Monthly Archives: February 2009

नरक पावे सोई


भगवत्पाद पूज्य श्री लीलाशाह जी महाराज

मानव बनो, मानवता के गुण सीखो और प्राप्त करो । इन्सान वह है जो सबका भला सुने और करे । मीरा ने कहाः

जो निंदा करे हमारी, नरक पावे सोई ।

आप जाये नरक में, पाप हमारे धोई ।।

अपने को तो पहचाना नहीं और दूसरों की पहचान करने में लग गयाः ‘यह ऐसा है, वह ऐसा है….।’ अपने को अर्थात् आत्मा को । कोई विरला होता है, जो अपने आपको पहचानता है । प्रत्येक कहेगा कि मैं सही हूँ । तुम कहोगे कि स्वामी जी ! यह बात (अपने आपको पहचानना) आवश्यक है क्या ?’ अरे हाँ ! जिसने स्वयं को न पहचाना, वह दूसरों को क्या पहचानेगा ? वह तो पशु है !

मनुष्य-शरीर प्राप्त करके यदि तुमने सद्स्वभाव धारण नहीं किया, हृदय में ज्ञन के सूर्य को नहीं जगाया, अपने-आपको नहीं पहचाना तो फिर संसार में आकर तुमने क्या किया ? अपने-आपको पहचान लेने से ही मानव का कल्याण है ।

निंदा-स्तुति जीव को फँसाने वाली है । निंदा, द्वेष, चालबाजी, कपट – इनसे आप अपनी व समाज की हानि कर रहे हैं और न जाने कितनी योनियों में निंदा एवं कपट का फल भोगेंगे !

कहा गया हैः

कपट गाँठ मन में नहीं, सबसे सरल स्वभाव ।

नारायण वा वास की, लगी किनारे नाव ।।

अतः कपटरहित होकर भगवत्प्रेमी महापुरुष का संग करके, सत्संग करके अपने-आपको पहचान लो तो जन्म-मृत्यु के दुःखों से सदा के लिए छूट जाओ ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2009, पृष्ठ संख्या 14 अंक 194

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मनुष्य दुःखी क्यों है ?


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

मनुष्य को अपने चित्त को किसी भी परिस्थिति व प्रसंग में दुःखी नहीं होने देना चाहिए । अगर चित्त दुःखी हुए बिना नहीं रहता है तो भगवान के चरणों में प्रार्थना करनी चाहिए कि ‘हे प्रभु ! इस दुःखरूप संसार से बचाकर हमें आत्मज्ञान के प्रकाश की ओर ले चल, मोह-माया से छुड़ाकर सत्यस्वरूप आत्मा की ओर ले चल ।’ इस तरह करुण प्रार्थना करके भगवान या गुरु के निमित्त बनाकर उनके आगे अपने दुःख को बाहर निकाल देना चाहिए, उसे पी नहीं जाना चाहिए ।

वास्तव में मनुष्य दुःखी क्यों है ? क्योंकि जो वर्तमान में है उसकी कद्र नहीं और दूसरे को देखकर फरियाद करता रहता है । मैंने सुनी है एक कथाः

मोर का बच्चा रो रहा था । मोरनी बोलीः “बिट्टू क्यों रोता है ?”

बच्चा बोलाः “देखो, मैना का बच्चा कितना सुंदर है, कितना बढ़िया है !”

मोरनी बोलीः “चल, मैं तुझे उसके पास ले चलती हूँ ।”

गये तो मैना का बच्चा रो रहा था ।

मैना ने अपने बच्चे से पूछाः “तू क्यों रोता है ?”

बोलाः “मोर का बच्चा कितना सुंदर है !”

