गौरव भक्ति

गौरव भक्ति


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

भगवान की भक्ति मुख्यतः दो तरह की होती है – गौरव भक्ति और संबंध भक्ति । वैसे भक्ति के कई अवांतर प्रकार हैं ।

हम पृथ्वी पर चलते हैं, दौड़ते हैं, कितना बढ़िया दौड़ते हैं लेकिन पृथ्वी नहीं होती तो कहाँ दौड़ते ? और पृथ्वी क्या हमारी बनायी हुई है ? उस ईश्वर ने बनायी है । तो पृथ्वी उसकी है लेकिन दौड़ने की शक्ति क्या हमारी अपनी है ? यह उसी की महिमा है ।

पृथ्वी होने पर भी पैर नहीं देता तो हम कैसे दौड़ते ? और पैर होते हुए भी बल नहीं देता तो हम कैसे दौड़ते ? अन्न उसका, मन उसका और शरीर उसका ! दौड़ते हैं तो भी उसी का गौरव है । वाह ! प्रभु वाह ! यह तेरा गौरव है । बोलते हैं तो उसी का गौरव है, खाते हैं तो उसी का गौरव है और सोते हैं तो नींद क्या हमने बनायी ?’ तूने दी प्रभुजी ! माँ के शरीर में दूध तूने बनाया…. जहाँ तहाँ भगवान का गौरव याद आ जाय !

काली-कलूटी भैंस हरी-हरी घास खाये और दूध बनाये सफेद, क्या तेरा गौरव है ! कीड़ी में तेरी चेतना छोटी और हाथी में बड़ी दिखती है । महावत में अक्ल-होशियारी दिखती है । वाह प्रभु ! क्या तेरा गौरव है !

कीड़ी में तू नानो लागे, हाथी में तू मोटो ज्यों ।

बन महावत ने माथे बैठो, हाँकनवालो तू को तू ।

ऐसा खेल रच्यो मेरे दाता, जहाँ देखूँ वहाँ तू को तू ।।

यह भगवान की गौरवमयी भक्ति है । गौरवमयी गाथा गाते-गाते, भगवान का गौरव गाते-गाते आपका हृदय भगवन्मय हो जायेगा, रसमय हो जायेगा ।

देखो न, बेटा कितना प्यारा लगता है, आहा ! पर इस प्यारे को बनाया किसने और प्यारे को आँख द्वाररा देखने की सत्ता कहाँ से आयी ? प्यारा लगता है तो इस अंतःकरण में चेतना कहाँ से आयी ? वाह प्रभु तेरा गौरव ! वाह प्यारे तेरी लीला !… देखा है फूल को पर याद करो भगवान का गौरव । बापू दिखें पर बापू में जो बापू बैठा है, वाह मेरे प्यारे ! गुरु बनकर कैसा ज्ञान दे रहा है । वाह मेरे प्रभु ! शिष्य बनकर कितनी भीड़ की है, आहाहा ! वाह प्रभु तेरा गौरव ! इस प्रकार भगवदाकार वृत्ति हो जायेगी । किसी ने अच्छी बात कही तो व्यक्ति के अंदर अच्छाई के सद्गुण की गहराई में तू है, तो भगवान की तरफ नज़र जायेगी । गहराई में तू है, तो भगवान कि तरफ नज़र जायेगी । जहाँ-तहाँ भगवान के गौरव को देखना यह है गौरव भक्ति । भगवान हमारे हैं और उनकी कैसी लीला है ! तो गौरव भक्ति से आपका अंतःकरण अहोभाव से भर जायेगा ।

भगवान के प्रति दास्य भाव, सखा भाव, अमुक भाव रखना यह संबंध भक्ति है । संबंध भक्ति आपके हृदय को, चित्त को, वृत्ति को, आपकी मति को राग से, द्वेष से हटा देगी, चिंता से, भय से, खिन्नता से हटा देगी और भगवद्रस से भर देगी ।

हरड़ लगे न फिटकरी और रंग चोखा आवे ।

संसार का मजा लेने में तो कितनी मेहनत करनी पड़ती है । आलू लाओ, बेसन लाओ और आलू-बड़ा बनाओ… ऐसा करो, ऐसा करो फिर खाओ तब जीभ को रस आया । बोलेः ‘आहा ! आलू-बड़ा खाया !’ पर थोड़ा ज्यादा खाया और पचा नहीं तो ? करते हैं- ओऽ… ओऽ…।’

यह खाने का रस आया पर उसमें भी रसो वै सः वैश्वानरो । यह चैतन्य की चेतना न हो तो ? इतनी मजूरी की पर रस तो ज्ञानस्वरूप तेरा ही गौरव है मेरे प्यारे ! मेरे कन्हैया !

एक बार योगी गोरखनाथ जी जंगल में से कहीं जा रहे थे । एक गडरिये ने कहाः “बाबा ! कहाँ जा रहे हैं ? धूप में, आओ जरा छाँव में बैठो ।”

उस गरीब गडरिये ने प्रेम से रोटी खिलायी और बोलाः “तनिक यहाँ आराम करो बाबा !”

