परम तत्त्व के रहस्य को जानने की इच्छा से ब्रह्मा जी ने देवताओं के सहस्र वर्षों (देवताओं का एक वर्ष = 365 मानुषी वर्ष) तक तपस्या की । उनकी उग्र तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान महाविष्णु प्रकट हुए । ब्रह्मा जी ने उनसे कहाः ! भगवन् ! मुझे परम तत्त्व का रहस्य बतलाइये ।
परमतत्त्वज्ञ भगवान महाविष्णु ‘साधो-साधो’ कहकर प्रशंसा करते हुए अत्यंत प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी से बोलेः अथर्ववेद की देवदर्शी नामक शाखा में ‘परमतत्त्वरहस्य’ नाम अथर्ववेदीय महानारायणोपनिषद् में प्राचीन काल से गुरु-शिष्य संवाद अत्यंत सुप्रसिद्ध होने से सर्वज्ञात है । जिसको सुनने से सभी बंधन समूल नष्ट हो जाते हैं, जिसके ज्ञान से सभी रहस्य ज्ञात हो जाते हैं ।
एक सत्शिष्य ने अपने ब्रह्मनिष्ठ गुरु की प्रदक्षिणा की, उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और विनयपूर्वक पूछाः “भगवन ! गुरुदेव ! संसार से पार होने का उपाय क्या है ?”
गुरु बोलेः “अनेक जन्मों के किये हुए अत्यंत श्रेष्ठ पुण्यों के फलोदय से सम्पूर्ण वेद-शास्त्र के सिद्धान्तों का रहस्यरूप सत्पुरुषों का संग प्राप्त होता है । उस सत्संग से विधि तथा निषेध का ज्ञान होता है । तब सदाचार में प्रवृत्ति होती है । सदाचार से सम्पूर्ण पापों का नाश हो जाता है । पापनाश से अंतःकरण अत्यंत निर्मल हो जाता है ।
तब अंतःकरण सद्गुरु का कटाक्ष चाहता है । सद्गुरु के कृपा-कटाक्ष के लेश से ही सब सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है, सब बंधन पूर्णतः नष्ट हो जाते हैं और श्रेय के सभी विघ्न विनष्ट हो जाते हैं । सभी श्रेय (कल्याणकारी गुण) स्वतः आ जाते हैं । जैसे जन्मांद्य को रूप का ज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार गुरु के उपदेश बिना करोड़ों कल्पों में भी तत्त्व ज्ञान नहीं होता । सद्गुरु के कृपा-कटाक्ष के लेश से अविलम्ब ही तत्त्वज्ञान हो जाता है ।
जब सद्गुरु का कृपा-कटाक्ष होता है तब भगवान की कथा सुनने एवं ध्यानादि करने में श्रद्धा उत्पन्न होती है । उससे हृदय में स्थित दुर्वासना की अनादि ग्रंथि का विनाश हो जाता है । तब हृदय में स्थित सम्पूर्ण कामनाएँ विनष्ट हो जाती हैं । हृदयकमल की कर्णिका में परमात्मा आविर्भूत होते हैं । इससे भगवान विष्णु में अत्यंत दृढ़ भक्ति उत्पन्न होती है । तब विषयों के प्रति वैराग्य उदय होता है । वैराग्य से बुद्धि में विज्ञान (तत्त्वज्ञान) का प्राकट्य होता है । अभ्यास के द्वारा वह ज्ञान क्रमशः परिपक्व होता है ।
परिपक्व विज्ञान से पुरुष जीवन्मुक्त हो जाता है । सभी शुभ एवं अशुभ कर्म वासनाओं के साथ नष्ट हो जाते हैं । तब अत्यंत दृढ़, शुद्ध, सात्त्विक वासना द्वारा अतिशय भक्ति होती है । अतिशय भक्ति से सर्वमय नारायण सभी अवस्थाओं में प्रकाशित होते हैं । समस्त संसार नारायणमय प्रतीत होता है । नारायण से भिन्न कुछ नहीं है, इस बुद्धि से उपासक सर्वत्र विहार करता है ।
इस प्रकार निरंतर (सहज) समाधि की परम्परा से सब कहीं, सभी अवस्थाओं में जगदीश्वर का रूप ही प्रतीत होता है ।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 21 अंक 198
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