तो मोर का बच्चा समझता है कि मैना का बच्चा बढ़िया है और मैना का बच्चा समझता है मोर का बच्चा बढ़िया है । सेठ समझता है कि अफसर की मौज है और अफसर समझता है सेठों की मौज है । कुछ पुरुषों को यह भ्रम है कि स्त्रियाँ सुखी हैं और कुछ स्त्रियों को भ्रम है कि पुरुष सुखी हैं ।

‘श्री योगवासिष्ठ महारामायण’ काकभुशुण्डिजी वसिष्ठ जी से कहते हैं- ‘हे मुनीश्वर ! जो कुछ ऐश्वर्यसूचक सुंदर पदार्थ हैं वे सब असत् रूप हैं । पृथ्वी पर चक्रवर्ती राजा और स्वर्ग में गंधर्व, विद्याधर, किन्नर, देवता और उनकी स्त्रियाँ व देवताओं की सेना आदि सब नाशवान हैं । मनुष्य, दैत्य, देवता तथा पहाड़, सरोवर, नदियाँ आदि जो कुछ बड़े पदार्थ हैं वे सभी नाशवान हैं  स्वर्ग, पृथ्वी व पाताल लोक में जो कुछ भोग हैं वे सब असत् और अशुभ हैं । कोई पदार्थ श्रेष्ठ नहीं । न पृथ्वी का राज्य श्रेष्ठ है, न देवताओं का रूप श्रेष्ठ है और न नागों का पाताल लोक श्रेष्ठ है, न बहुत जीना श्रेष्ठ है, न मूढ़ता से मर जाना श्रेष्ठ है, न नरक में पड़ना श्रेष्ठ है और न इस त्रिलोकी में अन्य कोई पदार्थ श्रेष्ठ है । जहाँ संत का मन स्थित है वही श्रेष्ठ है ।’

सुबह  उठकर उस सुखस्वरूप प्रभु में बैठ जाओः ‘मेरा परमात्मा सत् है, चित् है, आनंदस्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है । हे मेरे प्यारे !

दीन दयाल बिरिदु संभारी ।

हरहु नाथ मम संकट भारी ।।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।’

तुम तो भगवत्स्मृति करो, भगवदाकार वृत्ति करो । शत्रुआकार वृत्ति होगी तो अंदर में जलन होगी । भयाकार वृत्ति, द्वेषाकार वृत्ति, रागाकार वृत्ति, मोहाकार वृत्ति – ये सब हम लोगों को फँसाने वाली वृत्तियाँ हैं । वृत्ति में डर आ गया तो भय पैदा होगा  अथवा राग पैदा होगा, द्वेष पैदा होगा, चिंता पैदा होगी और इससे हमारी शक्तियों का ह्रास होता है । तो क्या करें ?

हम भगवान के हैं, भगवान हमारे हैं और भगवान हमारे परम हितैषी हैं, परम सुहृद हैं । भगवान को अपना मान लो, जो कुछ सुख-दुःख आता है उसको साक्षीभाव से देखो, यथोचित व्यवहार करो, अपना उद्देश्य ऊँचा रखो । इससे सारे दुःखों के सिर पर पैर रखने की कला आ जायेगी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2009, पृष्ठ संख्या 10,11 अंक 194

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अपनी कद्र करना सीखें – पूज्य बापू जी


हमको श्रद्धा के साथ-साथ सत्संग के द्वारा समझना चाहिए कि शिवलिंग यह भगवान तो है लेकिन इस भगवान में घन सुषुप्ति में चैतन्य बैठा है । तर्क करना हो और अश्रद्धा करनी हो तो भगवान साक्षात् आ जायें तो भी दुर्योधन जैसा व्यक्ति उनमें भी अश्रद्धा करता है । दुर्योधन ने श्रीकृष्ण को कैद करने का आदेश दिया तो श्रीकृष्ण द्विभुजी से चतुर्भुजी होकर आकाश में स्थित हुए लेकिन दुर्योधन कहता है कि यह तो जादूगर है । दुर्योधन और शकुनि श्रीकृष्ण के लिए कुछ-का-कुछ बकते हैं लेकिन अर्जुन श्रीकृष्ण से फायदा उठाता है, गीता बनी और हम लोग भी फायदा उठा रहे हैं ।