जब गोरखनाथ जी आराम करके जाने लगे तो गडरिया बोलाः “बाबा ! मेरा कुछ करो । मैं अनपढ़, मूर्ख हूँ । मेरी भक्ति कैसे बढ़ेगी, मुक्ति कैसे होगी ?”

“मुक्ति चाहिए क्या ?…. भक्ति चाहिए ?”

“हाँ बाबा !”

“देखो, संयम से शक्ति आती है, प्रीति से भक्ति आती है और ज्ञान से मुक्ति मिलती है । शक्ति, भक्ति और मुक्ति… अब तीनों में से एक को भी पकड़ लो तो बाकी दो आ जायेंगी । चादर का कोई भी एक कोना पकड़ लो तो शेष तीनों अपने-आप हाथ में आ जायेंगे ।”

“बाबा ! मैं तो कालो अक्षर भैंस बराबर जाणूँ, न पढ़ो हूँ न पढ़ूँगो । क्या मेरी मुक्ति हो सकती है ?”

गौरखनाथ जी कहाः “हाँ, आराम से । तू ये बकरियाँ और भेड़ें चराता है न ! ये हरी-हरी, पीली-पीली घास खाती हैं और सफेद-सफेद दूध देती हैं न ?”

किसान बोलाः “हाँ ।”

“कहते रहना – वाह प्रभु ! तेरी लीला अपरंपार है । भेड़ों के ये प्यारे-प्यारे बच्चे, उनकी नन्हीं-नन्हीं आँखें, उनमें तू देखने की सत्ता देता है । कैसे तू घास में से बच्चे और दूध बना देता है ! वाह प्रभु तेरी महिमा !”

इस प्रकार गौरखनाथ जी ने उसे गौरव भक्ति का उपदेश दे दिया । अरे बाबा ! उसको तो ऐसा रंग लगा कि हर समय ‘वाह प्रभु तेरी महिमा !’ जहाँ-तहाँ प्रभु की महिमा देखे । जलाशय में जाय तो मछलियाँ नाच रही, दौड़ रही हैं… सोचे, ‘क्या महिमा है ! क्या तेरी लीला है ! वाह प्रभु तेरी लीला ! वाह प्रभु तेरी महिमा !’ उस जमाने में पान-मसाला तो था नहीं और न प्रदूषण था । दूध और रोटी खाता, कूड़-कपट से दूर रहता । थोड़े ही दिनों में उसका अंतःकरण शुद्ध हो गया और शुद्ध अंतःकरण में सामने वाले की मनोदशा का पता चलने लगता है । हर जीव में यह शक्ति छुपी है ।

एक राजा को सपना आया कि अपना खजाना भर ले । उसने मंत्री से पूछा तो मंत्री ने कहाः “यह अल्लाह-ताला ने सपना नहीं दिया है, आपकी शैतानवृत्ति का काम है ।” तो मंत्री पर गुस्सा करके राजा ने उसे राज्य से निकाल दिया । मंत्री भटकता-भटकता इसी गडरिये के पास पहुँचा ।

गडरिया बोलाः “राजा ने लात मारकर तुम्हें निकाल दिया है लेकिन उस राजा (ईश्वर) की दुनिया तो सभी के लिए है । राजा ने खजाना भरने की बात की थी और तुमने कहा था कि ‘यह भगवान नहीं कहते या अल्लाह नहीं कहते, आपकी शैतानवृत्ति है’ तो सच्ची बात उसको अच्छी नहीं लगी ।”

मंत्री बोलाः “पर तुम्हें कैसे पता चला ?”

“तुममें, हममें, सबमें, जो है वह तो एक है । वाह प्रभु तेरी लीला !”

गोरखनाथ जी ने बता दी है गौरव भक्ति…’ – ये शब्द उसके पास नहीं थे लेकिन भगवान के गौरव को बार-बार याद करने से उसका अपना अहं भगवान में विलीन हो गया था ।

मंत्री दंग रह गया और गौरव भक्ति से गौरवान्वित गडरिये की सिद्धाई का आश्चर्यजनक वृत्तांत भाव-भंगिमा सहित राजा को सविस्तार सुनाया । राजा बड़ा प्रभावित हुआ और उस गडरिये से मिलने के लिए गया ।

राजा को ज्यों-ज्यों उस संत, सज्जन गड़रिये का सत्संग और सान्निध्य मिलता गया, त्यों-त्यों उसको सहज में ईश्वरीय सुख, अल्लाही सुख की झलक मिलने लगी ।

यह गौरव भक्ति का मार्ग भी एक सरल मार्ग है । तुम बनाते-खाते, लेते-देते भगवान के गौरव का बखान करो अथवा तो भगवान के साथ हमारा संबंध है यह पक्का कर लो, उसकी स्मृति बनाओ और उसमें शांत होओ । गौरव गाओ, शांत होओ । शरीर तो मर जायेगा फिर भी आत्मा का संबंध परमात्मा से है । इस प्रकार की स्मृति से भगवान बुद्धियोग देते हैं । भगवान के साथ संबंध भक्ति करो, गौरव भक्ति करो तो आपकी स्मृति में भक्तियोग बढ़ेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 18-20 अंक 199

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