स्वभाव का सुधार

स्वभाव का सुधार


अभिमान और स्वार्थ-भावना ये दो बहुत बड़े दोष हैं । ये दोनों स्वभाव बिगाड़ने वाले हैं । इनसे अपना पतन होता है और दूसरों को दुःख होता है । अभिमान और स्वार्थ की भावना दूर करें तो स्वभाव सुधर जाय ।

व्यक्ति चाहता है एक तो मेरी बात रहे और दूसरा मेरा मतलब सिद्ध हो जाय । वह हरेक बात में इसी ताक में रहता है । ‘मेरे को धन मिल जाय, मान मिल जाय, आदर मिल जाय, आराम मिल जाय….’ यह भाव रहता है न, इससे स्वभाव बिगड़ता है । तो अभिमान से, अहंकार से, स्वार्थबुद्धि से स्वभाव बिगड़ता है । दोनों जगह निरभिमान हो करके –

सरल स्वभाव न मन कुटिलाई

जथा लाभ संतोष सदाई ।। (श्रीरामचरित, उ.कां. 45.1)

कपट गाँठ मन में नहीं सब सों सरल सुभाव ।

नारायण वा भगत की लगी किनारे नाव ।।

कोई कपट करे तो उसके साथ भी कपट नहीं था ‘मंद करत जो करइ भलाई’ ऐसा जिसका स्वभाव है, उसको याद करने से शांति मिलती है । ऐसी सरलता धारण करने में क्या परिश्रम है, बताओ ? कुटिलता करने में आपको परिश्रम होगा । कुछ-न-कुछ मन में कपट-गाँठ गूँथनी पड़ेगी न ! सीधे, सरल स्वभाव में है – जैसी बात है वैसी कह दी । झूठ-कपट करोगे तो कई बातें ख्याल में रखनी पड़ेंगी, फिर कहीं-न-कहीं चूक जाओगे, कहीं-न-कहीं भूल जाओगे, सच्ची बात है । सरलता है तो सब जगह मौज-ही-मौज है । अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग कर दूसरे के हित का सोचो । कैसे हित हो ? क्या करूँ ? कैसे करूँ ? दूसरों का कल्याण कैसे हो ? दूसरों को सत्संग, सत्संस्कार कैसे मिलें, जिससे वे सुखी हों, संतुष्ट हों ? – ऐसा सोचते रहो । आपके पास धन न हो तो परवाह नहीं, विद्या नहीं हो तो परवाह नहीं, कोई योग्यता नहीं, कोई पद नहीं, कोई अधिकार नहीं हो तो कोई परवाह नहीं । ऐसा न होते हुए भी आपका भाव होगा दूसरों का हित करने का तो स्वभाव शुद्ध होता चला जायेगा । जहाँ झूठ, कपट, अभिमान, अपनी हेकड़ी रखने का स्वभाव होगा, वहाँ स्वभाव बिगड़ता चला जायेगा । वह बिगड़ा हुआ स्वभाव पशु-पक्षी आदि शरीरों में भी तंग करेगा । वहाँ भी आपको सुख से नहीं रहने देगा । अच्छे स्वभाव वाला पशु-योनि में भी सुख पायेगा, मनुष्य भी श्रेष्ठ हो जायेगा ।

स्वभाव सुधारने का मौका यहाँ ही है । जैसे जहाँ बाजार होता है वहाँ रुपयों से चीज मिल जाती है । जंगल में रूपये पास में हो तो क्या चीज़ मिलेगी ? यह बाजार तो यहाँ ही अभी लगा हुआ है । इस बाजार में आप अपना स्वभाव शुद्ध बना लो, निर्मल बना लो । यहाँ सब तरह की सामग्री मिलती है । मनुष्य-शरीर से चल दिये तो फिर जैसे हो वैसे ही रहोगे । फिर बढ़िया तो नहीं होगा, घटिया हो सकता है । वहाँ (दूसरी योनि में) भी स्वभाव खराब हो सकता है परंतु वहाँ उसको बढ़िया बात मिलनी बड़ी कठिन है । कुछ बढ़िया मिलेगी भी तो सांसारिक बातें मिलेंगी, पारमार्थिक नहीं । वहाँ स्वभाव का सुधार नहीं हो सकता है । बढ़िया शिक्षक मिल जायेगा तो वह शिक्षित हो जायेगा, मर्यादा में चलेगा, नहीं तो ऐब पड़ जायेगा तो उम्र भर दुःख पायेगा ।

