शिष्य की कसौटी, सत्ता और बलवन्द का अहम…(भाग-2)

शिष्य की कसौटी, सत्ता और बलवन्द का अहम…(भाग-2)


कल हमने पढ़ा कि बहन की शादी के लिए सत्ता और बलवन्द ने गुरु से धन राशि मांगी। गुरु द्वारा पर्याप्त धन न मिलने पर दोनों भाइयों ने अपना मन खराब करना शुरू किया।

सत्ता कहता है कि- मैं तो कोस रहा हूँ उस दिन को जब हम गुरु के चाकर बने कहाँ फंस गए यहां ? अगर संसार मे कहीं गाते तो राजाओं जैसे ठाठ होते, नौकर होते, हवेलिया होती और पता नही क्या-क्या होता हमारे पास।

लावा भी एक समय के बाद आग उगलनी बन्द कर देता है लेकिन इन दोनों ने तो वह हद भी पार कर दी एक के बाद एक पलटने खाते हुए दोनों भाई पतन की खाई में गिरते जा रहे थे। उन्हें कोई रोकने वाला नही था, कोई रोकता भी कैसे ? जब उन्होंने खुद ही गिरने की ठान ली थी। अब यदि कोई रोगी खुद ही अपने जख्म पर खुजली करनी न छोड़े तो डॉक्टर या दवाई क्या करेगी ? बात तो तब और बिगड़ जाती है जब रोगी को खूजलाने में मज़ा आने लगे तब तो इलाज मुश्किल ही नही असम्भव हो जाता है।

सत्ता और बलवन्द को भी गुरु निंदा की खुजली में चैन मिल रहा था अंततः उनका दुर्भाग्य कि उन्होंने एक दुःसाहसिक फैसला किया सत्ता ने कहा- बलवन्द ठीक है फिर हम भी दिखा देंगे कि हम क्या हैं, कल से दरबार मे गाना बन्द, देखते है कितने लोग आते हैं वहाँ ? हमारे शब्द सुनने के लिए ही तो संगत जुटती थी अब जब दरबार की शोभा ही न रहेगी तो लोग आकर क्या करेंगे और तब गुरुजी को हमारी कीमत जान पड़ेगी।

सत्ता और बलवन्द की दुर्बुद्धि क्या अनाप शनाप सोच रही थी उन्हें ज़रा भी आभास नही रहा कि जिस गुरु ने उन्हें उंगली पकड़कर चलना सिखाया आज उन्ही पर वे उंगलिया उठा रहे थे जिस गुरु ने उनके गले मे मीठे स्वर भरे उसी को वे कड़वे उल्हाने दे रहे थे।

दोनों भाइयों की पूरी रात करवटे लेते हुए बीत गई जिन आंखों में सुंदर स्वप्न सजा करते थे वे अनिद्रा की शिकार रहे। इस दौरान जुबान बेशक बन्द रहे लेकिन मन का पाप करना जारी रहा कुछ ही घण्टो के बाद सुबह हो गई पहले से बिल्कुल अलग रंग विहीन सुबह, मातमी विरानगी की चादर ओढ़े, आज न उनके आंगन में पक्षी चहचहाये न ही ठंडी पवन बही उन दोनों ने भी न तो रोज की तरह सुबह सुमिरन साधना की और न ही संगीत का रियाज किया।

उधर गुरु दरबार मे निश्चित समय मे संगत जुड़नी शुरू हो गई सबको इन्तेज़ार था कि सत्ता और बलवन्द आएं और उनको भाव विह्वल कर देने वाले शब्द सुनाएं। लेकिन जब 20 – 25 मिनट बीतने पर भी संगत ने सत्ता बलवन्द को गैरहाजिर पाया तो गुरुदेव के समक्ष उत्सुकता जाहिर की। गुरुदेव ने थोड़ा और इन्तज़ार करने को कहा। जब करीब 1 घण्टा होने को आया तो गुरु जी ने आदेश दिया- दो सेवादार जाएं और उन्हें घर से बुला लाएं। गुरुआज्ञा पाकर 2 सेवादार तुरन्त उनके घर की ओर रवाना हुए वहां पहुंचकर जब दरवाजा खटखटाया तब जो घटा उसकी उन्होंने कल्पना भी नही की।

दरवाजा तपाक से खुला सत्ता बलवन्द ने लाल आंखों से गुरु सिक्खों को घूरा उन्हें अंदर बुलाना तो दूर की बात उनकी दुआ सलाम का जवाब भी नही दिया और गरजते हुए बोले- क्यों आये हो यहां, किसने भेजा है तुम्हे ?

