प्रश्नः पूज्य बापू जी ! मैंने ‘वासुदेव सर्वम्’ इस मंत्र को आत्मसात करने का लक्ष्य बनाया था । भले लोगों में तो वासुदेव का दर्शन संभव लगता है परंतु बुरे लोगों में, बुरी वस्तुओं में नहीं लगता तो इस हेतु क्या किया जाय ?
पूज्य बापू जीः गुरुजी वासुदेव स्वरूप हैं, श्रीकृष्ण, गायें आदि वासुदेवस्वरूप हैं – इस प्रकार की भावना तो बन सकती है परंतु जो हमारे सामने ही बदमाशी कर रहा हो उसको वासुदेव कैसे मानें ? कोई बदमाशी कर रहा है, तुम्हे ठग रहा है तो सावधान तो रहो लेकिन उसमें भी वासुदेव के स्वरूप की ही भावना करो । जैसे भगवान श्रीकृष्ण मक्खनचोरी की लीला करते थे, तब प्रभावती नामक गोपी सावधान तो रहती थी लेकिन श्रीकृष्ण को देखकर आनंदित भी होती थी कि ‘वासुदेव कैसी अठखेलियाँ कर रहा है !’ ऐसे ही यदि कोई क्रूर आदमी हो तो समझो कि ‘वासुदेव नृसिंह अवतार की लीला कर रहे हैं’ और कोई युक्ति लड़ाने वाला हो तो समझ लो कि ‘वासुदेव श्रीकृष्ण की लीला कर रहे हैं ।’ कोई एकदम गुस्सेबाज हो तो समझना, ‘वासुदेव शिव के रूप में लीला कर रहे हैं ।’ अच्छे-बुरे, सबमें वासुदेव ही लीला कर रहे हैं, इस प्रकार का भाव बना लो ।
वास्तव में तो सब वासुदेव ही हैं, भला-बुरा तो ऊपर-ऊपर से दिखता है । जैसे वास्तव में पानी है परंतु बोलते हैं कि गंदी तरंगों में पानी की भावना कैसे करें ? नाली में गंगाजल की भावना कैसे करें ? अरे, नाली का वाष्पीभूत पानी फिर गंगाजल बन जाता है और वही गंगाजल नाली में आ जाता है । ऐसे ही वासुदेव अनेक रूपों में दिखते रहते हैं ।
प्रश्नः पूज्य बापूजी ! हमारा लक्ष्य ईश्वरप्राप्ति है परंतु व्यवहार में हम यह भूल जाते हैं और भटक जाते हैं । कृप्या व्यवहार में भी अपने लक्ष्य को सदैव याद रखने की युक्ति बतायें ।
पूज्य बापू जीः कटहल की सब्जी बनाने के लिए जब उसे काटते हैं, तब पहले हाथ में तेल लगा लेते हैं ताकि उसका दूध चिपके नहीं । नहीं तो वह हाथ से उतरता नहीं है । ऐसे ही पहले भगवद्भक्ति, भगवत्पुकार, भगवज्जप, भगवद्ध्यान आदि की चिकनाहट हृदय में रगड़कर फिर संसार का व्यवहार करोगे तो संसार भी नहीं चिपकेगा और तुम्हारा काम भी हो जायेगा ।
प्रश्नः गुरुवर ! आत्मचिंतन कैसे करें ?
पूज्य बापू जीः जो लोग आत्मचिंतन नहीं करते वे सुख-दुःख में डूबकर खप जाते हैं लेकिन आत्मचिंतन करने वाले साधक तो दोनों का मजा लेते हैं । आत्मचिंतन अर्थात् जहाँ से अपना ‘मैं’ उठता है, जो सत्-चित्-आनंदस्वरूप है, जो दुःख को देखता है और सुख को जानता है वह कौन है ? ऐसा चिंतन ।
‘हानि और लाभ आ-आकर चले जाते हैं परंतु मैं कौन हूँ ? ॐॐ….’ ऐसा करके शांत हो जाओ तो भीतर से उत्तर भी आयेगा और अनुभव भी होगा कि ‘मैं इनको देखने वाला द्रष्टा, साक्षी, असंग हूँ ।’
‘विचार चन्द्रोदय, विचारसागर, श्री योगवासिष्ठ महारामायण’ इत्यादि आत्मचिंतन के ग्रंथों का अध्ययन अथवा जिनको ईश्वर की प्राप्ति हो गयी है, उन्होंने ईश्वर तथा आत्मदेव के विषय में जो कहा है वह आश्रम की ‘श्री नारायण स्तुति’ पुस्तक में संकलित किया है, उसे पढ़ते-पढ़ते शांत हो जाओ, हो गया आत्मचिंतन !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 24 अंक 199
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