संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से
शास्त्र कहते हैं कि जब तक सामने वाला पूछे नहीं, नम्र न हो तब तक ऊँची बात नहीं बोलनी चाहिए, किंतु अर्जुन के न पूछने पर भी भगवान बोलते हैं। जैसे – कोई अन्धा गड्ढे में गिरता हो, उसको नहीं दिखता किंतु आपको दिखता है तो आपका हृदय थोड़े ही मानेगा कि चुप बैठें। ऐसे ही भगवान देखते हैं कि ये जीव बेचारे अलग-अलग ढंग से माया की खाई में गिर रहे हैं। इसीलिए भगवान बोलते हैं और अधिकारी भेद से अलग-अलग बोलते हैं।
भगवान ने उद्धव से कहाः ‘तुम सब कुछ छोड़कर बदरीकाश्रम में जाओ और मैंने जो उपदेश दिया है, उसका अभ्यास करके मुझसे ऐसे मिलो जैसे – दूध से दूध। जैसे सागर की लहर सागर से मिलती है, ऐसे ही जीवात्मा मुझ अंतर्यामी परमात्मा से मिले।’
भगवान ने अर्जुन से कहाः ‘मेरा स्मरण करते हुए युद्ध कर और मुझसे मिल। कर्म करते हुए मुझसे मिल।’
संयमी राजा अंबरीष से भगवान ने कहाः ‘एकादशी का उपवास करो, प्रजा का ठीक से पालन करो और कर्ता, धर्ता एवं भोक्ता महेश्वर है – ऐसा समझकर कर्म करते जाओ। जो कर्म का प्रेरक और फलदाता है उस ईश्वर का स्मरण करके सत्कर्म करते हुए, राजकाज करते हुए मुझसे मिलो।’
भगवान ने गोपियों से कहाः ‘तुम जहाँ भी हो, जैसी भी हो किंतु किसकी हो, यह सदा याद रखो।’
दूध दुहते रहो, दही बिलोते रहो, गाय चराते रहो किंतु किसके लिए कर रहे हो और वह कैसा है, यह सदा याद रखो। वह ईश्वर है, सर्वगुण-सम्पन्न है, महान है यह भी मत सोचो। जैसा तैसा है किंतु वह हमारा है। यशोदा की ओखली से बंधता है लेकिन है हमारा कन्हैया !
भगवान से अपनत्व रखने से तुम्हारी प्रीति कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग हो जायेगी। भक्ति कैसी होनी चाहिए ? नारद जी ने कहाः यथा गोपिकानाम्। जैसी गोपियों की थी। श्रीकृष्ण ने पढ़े लिखे उद्धव को अनपढ़ गोपियों से उपदेश दिलवाया।
पाँचवें तरीके से उपदेश देते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहाः
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सतंरिष्यसि।।
‘यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञानरूप नौका द्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जायेगा।’ गीता- 4.36
इन पाँच तरीकों में से कोई भी तरीका अपने जीवन में नहीं है तो जीवन वर्तमान में भी विक्षेप और विलासिता से भरा होगा और भविष्य में भी दुःखदायी होगा। चाहे संसारी स्वार्थ का जीवन हो चाहे भगवत्प्राप्ति का…. परोपकार के बिना जीवन में निखार नहीं आता। परोपकार तो करें किंतु बेचारे दीन-हीन हैं — ऐसी बुद्धि से नहीं, जिनकी सेवा करते हो, उनमें मेरा परमात्मा है – इस भाव से सेवा करें।
यह अर्जुन का जमाना नहीं है, युद्ध की अभी जरूरत नहीं है। सब कुछ छोड़कर बद्रीनाथ जाओ ऐसा भी मैं नहीं कहता। किंतु आपसे वही कहता हूँ जो भगवान ने अंबरीष से कहा।
‘सबकी गहराई में मेरा परमात्मा है।’ – यह दृष्टिकोण आपके जीवन में अविकम्प योग लायेगा। यदि आपकी यह समझ है तो युद्ध करते हुए, राज्य करते हुए, रोटी बनाते हुए, गुरु के दैवी कार्य करते हुए भी आपका अविकम्प योग हो जायेगा।
आप पूजा-मंदिर में रहे तो आपका योग हुआ, किंतु बाहर आये तो आपका योग कम्पित हो गया। आप समाधि में रहे तो आपका योग रहा, आप व्यवहार में आये तो समाधि नहीं है, आपका योग कम्पित हो गया।
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्वतः।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।।
