उद्देश्य और आश्रय

उद्देश्य और आश्रय


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन  से

संसार को अनित्य, बदलने वाला जानो और भगवान को नित्य, सदा रहने वाला मानो ।

संसार दुःखालय है । संसार शत्रु देकर तपाता है और मित्र देकर भी दुःख देता है । मित्र मिला और वह बीमार हो तो दुःख देगा । मित्र चिढ़ गया तो दुःख देगा । वह दुर्घटनाग्रस्त हो गया तो दुःख देगा । उसको कोई दुःख आया, मुसीबत आयी तो अपने को दुःख होगा । मित्र शत्रु बन गया तो दुःख देगा । मित्र मर गया तो दुःख देगा । मर जाने के बाद उसकी याद दुःख देगी ।

संसार मित्र बनकर दुःख देता है और संसारी चीज़ें अपनी बनकर मजदूरी करवाती हैं । सँभालो, सँभालो, सँभालो…. गहने सँभालो, गाड़ी सँभालो । सँभाल-सँभाल के वे चीज़ें तो यहीं रह जाती हैं, आखिर सँभालने वाला ही मर जाता है । संसार को सँभाल-सँभाल के छोड़ना है लेकिन अपने स्वार्थ के लिए सँभालते हैं तो बंधन होता है और भगवान की प्रीति के लिए, परोपकार के लिए सँभालते हैं तो मोक्षदायी हो जाता है क्योंकि उद्देश्य और आश्रय परमात्मा है । हम भी तो आश्रम सँभालते हैं, यह सँभालते हैं….  वह सँभालते हैं लेकिन बंधन नहीं रहता । जब आप अपने स्वार्थ के लिए कर्म करते हैं, तब वह कर्म आपको विक्षेप देगा, चिंता देगा, पाप देगा, बंधन देगा और जन्म-मरण की खाई में धकेल देगा । अगर आप अपनी योग्यता को ‘वासुदेवः सर्वम्’ की भावना से सबकी भलाई में लगा देते हैं और अपने कर्म का फल ईश्वर-अर्पण करके ईश्वर के आश्रित हो जाते हैं तो आपका अंतःकरण विशाल होता जाता है, बुद्धि में भगवान की दिव्य प्रेरणा आने लगती है । फिर आपको बड़ी-बड़ी किताबें पढ़के, बड़ी-बड़ी परीक्षाएँ पास करके मैनेजमेंट नहीं करना पड़ेगा, बड़े-बड़े ग्रंथ, पोथे रट-रटके फिर सत्संग नहीं करना पड़ेगा ।

आप यदि अहंकार का आश्रय छोड़कर भगवान का आश्रय लेके बोलते हैं, सर्वात्मा श्रीहरि के निमित्त बोलते हैं तो आपका बोलना सत्संग हो जायेगा, आपका करना सत्कर्म हो जायेगा, आपका जीवन चिन्मय जीवन होने लगेगा ।

परमात्मा की प्रीति के लिए, परमात्मा के आश्रय के लिए लोग भक्ति तो करते हैं लेकिन हृदय में महत्त्व भगवान का नहीं रखते, महत्त्व रखते हैं कि ‘बेटा ठीक हो जाय, पैसा मिल जाय, मेरा यश हो जाय….।’ तो आप परमात्मा का आश्रय नहीं ले रहे हैं, आप नश्वर चीजों के आश्रय में फँस रहे हैं । यदि आप नौकरी करते हैं, धंधा करते हैं, पत्नी के साथ बाजार में खरीददारी करते हैं या यात्रा करते हैं और आपके हृदय में भगवान का महत्त्व है तो आप भगवान के आश्रित हैं । मुख्य उद्देश्य और महत्त्व भगवान का है, कर्म को योग बनाने का है, धर्म अनुसार चलने का है तो आपका उद्देश्य और आश्रय भगवान हो गये ।

अगर आपका उद्देश्य मजा लेने का है और आश्रय चोरी है तो आपका उद्देश्य और आश्रय नीच हो गया । किसी का उद्देश्य ऊँचा होता है, आश्रय छोटा होता है तो भी चल जाता है । जैसे एक सेठ-सेठानी की श्रद्धालु बेटी थी । उसका उद्देश्य था भगवान के दर्शन करने का । तीन-चार ठग साधुवेश में उसके घर आये । सेठ-सेठानी की अनुपस्थिति में उन्होंने उस युवती को कहा कि “तू सब गहने आदि पहनकर हमारे साथ चल, हम तुझको भगवान के दर्शन करा देंगे ।” वह उनके साथ गयी तो ठगों ने उसके सारे गहने उतरवा लिये और कहाः “इस कुएँ में देख, भगवान के दर्शन हो रहे हैं ।” वह ज्यों ही कुएँ में देखने के लिए झुकी, उसको धक्का मार दिया और भाग चले । तो हुआ क्या कि भगवान प्रकट हो गये और उस युवती को बचा लिया ! अब उसका आश्रय तो छोटा था लेकिन उद्देश्य भगवान थे कुछ भी नुकसान नहीं हुआ । यह घटना ‘भक्तमाल’ में विस्तार से आती है ।

किसी का उद्देश्य और आश्रय दोनों ऊँचे होते हैं । जैसे – हनुमान जी लंका में गये तो उनका उद्देश्य राम जी की सेवा था और आश्रय रामनाम था, कर्मयोग था । हनुमान जी ने श्री राम जी की दुहाई देकर रावण को समझाने की कोशिश की लेकिन रावण ने हेकड़ी नहीं छोड़ी, तब हनुमान जी ने लंका जला दी । उनका उद्देश्य था कि रावण अभी समझ जाय कि ‘मैं तो राम जी का छोटा सा दूत हूँ । जब मैं ऐसा हूँ तो मेरे स्वामी जी कैसे होंगे ?’ तो हनुमान जी का उद्देश्य अपने स्वामी का यश फैलाना था । उनके हृदय में रावण के प्रति द्वेष नहीं था और लंका को जलाकर ‘मैं कुछ बड़ा हूँ’ ऐसा दिखाने का भाव नहीं था । रावण भगवान राम जी की महिमा जाने और उसका भला हो ऐसा उद्देश्य था ।

भगवान भी दूत को भेजते समय ऐसा बोलते हैं- “जाओ, काम तो हमारा हो सीता जी को लाने का, लेकिन हित रावण का हो ।”

काजु हमार तासु हित होई ।

तो अपने कर्म में, अपनी बातचीत में, अपने लेन-देन में आप उद्देश्य और आश्रय ईश्वर का रख दो तो आपका जीवन सत्-चित्-आनंदस्वरूप परमात्मा से मिलाने वाला हो जायेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2009, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 194

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