(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)
गुरुकृपा हि केवलं शिष्यस्य परं मंगलम् ।
गुरु की कृपा ही शिष्य का परम मंगल कर सकती है, दूसरा कोई नहीं कर सकता है यह प्रमाण वचन है । प्रमाण वचन को जो पकड़ता है वह तरता है । जो मन के अनुसार, वासना के अनुसार ही गुरु को देखना चाहता है वह भटक जाता है । ‘गुरु को यह नहीं करना चाहिए, ऐसा नहीं करना चाहिए, ऐसा करना चाहिए…. अथवा हमको ऐसा होना चाहिए, हमको यह मिलना चाहिए….’ –ऐसी सोच है तो समझो यह ‘वासना अनुसारी’ है ।
‘शास्त्रानुसारी’ प्रमाण के अनुरूप करेगा । ‘वासना अनुसारी’ मन के अनुरूप करेगा । नामदान तो ले लेते हैं लेकिन मन के अनुरूप वाले ही लोग अधिक होते हैं । कोई विरला होता है प्रमाण से चलने वाला – जो शास्त्र कहते हैं वह सत्, जो गुरु जी कहें वह सत्, जो अपनी वासना कहती है वह असत् ।
वासना अनुसारी कर्म बंधन है, संसार है जन्म-मरण का कारण है और शास्त्रानुसारी कर्म उन्नति व ईश्वरप्राप्ति का साधन है । तो पुरुषार्थ क्या करना है ? जैसा मन में आये ऐसा पुरुषार्थ करना चाहिए कि जैसा शास्त्र और गुरु कहते हैं वैसा करना चाहिए ? मान्यता अनुसारी कर्म कितने भी कर लो और उनका फल कितना भी दिख जाय लेकिन होगा वह संसारी ।
जैसे सूर्य पृथ्वी से 13 लाख गुना बड़ा है – यह प्रमाणभूत बात है । आँखों को नहीं दिखता है फिर भी मानना पड़ेगा । आकाश में नीलिमा आँख को दिखती है लेकिन प्रमाणित है कि नीलिमा नहीं है तो मानना पड़ेगा नीलिमा नहीं है, हमारी आँख की कमजोरी से दिखती है । जो प्रमाणित बात है वह माननी पड़ती है । शास्त्र कहते हैं-
गुरुकृपा हि केवलं शिष्यस्य परं मंगलम् । यह प्रमाणित बात है । नानक जी कहते हैं- घर विच आनंद रह्या भरपूर, मनमुख स्वाद न पाया । अपने घर में ही ब्रह्म परमात्मा का आनंद है लेकिन जो मन के अनुसार ही करना चाहते हैं, वे उसको नहीं पा सकते । यह प्रमाणित बात है ।
हमारे घर में कोई कमी नहीं थी । हमारे परिचय में गुफा की, रहने की जगहों की कमी नहीं थी फिर भी हमको अच्छा न लगे, ऐसा सात साल गुरु जी ने डीसा की झोंपड़पट्टी में हमको रख दिया तो हमने स्वीकार कर लिया । हमारे मन की नहीं चली । हमारी वासना के अनुसार अथवा हमारे कुटुम्बी हमको कहते और हम चले जाते तो हमारी वही दशा होती जैसी दूसरे कर्मलेढ़ियों की होती है । कर्मलेढ़ी उसे कहा जाता है जिसके हाथ में मक्खन का पिण्ड आया और सरक गया, अब लस्सी चाट रहा है । करा-कराया सब नष्ट कर रहा हो उसको बोलते हैं कर्मलेढ़ी । अगर हम कर्मलेढ़ी हो जाते तो डीसा और अमदावाद में कितना अंतर है ? और ह तो शादीशुदा थे, 7 साल में सातो बार घर जाकर आ सकते थे बिना आज्ञा लिये…. 70 बार जाते तो भी गुरु जी कहाँ रोकते ? लेकिन हमने देखा कि अपने मन में या कुटुम्बियों के मन में जो भी आयेगा वैसा करेंगे तो आखिर क्या मिलेगा ? वे जन्म-मरण से पार नहीं हुए हैं तो उनकी सलाह लेकर क्या हम जन्म-मरण से पार हो जायेंगे ?