‘जो पुरुष मेरी इस परमैश्वर्यरूप विभूति को और योगशक्ति को तत्त्व से जानता है, वह निश्चल भक्तियोग से युक्त हो जाता है-इसमें कोई संदेह नहीं है।’ गीता- 10.7
इस अविकम्प योग को समझने से आप कर्म करते हुए भी भगवान की भक्ति में सफल हो जाओगे, इसमें संशय मत करो।
आज के युग में तुमको कहें कि ‘तुम हिमालय चले जाओ, समाधि करो, भगवान को पाओ फिर संसार में आओ’ तो यह तुम्हारे बस की बात नहीं। तुमको कहें कि ‘तुम गोपियों की नाईं भक्ति करो तो यह भी तुम्हारे बस की बात नहीं है।
तुम जहाँ हो, जैसे हो, पढ़े हो या अनपढ़ हो, मंदिर में हो चाहे दुकान में हो लेकिन तुम्हारा दृष्टिकोण बदल जाये। जहाँ-जहाँ सौंदर्य दिखे, जहाँ-जहाँ शुभ दिखे, मंगलमय दिखे वहाँ भगवान का वैभव है। जहाँ-जहाँ विघ्न-बाधा दिखे, गड़बड़ दिखे वहाँ भगवान के अनुशासन की शक्ति काम कर रही है – ऐसा समझें। जैसे, हाथी अपने रास्ते से चलता है तो ठीक, नहीं तो महावत ऊपर से नियंत्रण करता है। ऐसे ही यह जीवात्मा अपने ईश्वरत्व को पाने के लिए आया है लेकिन अगर रास्ता भूलता है और कुछ गलत करता है तो देर-सवेर उसको तकलीफ होती है।
जैसे – माँ बच्चे को सुख-सुविधा और मिठाई देकर भी मंगल चाहती है और कभी-कभी बच्चे के न चाहते हुए भी उसकी नाक दबोचकर साफ करती है, साबुन रगड़कर नहला-धुलाकर तैयार करती है। माँ की चेष्टाएँ बच्चे को अच्छी नहीं लेकिन माँ की सारी चेष्टाएँ बच्चे की भलाई के लिए होती हैं।
आपके जीवन में कभी चढ़ाव आता है तो कभी उतार आता है। किंतु उतार में आप मायूस न होना और चढ़ाव में आप फूलना मत। चढ़ाव और उतार ये जीवन के ताने बाने हैं। हो सकता है कि जीवन में यदि विघ्न बाधाएँ न आतीं तो ऐसा सत्संग न मिलता अथवा संत की कृपा न होती तो ऐसा सत्संग न मिलता।
कभी चिंतित न हों, कभी दुःखी न हों। चिंता आये तो चिंतित न हों वरन् विचार करो कि चिंता आयी है तो मन में आयी है। चिंता नहीं थी तब भी कोई था, चिंता है तब भी कोई है और चिंता आयी है तो जायेगी भी क्योंकि जो आता है वह जाता भी है।
चिंता से आप जुड़ जाते हैं तो कमजोर हो जाते हैं, दुःखी हो जाते हैं। अहंकार से आप जुड़ जाते हो तो परेशान हो जाते हैं। सफलता से जुड़ जाते हैं तो अहंकार आता है और विफलता से जुड़ जाते हैं तो चिंतित हो जाते हैं। यदि आप इनसे न जुड़े तो ये आपको मजबूत बनाकर चले जायेंगे।
बीमार या तन्दुरुस्त किसी का तन हो सकता है, अच्छा या बुरा किसी का मन नहीं हो सकता है, बुद्धु या विद्वान किसी की बुद्धि हो सकती है लेकिन वह तो वही है जो तू है। जहाँ से तू ‘मैं’ बोलता है, तेरा वही ‘मैं’ आत्मदेव है। मित्र की गहराई में भी तू है और शत्रु की गहराई में भी तू है। भगवान कहते हैं कि ‘मेरी विभूति को देखें। जहाँ-जहाँ सुन्दर सुहावना है, उस सुन्दर वस्तु और व्यक्ति की गुलामी न करें। उसको जो सुन्दरता और सुहावनापन मिला है, वह मुझ आत्मा का है। मैं आत्मरूप से सबके साथ हूँ।’ इस प्रकार की नज़र आपको अविकम्प योग के राजमार्ग पर ला देती है।
जैसे, अँगूठी, चेन आदि गहने अलग होते हैं किंतु सबका मूल पदार्थ सोना एक है, तरंग और बुलबुले अनेक होते हैं किंतु सागर का पानी एक होता है, ऐसे ही जीवों की आकृतियाँ अनेक होती हैं किंतु सबकी गहराई में सच्चिदानंद चैतन्य परमात्मा एक ही है। नज़र एक सच्चिदानंद परमात्मा पर रहे तो हो गया – अविकम्प योग। पूजा-पाठ, जप-तप, साधन-भजन करके इस अविकम्प योग का अभ्यास करना चाहिए।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 3,4 अंक 120
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