सेवादार बेचारे सहम गए क्योंकि वे सारे घटना कर्म से अनजान थे डरते-डरते बोले आपको गुरुमहाराज जी ने याद फ़रमाया है।

सत्ता बलवन्द के अहंकार की अग्नि को जैसे घी मिल गया वे तुरन्त बोले- क्यों ? एक ही दिन में अक्ल ठिकाने आ गई तुम्हारे गुरु की, जाओ कह दो उन्हें जाकर कि अब हम नही आएंगे वहां। ढूंढ सकते है तो ढूंढ ले वे कोई नए सत्ता और बलवन्द को.. इतना कहकर उन्होंने सेवादारों के मुंह पर दरवाजा बंद कर दिया सेवादार रुआंसे से हो वापस गुरुदरबार पहुंचे।

हूबहु सारी घटना गुरुजी को सुनाई। गुरुजी एकपल के लिए गम्भीर हो गए लेकिन दया के सागर दूसरे ही पल मुस्कुरा पड़े और बोले अरे कोई बात नही आ जायेंगे। उस एक पल की गम्भीरता कोई साधारण न थी गुरुदेव साफ देख रहे थे उनके शिष्य पतन के दलदल में धँसे जा रहे है इस कारण वे चिंतातुर हो उठे हालांकि वे सुख दुख से परे है आनंद के स्रोत है लेकिन फिर भी इसपल दुखी हो उठे क्योंकि वे शिष्य अपने ही तो है, क्योंकि गुरु सब खत्म होते देख सकते हैं भारी से भारी नुकसान सहन कर सकते हैं लेकिन अपने शिष्य का पतन उन्हें भी व्यथित कर देता है। दूसरे ही पल उन्होंने अपने दुख को छिपा लिया सोचा कि कहीं मुझे चिंतित देख संगत का हौसला न गिर जाए। जैसे एक माँ को असहनीय दर्द हो रोना निकलने को होता है वह बच्चे के आगे नही रोती क्योंकि अगर माँ रो देगी तो बच्चा भी रोने लगेगा घबरा जाएगा।

गुरुजी ने तब अपने एक और श्रेष्ठ काबिल और जिम्मेदार शिष्य को उठाया कहा- जाओ भाई गुरुदास बिना विलम्ब किये सत्ता और बलवन्द को ससम्मान ले आओ। भाई गुरुदास जी गुरुवर के खजाने के रत्न थे लेकिन किसी को क्या पता था कि यहां उनका मूल्य भी कौड़ी के बराबर पड़ेगा। भाई गुरुदास जी जैसे कवावर शिष्य को अपनी दहलीज पर आया देखकर सत्ता और बलवन्द का अहंकार सातवे आसमान पर पहुंच गया उनके भौवे और चढ़ गई। भाई गुरुदास अपनी हर सम्भव कोशिश में असफल हो वापस गुरुदरबार लौट आये। गुरुदेव चुप और संगत भी चुप बिल्कुल सन्नाटा छा गया सबके मन मे चल रहा था कि गुरुवर सत्ता और बलवन्द को अब उनकी गुस्ताखी का दण्ड अवश्य देंगे। अचानक गुरुजी आसन से खड़े हुए सबलोग एकबार के लिए सहम गए शायद गुरुदेव क्रोधित होकर श्राप देंगे यही कल्पना सबकी थी लेकिन यह क्या गुरुदेव के वाक्य तो शीतल निकले झरने के समान श्राप की जगह वे तो वरदान देने को आतुर थे शमा के लाखों दियों से सत्ता बलवन्द की किश्मत चमक उठी।

