संतान दो तरह की होती है – एक बिन्दु संतान और दूसरी नाद संतान। पिता से जो पुत्र की उत्पत्ति होती है, उसको बिंदु संतान बोलते हैं, वे बिंदु से उत्पन्न होते हैं। और गुरु से जो शिष्य की उत्पत्ति होती है, उसको नाद संतान बोलते हैं, वे नाद पुत्र हैं। जब गुरु अपने शिष्य को उपदेश करते हैं कि ʹतुम कौन होʹ तो एक नया ही भाव उदय होता है। वे बताते हैं कि ʹतुम भगवानके भी आत्मा हो। तुम इस देह से अतीत, द्रष्टा हो।ʹ इस नवीन भाव की उत्पत्ति गुरु के उपदेश से होती है। जैसे आधिभौतिक जगत में माता-पिता जन्म देने वाले होते हैं, वैसे आधिदैविक और आध्यात्मिक जगत में गुरु जन्म देने वाले होते हैं। इसी से गुरु के लिए कहा गया हैः
गुरुर्ब्रह्मा…. महेश्वरः। गुरुर्साक्षात्…. श्रीगुरवे नमः।।
ब्रह्मा उसको कहते हैं जो पैदा करे। शिष्य को उत्पन्न किसने किया ? गुरु ने ही शिष्य में साधकत्व को जन्म दिया। ʹतुम अजन्मा आत्मा हो, तुम ऐसे हो,ʹ – यह संस्कार, यह भाव दिया इसलिए गुरु ब्रह्मा हैं – गुरुर्ब्रह्मा। और उऩ्हींने बारम्बार सत्संग के द्वारा, उपदेश के द्वारा पोषण किया है। विष्णु का काम पालन करना है, और गुरु ने भी पालन किया है इसलिए गुरु विष्णु हैं – गुरुर्विष्णुः। शिष्य के जीवन में जितनेत दोष-दुर्गुण हैं, उनका संहार किसने किया ? उऩको मिटाया किसने ? कि गुरु ने, इसलिए वे रूद्र हैं – गुरुर्देवो महेश्वरः। और जब स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर की उपाधि को हटाकर शुद्ध आत्मा की दृष्टि से देखते हैं तो गुरुर्साक्षात् परब्रह्म ! उपनिषद में आता हैः
त्वं नः पिता स भवान् तमसः पारं पारयति।
तुम हमारे पिता हो। पिता कैसे हो ? क्योंकि तुम हमको इस घोर अंधकार (अज्ञान के अँधेरे) से पार पहुँचाते हो, इसलिए तुम हमारे पिता हो।
ʹगीताʹ में भगवान कहते हैं – महर्षिणां भृगुरहम्। जिसमें पाप गलाने की शक्ति है, जैसे सुनार सोने को जलाकर उसमें से मैल निकाल देता है, ऐसे भृगु-गुरु उसको कहते हैं। ʹभृगुʹ शब्द के अंत में जो ʹगुʹ है उसे से गुरु शब्द प्रारम्भ हुआ। और यह ʹऋʹ तो है ही ʹभृʹ में और भ् है…. ʹभृगुʹ पीछे से पढ़ो तो गु ऋ और भ। तो भृगु माने हुआ गुरुभक्त ! तो भृगु अर्थात् गुरुभक्त कौन हैं ? भगवान कहते हैं मैं हूँ- महर्षिणां भृगुरहम्। और प्रेरणा देते हैं कि तुम भी गुरु की भक्ति करो।
गुरु कौन है ? जो दुःख को जला दे – एक बात, जो पाप को जला दे – दूसरी बात, जो वासना को जला दे – तीसरी बात, जो अज्ञान को जला दे – चौथी बात और जो अज्ञानकृत सम्पूर्ण भेद-विभेद को जला दे, भस्म कर दे। यह महाराज भूनने वाले का नाम भृगु है। भर्जनात् भृगुः। जो संसार की वासना को पूरी करे सो नहीं, जो मिटावे, वह गुरु ! – स्वामी श्री अखंडानंदजी सरस्वती।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2013, पृष्ठ संख्या 7, अंक 246
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