उत्तम साधन

उत्तम साधन


(बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

जब सब ब्रह्म है तो आप पूछोगे कि ‘कृष्ण के साकार रूप की उपासना करें कि निराकार की करें ? वह घोड़े की बागडोर लिये हुए काला-कलूटा कृष्ण-कन्हैया बैठा है, उसको ही भगवान मानें कि उसके अंदर जो आत्मा है उसको भगवान मानें ?’

भाई ! जिसमें तेरी प्रीति हो । तेरे पास गोपी और ग्वाल का हृदय है तो बाल-गोपाल मान ले अथवा मुरलीधर या गीतागायक आचार्य महोदय श्रीकृष्ण मान ले ।

‘आहा ! कृष्ण कन्हैया !…’ तो कन्हैयाकार, कृष्णाकार वृत्ति होगी और जगदाकार वृत्ति टूट जायेगी । इस वृत्ति में आनंद आने लगेगा, तुम अंतर्मुख होने लगोगे, धीरे-धीरे निराकार भी छलकने लगेगा, एक ही बात है ।

अर्जुन का प्रश्न थाः ‘जो भक्त निरंतर आपकी उपासना करते हैं और जो अक्षर अव्यक्त की उपासना करते हैं, उन दोनों में उत्तम योगवेत्ता कौन है ?’

भगवान का जवाब थाः ‘जो परम श्रद्धालु नित्ययुक्त रहकर मुझ में अपना मन आविष्ट कर देते हैं और मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे मत में उत्तम योगवेत्ता है ।’

महाराज ! आप साइकिल पर जा रहे हो तो 15 कि. मी. प्रति घंटा की रफ्तार बहुत उत्तम है, कार में जा रहे हो तो 60 कि. मी. की रफ्तार उत्तम है और जहाज में जा रहे हैं तो कम-से-कम 250 की रफ्तार उत्तम है और यदि पैदल ही जा रहे हैं तो आपकी 5 कि.मी. की रफ्तार उत्तम है । आप कौन से साधन से जा रहे हैं ?

आपके पास चित्त, वातावरण, समझ – जो है पर्याप्त है । धन्ना जाट जैसा आदमी भी तो प्रभु को मिल सकता है, शबरी भीलन जैसी भी तो मिल सकती है, गोरा कुम्हार भी तो मुलाकात कर सकता है । ध्रुव का ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ साधन था धन्ना जाट का ‘नहा के नहलइयो, खिलाकर खइयो ।’ ‘अब तू खाता नहीं ? आता है कि नहीं आता है, आता है कि नहीं आता है….’ –यह साधन था, लो । तुम ऐसा करोगे तो मजा नहीं आयेगा ।

शबरी का ऐसा चिंतन था कि बाहर की भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी उसको कोई असर नहीं करती क्योंकि सतत चिंतन में ऐसी हो गयी थी कि बाहर की कोई भी प्रतिकूलता, राग-द्वेष का प्रसंग उसके चित्त को बाहर नहीं लाता । उसके लिए यह साधन उत्तम है लेकिन आप यदि शबरी की नकल करने बैठोगे तो मजा नहीं आयेगा । आप श्रीकृष्ण का चिंतन करते हैं कीजिये, अल्लाह का करते हैं कीजिये, झूलेलाल का करते हैं कीजिये और यदि आपके सद्गुरु उपलब्ध हैं, आपके पास बुद्धि उपलब्ध है, आपके पास श्रद्धा उपलब्ध है, आपके पास पुण्य है तो आप चिंतन कीजिये – ‘सच्चिदानंदोऽहम्, शिवोऽहम्, आनन्दस्वरूपोऽहम्… गुरु होकर उपदेश दे रहा हूँ । आहाहा ! शिष्य होकर सुन रहा हूँ । वाह ! वाह !! वाह !!!…. सब मेरे अनेक रूप हैं । कृष्ण होकर मैं आया था, बुद्ध होकर आया, महावीर होकर आया, माई होकर आया, भाई होकर आया… यह शरीर कट जाय, मर जाय फिर भी मेरा नाश नहीं होता क्योंकि अनंत-अनंत शरीरों में मैं हूँ ।’ वाह, क्या मजा है ! असत्, जड़, दुःख के चिंतन से बचने के लिए आप अपने सत्, चित्, आनन्द स्वभाव का, परमात्म स्वभाव का चिंतन करते हुए निश्चिंत नारायण से एकाकार होइये । ब्रह्माकार वृत्ति से आवरण भंग करके ब्रह्मस्वरूप हो जाइये, अपने ब्रह्मस्वभाव को पाइये ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 26 अंक 203

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