मूर्त से अमूर्त की ओर

मूर्त से अमूर्त की ओर


(श्री रामकृष्ण परमहंस जयंतीः 10 मार्च 2016)

श्री रामकृष्ण परमहंस के साधनकाल में दो व्यक्तियों ने उनकी बहुत सेवा की थी। एक उनके भानजे हृदय ने और दूसरे कलकत्ते (वर्तमान कोलकाता) की प्रसिद्ध रईस रानी रासमणी के दामाद मथुरबाबू ने।

विजयदशमी का दिन था। संध्या के समय माँ दुर्गा की प्रतिमा का विसर्जन होना था। सबको यह सोचकर बुरा लग रहा था कि ‘देवी के चले जाने पर यह आनंद-उत्सव नहीं रहेगा।’ पुरोहित ने मथुरबाबू को संदेश भेजा कि “विसर्जन होने के पहले आकर देवी को प्रणाम कर लें।”

मथुरबाबू को धक्का लगा कि ‘आज माँ का विसर्जन करना होगा ! पर क्यों ? माँ और रामकृष्णदेव की कृपा से मुझे किसी बात की कमी नहीं है, फिर माँ का विसर्जन क्यों ?’ ऐसा सोचते हुए वे चुपचाप बैठे रहे।

समय हो रहा था, पुरोहित ने पुनः समाचार भेजा। मथुरबाबू ने कहला भेजा कि “माँ का विसर्जन नहीं किया जायेगा। इतने दिन तक जैसे पूजा चल रही थी, वैसे ही चलती रहेगी। यदि मेरे मत के विरुद्ध किसी ने किया तो ठीक न होगा ! माँ की कृपा से जब मुझमें उनकी नित्य पूजा करने का सामर्थ्य है तो मैं क्यों विसर्जन करूँ !”

मथुरबाबू के हठी स्वभाव के आगे सभी हार मान गये। उनकी सम्मति के विरुद्ध विसर्जन करना सम्भव नहीं था। अंत में रामकृष्ण जी से प्रार्थना की गयी। परमहंस जी उनके पास गये तो वे बोलेः “बाबा ! चाहे कुछ भी हो, मैं अपने जीवित रहते माँ का विसर्जन नहीं होने दूँगा। मैं माँ को छोड़कर कैसे रह सकता हूँ !”

रामकृष्ण जी ने उनकी छाती पर हाथ रख कर कहाः “ओह ! तुम्हें इसी बात का डर है ? तुम्हें माँ को छोड़कर रहने को कौन कह रहा है और यदि तुमने विसर्जन कर भी दिया तो वे कहाँ चली जायेंगी ? इतने दिन माँ ने तुम्हारे पूजन-मंडप में पूजा ग्रहण की पर आज से वे और भी अधिक समीप रहकर प्रत्यक्ष तुम्हारे हृदय में विराजित हो के पूजा ग्रहण करेंगी, तब तो ठीक है न ?”

रामकृष्ण जी के स्पर्श से मथुरबाबू के हृदय में जो अनुभूति हुई, उससे उनका बाह्य पूजन का आग्रह अपने-आप हट गया।

आत्मानुभवी संत अपने भक्तों को आत्मानंद की ओर ले जाने के लिए अंदर की आत्मिक दिव्यता की अनुभूति कराते हैं। पूज्य बापू जी के सान्निध्य में होने वाले ध्यानयोग शक्तिपात साधना शिविरों में लाखों-लाखों लोग ऐसी दिव्य अनुभूतियों का लाभ लेते हैं।

पूज्य बापू जी सबसे सरल तथा सर्वोच्च फल प्रदान करे ऐसा अंतर्यामी आत्मदेव का पूजन बताते हुए कहते हैं- “उस आत्मदेव का पूजन न चंदन, केसर, कस्तूरी से होता है न धूप-दीप, अगरबत्ती से होता है और हर जगह पर, हर परिस्थिति में, हर क्षण में हो सकता है। उसका पूजन यही है कि ‘हे चिदानंद ! हे चैतन्य ! हे शांतस्वरूप ! आनन्दस्वरूप ! ये सारे भाव जहाँ से उठते हैं, वह सब भावों का साक्षी, आधारस्वरूप तू है। जय हो सच्चिदानंद !’ ऐसा चिन्तन हृदय करता है तो उसका पूजन हो ही गया। पूजन में बस चित्त की वृत्तियाँ शांत होने लगें। उसी के परम चिंतन से तुम्हारा चित्त शुद्ध होता जायेगा, उसीमय होता जायेगा। बस, कितना आसान और ऊँचा पूजन है !”

ऐसा ही आत्मदेव का पूजन भगवान शिवजी ने वसिष्ठजी को बताया था, जिसका वर्णन ‘योगवासिष्ठ महारामायण’ में आता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2016, पृष्ठ संख्या 21, अंक 278

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