शास्त्र कहता हैः
तन सुखाय पिंजर कियो धरे रैन दिन ध्यान ।
तुलसी मिटे न वासना बिना विचारे ज्ञान ।।
शास्त्रानुसारी कर्म किये बिना ईश्वर मिलता तो यूँ तो सबको मिल जाये ईश्वर ! आस्तिक तो बहुत लोग हैं, श्रद्धालु तो बहुत लोग हैं, फिर उनको अल्लाह, गॉड या ईश्वर क्यों नहीं मिलता ? मेरे गुरु जी के आश्रम में ऐसे कई लोग आये । जैसे आई.ए.एस. होने के लिए ढाई लाख युवक परीक्षा देते हैं । विभिन्न परीक्षाएँ देते-देते कई छँट जाते हैं, कई पास होते हैं, अन्त में उनमें से करीब 1000 आई.ए.एस. अफसरों की पोस्टिंग होती है ऐसा हमने सुना है । ऐसे ही गुरु के द्वार पर कई लोग आते हैं परंतु उनमें से जिनमें ईश्वरप्राप्ति की सच्ची लगन होती है वे गुरु के दैवी कार्यों में, शास्त्रानुसारी कर्मों में तत्परता से लगे रहते हैं और परम लक्ष्य को पा लेते हैं ।
अपने मन में जैसा आया वैसा निर्णय करके जीव संसार-सागर में बह जाता है । अतः वासना अनुसारी कर्म संसार में भटकाता है और प्रमाण अनुसारी कर्म मोक्ष का हेतु है । अच्छा तो वही लगेगा जो अपने अनुकूल मिल जाय । व्यक्ति अपने विचारों के अनुसार करने लग जाय तो गिरेगा, पतन होगा और गुरु के अनुरूप छलाँग मारी तो उत्थान होगा । अपनी मान्यता के अनुसार एक जन्म नहीं हजार जन्म जीयो, कर-करके गिर जाते हैं इसीलिए बोलते हैं शास्त्र के अनुसार कर्म करो ।
रामकृष्णदेव ने अपनी मान्यता के अनुसार काली माता को प्रकट कर लिया लेकिन काली माता ने कहाः ‘ब्रह्मज्ञानी गुरु की शरण जाओ ।’
नामदेव जी ने अपनी मान्यतानुसार भगवान विट्ठल को प्रकट कर लिया लेकिन विट्ठल ने कहाः ‘विसोबा खेचर के पास जाओ ।’ भगवान शिव को पार्वती जी ने अपनी मान्यता के अनुसार पति के रूप में पा लिया लेकिन शिवजी ने कहाः ‘गुरु वामदेव जी की शरण जाओ ।‘ यह क्या रहस्य है ? प्रमाणभूत है कि गुरुकृपा ही केवलं…. प्रमाणभूत बात माननी पड़ेगी !
मेरी हो सो जल जाय, तेरी हो सो रह जाय ।
हमारी जो अहंता, ममता और वासना है वह जल जाय । गुरु जी ! आपकी जो करूणा और ज्ञानप्रसाद है वही रह जाय । तत्परता से सेवा करते हैं तो आदमी की वासनाएँ नियंत्रित हो जाती हैं और ईश्वरप्राप्ति की भूख लगती है ।
प्रमाणभूत है कि जगत नष्ट हो रहा है । संसार का कितना भी कुछ मिल जाय लेकिन परमात्म-पद को पाये बिना इस जीवात्मा का जन्म-मरण का दुःख जायेगा नहीं ।
बिनु रघुवीर पद जिय की जरनी न जाई ।
जो प्रमाणभूत बात है उसको पकड़ लेना चाहिए और जीवन सफल बनाना चाहिए ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2009, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 193
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