सूफी फकीर लोग कहानी सुनाया करते हैं कि प्रभात को कोई अपने खेत की रक्षा करने के लिए जा रहा था । रास्ते में उसे एक गठरी मिली । देखा कि इसमें कंकड़-पत्थर हैं । उसने गठरी ली और खेत में पहुँचा । खेत के पास ही एक नदी थी । वह एक-एक कंकड़-पत्थर गिलोल में डाल-डाल के फेंकने लगा । इतने में कोई जौहरी वहाँ स्नान करने आया । उसने स्नान किया तो देखा चमकीला पत्थर…. उठाया तो हीरा ! वह उस व्यक्ति के पास चला गया जो हीरों को पत्थर समझ के गिलोल में डाल-डाल के फेंक रहा था । उसके पास एक नगर बाकी बचा था ।
जौहरी ने कहाः “पागल ! यह तू क्या कर रहा है ? हीरा गिलोल में डालकर फेंक रहा है !”
वह बोलाः “हीरा क्या होता है ?”
“यह दे दे, तेरे को मैं इसके 50 रूपये देता हूँ ।”
फिर उसने देखा कि “50 रूपये….. इसके ! इसके तो ज्यादा होने चाहिए ।”
“अच्छा 100 रूपये देता हूँ ।”
“मैं जरा बाजार में दिखाऊँगा, पूछूँगा ।”
“अच्छा 200 ले ले ।”
ऐसा करते-करते उस जौहरी ने 1100 रूपये में वह हीरा ले लिया । उस व्यक्ति ने रूपये लेकर वह हीरा तो दे दिया लेकिन वह छाती कूट के रोने लगा कि ‘हार-रे-हाय ! मैंने इतने हीरे नदी में बहा दिये । मैंने कंकड़ समझकर हीरों को खो दिया । मैं कितना मूर्ख हूँ, कितना बेवकूफ हूँ !”
उससे भी ज्यादा बेवकूफी हम लोगों की है । कहाँ तो सच्चिदानंद परमात्मा, कहाँ तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश का पद और कहाँ फातमा, अमथा, शकरिया का बाप होना तथा उनकी मोह-माया में जीवन पूरा करके अपने आत्मनाथ से मिले बिना अनाथ होकर श्मशान में जल मरना !
आप शिवजी से रत्ती भर कम नहीं हैं । आप ब्रह्मा जी से तिनका भर भी कम नहीं हैं । आप श्रीकृष्ण जी से धागा भर भी कम नहीं हैं । आप रामकृष्ण परमहंस जी से एक डोरा भर भी कम नहीं हैं । आप भगवत्पाद लीलाशाहजी बापू से एक तिल भर भी कम नहीं हैं और आप आसाराम बापू से भी एक एक आधा तिल भी कम नहीं हैं ।
भगवान कहते हैं
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
हे अर्जुन ! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूँ ।’ (गीताः 10.20)
लेकिन चिल्ला रहे हैं- ‘हे कृष्ण ! तू दया कर । हे राम । तू दया कर । हे अमधा काका ! तू दया कर ! हे सेंधी माता ! तू दया कर…’ पर यहाँ क्या है ?
इन्सान की बदबख्ती अंदाज से बाहर है ।
कमबख्त खुदा होकर बंदा नज़र आता है ।।
शोधी ले शोधी ले, निज घरमां पेख, बहार नहि मळे ।
ढूँढ ले-ढूँढ ले, अपने घर में देख अर्थात् अपने में गोता मार और जान ले निज स्वरूप को, बाहर नहीं मिलेगा ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2009, पृष्ठ संख्या 5 अंक 193
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