पशु को बचपन में ही ऐब (खराब आदत) हो जाता है न, तो वह दुःख देने वाला, मारने वाला बन जाता है । मारने की आदत पड़ने से उकसाने से वह दुःख देने वाला बन जाता है और जीवन भर मार का दुःख झेलता ही है । तो बुरा स्वभाव बन जायेगा पशु-योनि में भी । अतः बुराई तो वहाँ भी मिल जायेगी, भलाई का मौका तो यहाँ ही है । यहाँ भी हर समय नहीं । सत्संग मिलता है, विचार मिलता है, सत्शास्त्र मिलता है तो इन बातों से हमें अच्छाई सीखनी चाहिए, मौका खोना नहीं चाहिए ।

बड़ें भाग मानुष तनु पावा ।

सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा ।। (श्रीरामचरित. उ.कां. 42.4)

जो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है ऐसा मानव शरीर मिला है तो अपना स्वभाव शुद्ध बना लें, निर्मल बना लें । फिर मौज-ही-मौज ! यह पूँजी सदा साथ में रहने वाली है क्योंकि जहाँ कहीं जाओगे तो स्वभाव तो साथ में रहेगा ही । बिगड़ा हुआ होगा तो बिगड़ा हुआ ही साथ रहेगा । जहाँ कहीं जाओ तो स्वभाव को निर्मल बनाओ । अहंकार तथा अपने स्वार्थ का त्याग करके ‘दूसरों का हित कैसे हो ? अपने तन से, मन से, वचन से, विद्या से, बुद्धि से, योग्यता से, अधिकार से, पद से, किसी भी तरह दूसरों को सुख कैसे हो ? दूसरों को कल्याण कैसे हो ?’ – ऐसा भाव रहेगा तो आप ऐसे निर्मल हो जायेंगे कि आपके दर्शन से भी दूसरे लोग निर्मल हो जायेंगे ।

तन कर मन कर वचन कर, देत न काहू दुःख ।

तुलसी पातक झरत है, देखत  उसका मुख ।।

उसका मुख देखने से पाप दूर होते हैं । आप भाई-बहन सब बन सकते हो ऐसे । अब मीराबाई ने हमको क्या दे दिया ? परन्तु उनके पद सुनते हैं, याद करते हैं तो चित्त में प्रसन्नता होती है, गाते हैं तो भगवान के चरणों में प्रेम होता है । उनके भीतर प्रेम भरा था, सद्भाव भरा था, इसलिए मीराबाई अच्छी लगती है । वे हमारे बीच नहीं आयीं फिर भी उनका उन्नत स्वभाव हमारी उन्नति करता है । उनकी बात भी अच्छी लगती है, उनके पद अच्छे लगते हैं क्योंकि उनका अंतःकरण शुद्ध था, निर्मल था । नहीं तो मीराबाई की जो सास थी वह पूजनीया थी मीराबाई के लिए, पर उसका ना भी नहीं जानता कोई । मीराबाई विदेशों तक सब जगह प्रसिद्ध हो गयीं, भगवान की भक्ति होने से नाम चाहने से नहीं ।

गृहस्थ कहते हैं- ‘बेटा हो जाय तो हमारा नाम हो जाय ।’ बेटा कइयों को हुआ पर नाम हुआ ही नहीं, पद कइयों को मिला पर थोड़े दिन हुए तो टिका नहीं । तीन चार पीढ़ी के पहले वालों को आज घरवाले ही नहीं जानते, दूसरे क्या जानेंगे ! भगवान का भजन करो तो भैया ! कितनी बड़ी बात है कि नाम रहे-न-रहे आपका कल्याण हो जायेगा, दुनिया का बड़ा भारी हित होगा । इसलिए अपने स्वभाव को शुद्ध बना लें । शुद्ध कैसे बने ?

अपनी हेकड़ी छोड़ें, अपना अभिमान छोड़ दें और दूसरों का आदर करें, दूसरों का हित करें । दो विभिन्न बातें सामने आ जायें और दूसरे की बात न्याययुक्त है, बढ़िया है तो अपनी बात छोड़कर उनकी बात मानें । हमारी नहीं उनकी सही । दोनों बढ़िया होने पर भी उनकी बात का आदर करने से अपने स्वभाव में सुधार होता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2009, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 197

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *