बुद्धियोग का आश्रय लो

बुद्धियोग का आश्रय लो


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

‘गीता’ (6.5) में भगवान कहते हैं-

उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् ।

आत्मैव ह्यतामनो बन्धुरामैव रिपुरात्मनः ।।

‘अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करें और अपने को अधोगति में न डालें क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है ।’

अगर आप इन्द्रियों को मन से और मन को बुद्धि से तथा बुद्धि को बुद्धियोग से संयत करते हैं तो आप अपने-आपके मित्र हैं । अगर बुद्धियोग नहीं है, बुद्धि दुर्बल है तो बुद्धि मन के कहने में और मन इन्द्रियों के कहने में चलने से आप न खाने जैसा खा लोगे । न भोगने की तिथि को भी पति-पत्नी के शरीर का भोग करके अपने को अकाल मृत्यु में डाल दोगे । न जाने की जगह पर भी जाकर अपना समय बरबाद कर लोगे । न सोचने के विचारों को भी सोच-सोचकर अपनी खोपड़ी खराब कर दोगे । आज विश्व-मानव की ऐसी दुर्दशा है । बहुत दुःखी है विश्व-मानव बेचारा । अगर ‘गीता’ शरण आ जाय तो उसके दुःख मिट जायें । जितनी तेजी से आप संसारी चीजों से सुखी होने की कोशिश करते हैं, उतने आप अशांत और दुःखी पाये जायेंगे, बिल्कुल पक्का गणित है । हमारे बाप-दादाओं और परदादाओं के पास इतनी सुविधाएँ नहीं थीं, जितनी आज आप लोगों के पास हैं फिर भी वे लम्बे आयुष्य के धनी थे और स्वस्थ रहते थे ।

एक राजा ने नगर के अच्छे बूढ़े-बुजुर्गों की सभा की और उनसे पूछाः “बताओ ! मेरा राज्य कैसा है ? मेरे पिता के राज्य और मेरे राज्य में क्या फर्क है ? पिता जी से पहले मेरे दादा जी का राज्य था । हमारे पूर्वज कई पीढ़ियों से इसी राज्य के राजा होते आये हैं ।”

अब कौन कहे सच्ची बात, किसकी हिम्मत चले ! उस समय जल्दबाजी से खुशामद करके वाहवाही लूटने वाले बेईमान  लोग कम थे लेकिन राजा को सच्ची बात कहेंगे तो फिर मुसीबत करेगा इसलिए सब चुप रहे । एक बूढ़ा उठा । उसने कहाः “राजन् ! आपका राज्य कैसा है, यह तो मैं नहीं कह सकता हूँ लेकिन आपके दादा जी का राज्य मैंने देखा है, आपके पिता श्री का राज्य भी मैंने देखा है और आपके राज्य में तो हम जी रहे हैं, भगवान आपका हौसला और यश बढ़ाये । मैं तीनों के राज्य में अपनी स्थिति का वर्णन कर सकता हूँ ।”

पहले उसके सिर पर हाथ घुमा दिया ताकि सच्ची बात सुन  सके । देखो बोलने की कला, बुद्धियोग कैसा है !

वह बूढ़ा वर्णन करने लगाः “एक बार मैं जंगल में था और डकैत आ गये । भगदड़ में एक युवति अपने साथियों से बिछुड़ गयी । कैसे भी जान बचाकर वह किसी गिरी-गुफा में छुप गयी । उस सजी-धजी दुल्हन को मैंने देखा और उसे अपने घर ले आया था उससे पता पूछकर उससे अभिभावकों के हवाले कर दिया । मेरी बुद्धि में भगवत्संतोष हुआ कि यह समाज एवं धर्म के अनुरूप काम हुआ है । ईश्वर की कृपा से मुझे सेवा का अवसर मिला । आपके पिता का राज्य आया तो मेरे मन में होने लगा कि ‘उस युवती के अभिभावक मुझे कुछ इनाम दे रहे थे,  और बढ़ा-चढ़ाकर ले लेता तो क्या घाटा था ?’ ऐसे मेरा मन थोड़ा पहले की अपेक्षा बुद्धियोग से नीचे गिरा । बुद्धि कमजोर हुई और मन की चालबाजी मेरे पर हावी हो गयी । अब तो मैं इन्द्रियलोलुप हो गया हूँ । मुझे लगता है कि इतनी सजी-धजी सुंदरी अपने अभिभावकों से बिछुड़ गयी थी । उसको अपनी बना लेता तो उसके गहने भी मिलते और वह सुंदरी भी मिल जाती ! अभी मेरी बुद्धि ऐसी हो गयी । अब राजन् ! मैं आपको तो कुछ कह नहीं सकता हूँ लेकिन शास्त्र तो कहता हैः यथा राजा तथा प्रजा ।”

राजा को गालियाँ भी सुना दीं और अपने सिर पर लिया नहीं ।

तो आदमी ऊँचाई से नीचे कब गिरता है ? जब बुद्धियोग का आश्रय नहीं लेता । स्वार्थरहित कर्म करना यह बुद्धियोग है व स्वार्थयुक्त कर्म बहुत तुच्छ है और बेईमानी वाले कर्म तो कर्ता को ले डूबते हैं । तो देखने, सूँघने, स्पर्श करने या काम-विकार भोगने में मन लगा तथा मन ने बुद्धि को उसमें लगाया तो आदमी तुच्छता की तरफ जाता है, नीच योनियों में जाता है । भगवान ने ‘भगवद्गीता’ के 16वें अध्याय में ऐसे लोगों पर बड़ी रहमत करते हुए उन्हें धिक्कारा है और कहा हैः ‘नराधमाः, आसुरीषु योनिषु क्षिपामि ।’ वे नराधम हैं और मूढ़ता को प्राप्त होते हैं, मैं उन्हें आसुरी योनियों में डालता हूँ । वे वृक्ष हो जाते हैं, नीच योनियों में दुःख भोगते हैं ।

जो इंद्रियों के पीछे मन को और मन के पीछे बुद्धि को लगाकर मजों के पीछे पड़ते हैं, उनका भविष्य बहुत दुःखदायी होता है लेकिन जो बुद्धि में भगवद्ज्ञान, भगवद्ध्यान और धर्म को भरते हैं, बुद्धि को पुष्ट करते हैं, उनकी बुद्धि परिणाम का विचार करने लगती है तथा मन बुद्धि के निर्णय के अधीन होकर कार्य करने लगता है और वे देर-सवेर ईश्वर को पा लेते हैं । अगर आपके जीवन में सत्संग हैं, व्रत और नियम है तो आपकी बुद्धि पुष्ट होती है ।

जितने भी दुःख हैं, जितने भी जन्म-मरण हैं वे बुद्धि की कमजोरी से हैं । अतः बुद्धि को पुष्ट करने के लिए एक सुंदर उपाय है । पलाश के पत्ते, बेल के पत्ते, मिश्री और घी मिश्रित करके उसका हवन करें तथा उसके धूप में प्राणायाम करके बुद्धिवर्धक मंत्र अथवा भगवन्नाम जपें तो बुद्धि में बल आ जायेगा, स्मृतिशक्ति बढ़ेगी । आजकल इन्हीं चीजों से निवाई गौशाला मे बनायी गयी धूपबत्ती समितियों से लेके उसका उपयोग करें ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 201

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