अनेक विद्यालयों के सूचना-पट्ट पर ये शास्त्रवचन लिखे होते हैं –
विद्या ददाति विनयम् । विद्या विनयेन शोभते ।
अर्थात् विद्या विनय प्रदान करती है और वह विनय से ही शोभित होती है ।
वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति जीवनरूपी पाठशाला का एक विद्यार्थी ही है और वह सतत इस पाठशाला में कुछ-न-कुछ सीखता ही रहता है । इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को इस शास्त्रवचन का आदर करना चाहिए और वह वास्तविक विद्या प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए जो विनय प्रदान करे और जीवन में अर्जित ज्ञान को सुशोभित करे ।
अहंकारी व्यक्ति कितना भी विद्यावान हो, वह शोभा नहीं पाता । इसलिए वेद भी हमें आज्ञा करते हैं- पर्णाल्लघीयसी भव । ‘हे मानव पत्ते से भी हलका बन अर्थात् नम्र बन ।’ (अथर्ववेदः 10.1.29)
हमारा सबका अनुभव है कि जो नम्र बनता है, वह सभी का प्यारा हो जाता है क्योंकि नम्रता एक ऐसा सद्गुण है जो अन्य अनेक सद्गुणों और सम्पदाओं को शींच लाता है ।
शास्त्र कहते हैं-
सुशीलो भव धर्मात्मा मैत्रः प्राणिहिते रतः ।
निम्नं यथापः प्रवणाः पात्रमायान्ति सम्पदः ।।
‘हे मनुष्य ! तू सुशील, पुण्यात्मा, प्रेमी और समस्त प्राणियों का हितैषी बन क्योंकि जैसे नीचे भूमि की ओर लुढ़कता हुआ जल अपने-आप ही पात्र में आ जाता है, वैसे ही सत्पात्र, विनम्र मनुष्य के पास सम्पत्तियाँ स्वयं आ जाती हैं ।’ (विष्णु पुराणः 1.11.15)
जीवन में कोई ऊँची विद्या न हो तो भी पेट पालने की विद्या तो हर व्यक्ति के पास होती ही है । फिर ‘विद्या ददाति विनयम् ।’ सूक्ति के अनुसार विश्व के सभी लोग विनयी होने चाहिए । परंतु देखा यह जाता है कि विनय का सद्गुण बहुत ही विरलों के पास होता है । फिर क्या यह शास्त्रवचन गलत है ? नहीं । शास्त्रकार यहाँ विद्या शब्द के द्वारा आत्मविद्या की ओर संकेत करना चाहते हैं, जो हमारे तुच्छ अहं को दूर करने में सक्षम है । इसलिए हमें उसे पाने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए । भगवान श्रीकृष्ण ‘गीता’ में अर्जुन को आत्मविद्या का उपदेश दे रहे हैं और इन्हीं उपदेशों में विनम्र बनने का उपदेश भी आता है-
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।
‘उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्त्व को भली भाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे ।’ (गीताः 4.34)
भारतवर्ष के सम्राट राजा भर्तृहरि ने जब आत्मविद्या को पूर्णरूप से आत्मसात किया और आत्मानंद में निमग्न हुए, तब उन्होंने लिखाः
जब स्वच्छ सत्संग कीन्हों, तभी कछु कछु चीह्नयो ।
जब स्वच्छ सत्संग किया, तभी कुछ-कुछ जाना । क्या जाना ?
मूढ़ जान्यो आपको, हर्यो भरम ताप को ।।
मुझ बेवकूफ को पता ही नहीं था कि मैं बड़ा बेवकूफ था । अब भ्रम और ताप को मैंने मिटा दिया है ।
आत्मविद्या कितनी निरहंकारिता, कितनी विनम्रता प्रदान करती है !
वैसे तो सेल्समैनों में, वेटरों में बड़ी विनम्रता दिखती है परंतु वह ऊपर-ऊपर की है, अंदर से हृदय स्वार्थभाव से सना रहता है । वह विनम्रता भी अच्छी है परंतु सरल, निष्कपट, वास्तविक विनम्रता तो सीधे-अनसीधे अध्यात्म-विद्या का ही प्रसाद है ।
एक बार गाँधी जी एक स्थान पर वक्तव्य देने गये । वे अपने सादे वेश में थे । लोगों ने उन्हें सब्जी काटने व पानी लाने की आज्ञा दी । उन्होंने मुस्कराते हुए इन कार्यों को सम्पन्न किया ।
किसी की विनम्रता का प्रकटरूप देखना हो तो उसे पूज्य संत श्री आशाराम जी बापू के दर्शन करने चाहिए । वे अपने सत्संग-कार्यक्रम के अंतिम सत्र में हाथ जोड़कर कहा करते हैं- “सत्संग में जो अच्छा-अच्छा आपको सुनने को मिला वह तो मेरे गुरुदेव, शास्त्रों का, महापुरुषों का प्रसाद था और कहीं कुछ खारा-खट्टा आ गया हो तो उसे मेरी ओर से आया मानकर क्षमा करना ।” आत्मविद्या के सागर पूज्यश्री की यह परम विनम्रता देखकर सत्संगियों की आँखों से अश्रुधाराएँ बरसने लगती हैं ।
समुद्र में अनेक नदियाँ आकर मिलती हैं परंतु वह शांत रहता है, उसमें बाढ़ नहीं आती । आप भी गंभीर और नम्र बनो । विद्या, धन, वैभव, उच्च पदवी, मान और सम्मान पाकर फूल मत जाओ, अपनी मर्यादा से बाहर मत हो जाओ । जो वृक्ष फलों से लद जाता है वह झुक जाता है, ऐसे ही जो व्यक्ति सच्ची विद्या को पा लेता है वह विनम्र हो जाता है । जो गागर नल के नीचे झुकने को तैयार हो जाती है वही जल से पूर्ण हो जाती है । जो व्यक्ति विनम्रभाव से आत्मज्ञानी महापुरुषों के सत्संग में बैठता है वही ज्ञानसम्पन्न हो जाता है । विनम्रता से विद्या मिलती है और विद्या से पुनः विनम्रता पोषित होती है, यह नियम है । जो विनम्र है उसे न किसी से भय होता है और न पतन की चिंता । जो विनम्र है उसका सर्वत्र आदर होता है । जो अभिमानी होता है उसका सर्वत्र तिरस्कार होता है । जिसके पेट में अभिमान की हवा भरी हुई है, उसको फुटबाल की तरह ठोकरें खानी ही पड़ती हैं । विनम्र व्यक्ति लोगों से आदर-सत्कार पाता है ।
नम्रता मानव-जीवन का भूषण है । नम्रता से मनुष्य के गुण सुवासित और सुशोभित हो उठते हैं । नम्रता विद्वान की विद्वता में, धनवान के धन में, बलवान के बल मे और सुरूप के रूप में और चार चाँद लगा देती है । सच्चा बड़प्पन और सभ्यता भी नम्रता में ही है । हम किसी को छोटा न समझें ।
यजुर्वेद (18.75) में आता हैः
उत्तानहस्ता नमसोपसद्य ।
जब दूसरों से मिलें तो दोनों हाथ उठाकर नमस्ते करें ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 201
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