संस्कारों का खेल

संस्कारों का खेल


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

जीवन में सावधानी नहीं है तो जिससे सुख मिलेगा उसके प्रति राग हो जायेगा और जिससे दुःख मिलेगा उसके प्रति द्वेष हो जायेगा । इससे अनजाने में ही चित्त में संस्कार जमा होते जायेंगे एवं वे ही संस्कार जन्म-मरण का कारण बन जायेंगे ।

यहाँ सुख होगा ऐसी जब अंतःकरण में संस्कार की धारा चलती है तो ज्ञान तुमको उस कार्य में प्रवृत्त करता है । यहाँ दुःख होगा ऐसी धारा होती है तो वहाँ से तुम निवृत्त होते हो । ज्ञान ही प्रवर्तक है, ज्ञान ही निवर्तक है । वस्तु, व्यक्ति, परिस्थितियाँ ये सुख और दुःख का मूल कहाँ हैं इसका अगर ज्ञान हो जाय तो तुम शुद्ध ज्ञान में पहुँच जाओगे । प्रवृत्ति व निवृत्ति का ज्ञान मूल में तो आता है चैतन्य से लेकिन तुम्हारे संस्कारों की भूलों से वह ज्ञान ले-ले के इधर-उधर भटक के तुम पूरा कर देते हो । अगर ज्ञानस्वरूप ईश्वर के मूल में जाने की कुछ बुद्धि सूझ जाय, भूख जग जाय तो सारे सुखों का मूल अपना आत्मदेव है – परमेश्वर । जब अपने ही घर में खुदाई है, काबा का सिजदा कौन करे ! काशी में कौन जाय !

दो व्यक्ति लड़ रहे हैं । क्यों लड़ रहे हैं ? एक को है कि ‘यह मेरा कुछ ले जायेगा ।’ दूसरे को है ‘छीन लो ।’ भय लड़ रहा है, लोभ लड़ रहा है लेकिन ज्ञान दोनों में है । ज्ञानस्वरूप चेतन तो है लेकिन भय के संस्कार और लोभ के संस्कार लड़ा रहे हैं । ऐसे ही राग के संस्कार और द्वेष के संस्कार भी लड़ा रहे हैं ।

राक्षसों को रावण के प्रति राग है और हनुमान जी के प्रति द्वेष है तो वे राम जी के विरूद्ध लड़ाई करेंगे और हनुमानजी व बंदरों को राम जी के प्रति प्रेम है और राक्षसों के प्रति नाराजगी है तो वे राक्षसों से लड़ेंगे लेकिन लड़ने की सत्ता, ज्ञान तो वही का वही है । गीज़र में तार गया तो पानी गर्म होगा और फ्रिज में गया तो ठंडा लेकिन बिजली तत्त्व वही का वही । सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म । यह सत्स्वरूप, ज्ञानस्वरूप और अंत न होने वाला है, मरने के बाद भी ज्ञानस्वरूप आत्मदेव का अंत नहीं होता ।

किसी के कर्म सात्त्विक होते हैं तो उसके संस्कार वैसे होंगे । जैसे – तुम्हारे कर्म सात्त्विक हैं तो सत्संग में आने का संस्कार, ज्ञान तुम्हें यहाँ ले आया । अगर शराबी-कबाबी होता तो बोलताः ‘रविवार का दिन है, चलो भाई ! शराबखाने में जायेंगे’, पिक्चरबाज होता तो थियेटर में ले जाता । तो ज्ञान के आधार से संस्कार तुम्हें यहाँ वहाँ ले जा रहे हैं ।

तो कोई चीज़ बुरी और भली कैसे ? कि संस्कारों के अनुसार । मेरे सामने कोई तुलसी डाली हुई कुछ सात्तविक चीज वस्तु प्रसाद ले आता है तो मैं कहता हूँ- चलो भाई ! थोड़ा रखो, थोड़ा ले जाओ, लेकिन यदि कोई मांस, मदिरा, अंडा आदि ले जायेगा तो मैं कहूँगाः ‘ए… बेवकूफ है क्या ? यह क्या ले आया !’ लेकिन वही चीज़ शराबी-कबाबी के पास ले जाओ तो बोलेगाः ‘यार ! उस्ताद !! आज तो सुभान-अल्लाह है ।’ और मेरा प्रसाद ले जाओगे तो बोलेगाः “अरे छोड़ ! बाबा लोगों की क्या बात करता है, यह आमलेट पड़ा है, मैं मौज मार रहा हूँ ।”

तो उनके तामस, नीच संस्कार हैं तो उसका ज्ञान नीचा हो जाता है । यदि मध्यम संस्कार हैं तो उसका ज्ञान मध्यम हो जाता है और उत्तम संस्कार हैं तो उसका ज्ञान उत्तम हो जाता है । यदि भगवदीय संस्कार हैं तो उसका ज्ञान भगवन्मय हो जाता है और ब्रह्मज्ञान के संस्कार हैं तो उसका ज्ञान अपने मूल स्वभाव को जनाकर उसके मुक्तात्मा, महान आत्मा बना देता है, साक्षात्कार करा देता है ।

जो कुछ परिवर्तन और प्राप्ति है वह मनुष्य जीवन में ही है । जो किसी विघ्न-बाधा के आने पर सोचता हैः ‘यहाँ से चला जाऊँ, भाग जाऊँ…..’ , वह आदमी अपने जीवन में कुछ नहीं कर सकता । वह कायर है कायर ! हतभागी है । मन्दा सुमन्दमतयाः । वे ही हलके संस्कार अगर आगे आते हैं तो हलका प्रकाश होता है । जैसे बरसात तो वही-की-वही लेकिन कीचड़ में पड़ती है तो दलदल हो जाती है, सड़क पर पड़ती है तो डीजल और गोबर के दाग धोती है, खेत में पड़ती है तो धान हो जाता है और स्वाती नक्षत्र के दिनों में सीप में पड़ती है तो मोती हो जाती है । पानी तो वही का वही लेकिन संपर्क कैसा होता है ? जैसा संपर्क वैसा लाभ होता है । ऐसे ही ज्ञान तो वही का वही लेकिन संस्कार कैसे है ? संस्कार अगर दिव्य होते जायें तो ज्ञान की दिव्यता का फायदा मिलेगा । संस्कार दिव्य कहाँ से होते हैं ?

दुनियादारी में तो दिव्य संस्कार आते ही नहीं हैं । राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभवाले ही संस्कार आते हैं । तो बोलेः ‘ध्यान-भजन करें ।’

ध्यान-भजन दुनियादारी से तो अच्छा है, इससे बुद्धि तो अच्छी होती है लेकिन इससे भी ऊँची बात है सत्संग ।

तन सुखाय पिंजर कियो, धरे रैन दिन ध्यान ।

ध्यान अच्छा तो है, दिन रात कोई ध्यान कर ले लेकिन-

तुलसी मिटे न वासना, बिना विचारे ज्ञान ।।

वासना इधर-उधर भटकाती है । एकाग्र होने के बाद भी संकल्प करके आदमी दिव्य लोकों में और दिव्य भोगों में उलझ सकता है, इसीलिए उसको सत्संग चाहिए और सत्संग से ज्ञान के दिव्य संस्कार जागृत होते हैं । इसलिए बोलते हैं-

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।

तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लब सत्संग ।।

अर्थात् स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाय तो भी वे सब मिलकर दूसरे पलड़े पर रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो क्षणमात्र के सत्संग से मिलता है । (श्री रामचरित. सुं. कां. 4)

सो जानब सत्संग प्रभाऊ । लोकहूँ बेद न आन ऊपाऊ ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2009, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 193

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