श्रद्धाविहीन लोग श्रीकृष्ण के दर्शन व चतुर्भुजी नारायण के दर्शन के बाद भी दुर्बुद्धि का परिचय देते हैं । ऐसे दुर्योधनों की कमी नहीं है समाज में । श्रद्धालु व समझदार सज्जन तो शालग्राम, शिवलिंग और मूर्ति में श्रद्धा एवं भगवद्भाव से अपनी बुद्धि और जीवन में चिन्मय चैतन्य को प्रकट करते हैं ।

जिसके जीवन में सूझबूझ है, जिसे अपने जीवन की कद्र है वह महापुरुषों, शास्त्रों, वेदों की कद्र करेगा । शराब व माँस का सेवन करने वालों की मति ईश्वरप्राप्ति के योग्य नहीं रहती । ऐसे लोग स्वयं का ही अवमूल्यन करते हैं । ‘गुरुवाणी’ में आता हैः

जे रतु1 लगै कपड़ा जामा2 होइ पलीतु3

जो रतु पीवहि माणसा तिन किउ4 निरमलु चीतु5 ।।

1 रक्त 2 वस्त्र 3 अपवित्र 4 कैसे 5 शुद्ध चित्त ।

भगवान राम कहते हैं-

निर्मल मन जन सो मोहि पावा ।

शराब और मांस निर्मल मति को मलिन कर देते हैं । आत्मसाक्षात्कार की योग्यतावाला मनुष्य अपने को अयोग्य बनाने वाला खान-पान और चिंतन करे, अपने आत्मदेव को छोड़कर देश-देशान्तर में ईश्वर को माने या स्वर्ग अथवा बिहिश्त की कल्पना करे यह कितनी तुच्छ बात है ! कितनी छोटी मान्यता, मति गति है !

जिसको अपने जीवन की कद्र नहीं है वह शास्त्रों की कद्र क्या करेगा, महापुरुषों की कद्र क्या करेगा, अपना ही जीवन खपा देगा । यदि तुमको अपने जीवन की कद्र है, अपने जीवनदाता की, शास्त्रों की, अपने माता-पिता की कद्र है कि कितनी मेहनत करके तुम्हें पढ़ाया, बड़ा किया तो तुम ऐसे कर्म करो जिनसे तुम्हारे सात कुल तर जायें ।

दुःख आया तो दुःखी हो गये, सुख आया तो सुखी हो गये तो तुम्हारे-हमारे में और कुत्ते में क्या फर्क है ? अरे, सुख को सपना, दुःख को बुलबुला, दोनों को मेहमान जान…. अपने को दास क्यों बनाता है ? पदोन्नति हो गयी तो हर्षित हो गये, बदली हो गयी तो सिकुड़ गये । इतनी लाचार जिंदगी क्यों गुज़ारता है ? गुरु की शरण जा । जरा सा किसी ने डाँट दिया, तेरी खुशी गायब ! ज़रा सा किसी ने पुचकार दिया तो खुश ! तो तू तो जर्मन का खिलौना है और क्या है ? जरा सा नोटिस आ गया तो तेरी चिंता बढ़ गयी । जरा सा कहीं छापा पड़ा तो तेरी मुसीबत बढ़ गयी । जरा सी अफसर से पहचान हो गयी तो तूने छाती फुला दी । तू इन खिलौनों को सच मानकर क्यों उलझ रहा है ? अपने आत्मा को जानने के लिए कुछ तो आगे बढ़ भाई ! जो परम मित्र, परम हितैषी है उसका अहोभाव से चिंतन कर, उसकी स्मृति कर और उसका ज्ञान पाकर उसी में आनंदित हो, प्रशांत हो और विश्रांति पा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2009, पृष्ठ संख्या 9 अंक 194

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