संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
विवेकी मनुष्य को संसार के भोगों से वैराग्य होता है और विषय-रस में नीरस बुद्धि होती है। ‘संसार के भोग बाहर से कितने सुंदर, रसदायी और सुखदायी दिखते हैं किन्तु अंत में देखो तो कुछ भी नहीं….’ ऐसा विचार विवेकी को होता है।
जैसे मलिन वस्त्रों को साफ करने से उनका मैल निकल जाता है, वैसे ही वैराग्य से विकाररूपी भाव निकल जाते हैं और मन निर्मल हो जाता है। निर्मल मन में ही भगवद् रस प्रकट होता है, भगवान का आनंद प्रकट होता है और भगवान का सामर्थ्य आता है।
जो विवेकी है वह जानता है कि ‘अस्थि, मांस, मज्जा, रक्त, मल-मूत्रवाला यह शरीर मैं नहीं हूँ अपितु मैं आकाश से भी सूक्ष्म तथा व्यापक चैतन्य आत्मा हूँ।’
बाल के अग्रभाग के लाख हिस्से करिये, उस लाखवें हिस्से के भी करोड़ भाग करिये, फिर भी वह चैतन्य आत्मा बाल के करोड़वें हिस्से से भी अधिक सूक्ष्म है और व्यापक इतना है कि पूरे आकाश को उसने ढाँप रखा है। वही परमेश्वर मैं चैतन्य आत्मा मैं हूँ – ऐसा जो जानते हैं वे ही बड़भागी महापुरुष हैं।
जो अपने को शरीर मानता है, जो अपने को जन्मने-मरने वाला मानता है वह वेदान्त की दृष्टि में अज्ञानी है लेकिन जो अपने को शुद्ध-बुद्ध, चैतन्य आत्मा जानता है वही यथार्थ को जानता है और वही विवेकी है।
जो सत्-असत् को देखता है और सत्-असत् को प्रकाशता है वह शिवात्मा मैं हूँ। मैं ही जीभ के द्वारा खारा-खट्टा आदि स्वाद लेता हूँ, मैं ही नेत्रों के द्वारा अच्छा-बुरा देखता हूँ, कोई मेरे शरीर को काट के टुकड़े-टुकड़े कर दे फिर भी जो नहीं मरता वह मैं हूँ। चाहे कितनी भी वाहवाही हो फिर भी जो बढ़ता नहीं है और चाहे कितनी भी निंदा हो तो भी वह घटता नहीं है वह साक्षी स्वरूप ‘मैं’ हूँ – ऐसा जो जानता है वही सबको जानता है। ऐसे विवेकी महापुरुष महेश्वरस्वरूप होते हैं। वे तम – प्रकाश से परे, कामनाओं से परे, चैतन्यघन में स्थित रहने वाले होते हैं।
जब एक बार उस चैतन्य परमेश्वर का ज्ञान हो जाता है, फिर कोई भी उस ज्ञान को छीन नहीं सकता। जैसे, तुम लोगों को यह ज्ञान हो गया कि यह घड़ी है, अब अगर मैं यह घड़ी छुपा दूँ तो इसका अदर्शन हो सकता है किन्तु इसका ज्ञान तुमसे छीना नहीं जा सकता, क्योंकि तुमको एक बार इसका ज्ञान हो चुका है। ऐसे ही ज्ञानस्वरूप आत्मा का ज्ञान हो जाय तो फिर उसका अदर्शन हो सकता है, उसकी विस्मृति हो सकती है लेकिन उसका अज्ञान कभी नहीं हो सकता।
ज्ञान का फिर अज्ञान नहीं होता है। एक बार तुम्हें ज्ञान हो जाय कि तुम शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा हो फिर कोई तुम्हें बोले कि ‘तुम फलाने के बेटे हो…. फलानी के पति हो…. फलाने के भाई हो…. फलाने के बाप हो….’ तो तुम व्यवहार में तो बोल दोगे कि ‘हाँ भाई ! ठीक है।’ परन्तु भीतर से तुम्हें पता होगा कि तुम वास्तव में क्या हो।
जिसे अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है उस पुरुष के लिए राज्य करना, युद्ध करना, लाखों लोगों से सम्मानित होना अथवा भिक्षा माँगकर खाना सब खेल जैसा हो जाता है क्योंकि उसने जान लिया है कि सत्य केवल परमात्मा है, बाकी सब खिलवाड़मात्र है, स्वप्नमात्र है।
सुख-दुःख, मान-अपमान आदि सब आने-जाने वाले हैं। सुख भी सदा नहीं रहता और दुःख भी सदा नहीं रहता। मान भी सदा नहीं रहता और अपमान भी सदा नहीं रहता। जवानी भी सदा नहीं रहती और बुढ़ापा भी सदा नहीं रहता। मित्र भी सदा नहीं रहते और शत्रु भी सदा नहीं रहते। अमीरी भी सदा नहीं रहती और गरीबी भी सदा नहीं रहती – ये सब प्रकृति के परिवर्तनशील खिलवाड़ हैं।
जो सदा रहता है वह मेरा आत्मा ही सत्य है। पिछले जन्म के सगे-सम्बन्धी, मित्र, धन-दौलत आदि इस जन्म में साथ नहीं हैं लेकिन वह परमात्मा तो जन्म-जन्मांतरों से हमारे साथ है। ऐसे ही इस जन्म के सगे-सम्बन्धी, मित्र, धन-दौलत आदि भी हमारा साथ छोड़ देंगे लेकिन वह परमात्मा मरने के बाद भी हमारे साथ रहेगा…. इसलिए उस परमात्मा के ही विषय में श्रवण करें और उसी का विचार करें तो बुद्धि आत्मविषयिणी हो जायेगी। आत्मविषयिणी बुद्धि होते ही धीरे-धीरे ईश्वरप्राप्ति की तड़प बढ़ती जायेगी।
फिर महापुरुषों से प्रार्थना करेंगे और कुछ अपना पुरुषार्थ करेंगे तो धीरे-धीरे बुद्धि उस सत्यस्वरूप परमात्मा में टिक जायेगी। अगर एक बार केवल तीन मिनट के लिए भी बुद्धि सत्य स्वरूप ईश्वर में टिक गयी तो फिर बुद्धि को कर्मबंधन नहीं रहता है। जैसे, एक बार पारस से लोहे की पुतली का स्पर्श हो गया, वह सोना हो गयी तो फिर उसे जंग नहीं लगता है।
जैसे साधारण आदमी को राग-द्वेष आदि का कर्मबंधन लगता है, वैसे उस मुक्तात्मा पुरुष को राग-द्वेष का कर्मबंधन नहीं लगता है। ऐसा मुक्तात्मा पुरुष संसार में रहते हुए भी संसार से न्यारा होता है।
धनभागी वे भी हैं जिन्हें महापुरुषों का सत्संग प्राप्त होता है, ईश्वरप्राप्ति में रूचि होती है। उनके समस्त तीर्थों, यज्ञों, तपों और पुण्यों का फल फलित हुआ है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2002, पृष्ठ संख्या 2,3 अंकः 116
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