसा करने लगे। ब्रह्मलोक, विष्णुलोक तथा शिवलोक के लोकपालों ने भी पिप्पलाद की प्रशंसा की।
जिस परमेश्वर की सत्ता से ब्रह्मा, विष्णु, महेश प्रगट हुए और जिसकी सत्ता से वे क्रमशः सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व संहार करते हैं, उसी परमेश्वर-सत्ता में उन दोनों की ब्रह्मज्योति एक होकर व्यापक सच्चिदानंद स्वरूपमय हो गयी !
कैसी अदभुत है निःस्वार्थ मंत्रजाप की महिमा!
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2002, पृष्ठ संख्या 17,18 अंक 115
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *