पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से
संत कबीर जी ने सार बात कहीः
चलती चक्की देखके दिया कबीरा रोय ।
दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय ।।
चक्की चले तो चालन दे तू काहे को रोय ।
लगा रहे जो कील से तो बाल न बाँका होय ।।
चक्की में गेहूँ डालो, बाजरा डालो तो पीस देती है लेकिन वह दाना पिसने से बच जाता है जो कील के साथ सटा रह जाता है, अबदल को छुए रहता है ।
यह बताने वाला जो चल रहा है, वह अचल के सहारे चल रहा है । जैसे बीच में कील होती है उसके आधार बर चक्की घूमती है, साईकिल या मोटर साइकिल का पहिया एक्सल पर घूमता है । एक्सल ज्यों-का-त्यों रहता है । पहिया जिस पर घूमता है, वह घूमने की क्रिया से रहित है । न घूमने वाले पर ही घूमने वाला घूमता है । ऐसे ही अचल पर ही चल चल रहा है, जैसे – अचल आत्मा के बल से बचपन बदल गया, दुःख बदल गया, सुख बदल गया, मन बदल गया, बुद्धि बदल गयी, अहं भी बदलता रहता है – कभी छोटा होता है, कभी बढ़ता है ।
जो अचल है वह असलियत है और जो चल है वह माया है । कोई दुःख आये तो समझ लेना यह चल है, सुख आये तो समझ लेना यह चल है, चिंता आये तो समझ लेना चल है, खुशी आये तो समझ लेना चल है । जो आया है वह सब चल है ।
अचल के बल से चल दिखता है । अचल सदा एकरस रहता है, चल चलता रहता है । तो दो तत्त्व है – प्रकृति ‘चल’ है और परमेश्वर आत्मा ‘अचल’ है । अचल में जो सुख है, ज्ञान है, सामर्थ्य है उसी से चल चल रहा है । जो दिखता है वह चल है, अचल दिखता नहीं । जैसे मन दिखता है बुद्धि से, बुद्धि दिखती है विवेक से और विवेक दिखता है अचल आत्मा से । मेरा विवेक विकसित है कि अविकसित है यह भी दिखता है अचल आत्मा से ।
अचल से ही सब चल दिखेगा, सारे चल मिलकर अचल को नहीं देख सकते । अचल को बोलते हैं- 1 ओंकार सतिनामु करता पुरखु…. कर्ता-धर्ता वही है अचल । वह अजूनी सैभं…. अयोनिज (अजन्मा) और स्वयंभू है । चल योनि (जन्म) में आता है, अचल नहीं आता । तो मिले कैसे ? बोलेः गुर प्रसादि । गुरु कृपा से मिलता है । चल के आदि में जो था, चल के समय में भी है, चल मर जाय फिर भी जो रहता है वह सचु जुगादि.… युगों से अचल है ।
भगवान नारायण देवशयनी एकादशी से लेर देवउठी एकादशी तक अचल परमात्मा में शांत हो जाये हैं । साधु-संत भी चतुर्मास में अचल में आने के लिए कुछ समय ध्यानस्थ होते हैं, एकांत में बिताते हैं । भगवान श्री कृष्ण 13 अचल में रहे ।
आप हरि ओ….म्… इस प्रकार लम्बी उच्चारण करके थोड़ी देर शांत होते हैं तो आपका मन उतनी देर अचल में रहता है । थोड़े ही समय में लगता कि तनावमुक्त हो गये, चिंतारहित हो गये – यह ध्यान का तरीका है ।
ज्ञान का तरीका है कि एक चल है, दूसरा अचल है । अचल आत्मा है और चल शरीर है, संसार है, मन है, बुद्धि है । चल कितना ही बदल गया, देखा अचल ने । सुख-दुःख को जानने वाला भी अचल है । अगर इस अचल में प्रीति हो जाय, अगर अचल का ज्ञान पाने में लग जायें अथवा ‘मैं कौन हूँ’ ? यह खोजने में लग जायें तो यह अचल परमात्मा दिख जायेगा अथवा परमात्मा कैसे मिलें ?’ इसमें लगोगे तो अपने ‘मैं’ का पता चल जायेगा । क्योंकि जो मैं हूँ वही आत्मा है और जो आत्मा है वह अचल परमात्मा है । जो बुलबुला है वही पानी है और पानी ही सागर के रूप में लहरा रहा है । बोलेः “बुलबुला सागर कैसे हो सकता है ?”
बुलबुला सागर नहीं है लेकिन पानी सागर है । ऐसे ही जो अचल आत्मा है वह परमात्मा का अविभाज्य अंग है । घड़े का जो आकाश है, थोड़ा दिखता है लेकिन है यह महाकाश ही ।
जो अचल है उसमें आ जाओ तो चल का प्रभाव दुःख नहीं देगा । नहीं तो चल कितना भी ठीक करो, शरीर को कभी कुछ-कभी होता ही रहता है । ‘यह होता है तो शरीर को होता है, मुझे नहीं होता’ – ऐसा समझकर शरीर का इलाज करो लेकिन शरीर की पीड़ा अपने में मत मिलाओ, मन की गड़बड़ी अपने अचल आत्मा में मत मिलाओ तो जल्दी मंगल होगा ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2009, पृष्ठ संख्या 24, 15 अंक 194
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