गुरुदेव कृपामयी शब्दो में बोले कि- आप घबराए नही हमखुद जाएंगे सत्ता और बलवन्द को मनाने इतना सुनना था कि सबकी आंखे छलक पड़ी भावनाओ की समुद्र में एक-एक हॄदय बहने लगा और सारा दरबार जयघोष के स्वर से गूंज उठा। देवता भी धन्य-धन्य कर उठे। हो भी क्यों न आज एक सूरज जुगनू को मनाने चल पड़ा, एक समुद्र बून्द से पानी उधार मांगने को आतुर था। गुरुमहाराज जी सभी शिष्यो सहित सत्ता और बलवन्द के घर की तरफ कुच किये। पूरा रास्ता भक्तो के लश्कर से सज गया जयघोष के नाद से धरती गगन निनालित हो उठे यहां एक कुपथि शिष्य की रुसवाई हरने स्वयं गुरुदेव उनके घर जा रहे हैं। यह प्रकृति के बिल्कुल विपरीत हो रहा था पहली बार कुआँ चलकर प्यासे के पास जा रहा था यही भाव लेकर कि ए पगले मुसाफिर ! अगर तू मुझे छोड़कर चला गया तो भला कौन तेरी पिपासा शांत करेगा, कौन तेरी व्याकुलता हरेगा ? ठीक है मैं छोटी सी तो शर्त रखता हूं कि पानी के लिए तुझे थोड़ा झुकना पड़ेगा दोनों हाथ जोड़कर अंजुली बनानी पड़ेगी, क्या तू इतना भी नही कर सकता ? अरे झुकने से तू ही तो प्राप्त कर रहा तेरी ही हर रग ताजगी से भर रही है मुझे भला इसमे क्या मिलना है ?

थोड़ी ही देर बाद गुरुदेव के पवित्र चरण सत्ता बलवन्द की दहलीज पर आकर थम गये संगत की जयघोष ने घर के अंदर बैठे सत्ता बलवन्द को चौकन्ना कर दिया।

गुरु की कॄपा देखिए वैसे तो घर के बाहर भिखारी रुकते है और दहलीज के अंदर मालिक लेकिन शिष्य को मनाने के लिए वह जगत दाता आज स्वयं भिखारियों के स्थान पर फरियादी की भांति खड़ा था और असल भिखारियों को दाता के स्थान पर बिठा रखा था। दुनिया को गुरु के रूठने का भय होता है लेकिन यहां गुरु को शिष्य के रूठने पर चिंता हो रही है तभी गुरुदेव ने अपनी नरम उंगलियों से कठोर दरवाजे पर एक दस्तक दी और सत्ता बलवन्द को आवाज लगाई.. हालांकि उन दोनो को ऐसे आना चाहिए था जैसे बछड़ा अपनी माता की पहली आवाज पर ही दौड़ा चला आता है लेकिन अफसोस ऐसा कोई प्रतिक्रिया नही हुई अंदर श्मशान सा सन्नाटा पसरा रहा। गुरुदेव ने दूसरी आवाज दी, इस बार भी दरवाजा नही खुला लेकिन सत्ता बलवन्द के मन की नफरत बुड़बुड़ाते हुए मुख से बाहर निकल आई।

गुरुवर ने फिर तीसरी बार आवाज दी, अब की बार सत्ता बलवन्द दरवाजा खोलकर कुछ ऐसे बाहर आये जैसे पानी बांध को तोड़कर निकलता है। न कोई सिजदा, न सलीका, न अदब और न झुकी नज़रे, सत्ता बलवन्द के सारे आत्मिक श्रृंगार कोयला बन चुके थे। जो सिर गुरुवर को देखते ही श्री चरणों मे गिर जाया करते थे वे सुखी लकड़ी की तरह अकड़े रहे। सत्ता ने छूटते ही एक अभद्र वाक्य बोला- क्यो महराज अब क्या करने आये हो यहाँ ?

गुरुवर शांत सागर की तरह सत्ता की तरफ देखकर मुस्कुराते रहे। बलवन्द ने भी सत्ता के सुर में सुर मिलाते हुए बदमिजाजी में दो कदम और बढ़ा दिए, जाओ महराज जाओ अब हम नही कदम रखेंगे वहां ढूंढ लो और कोई गवैया अगर ढूंढ सकते हो तो।

गुरुवर मधुपगे शब्द में बोले- अरे पगलो ! मुझे संसार के तानसेनो से क्या वास्ता ? भला घर मे शहद हो और मैं बाहर गुड़ मांगने जाऊ यह कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? चलो सब तुम्हारा इन्तज़ार कर रहे हैं जाकर दोनों भाई अपनी सेवा सम्भालो।

तभी सत्ता बोला- सुनो महराज ! हम कहीं नही जाने वाले और हां! इस भ्रम को मत पालना कि तुमसे टूटकर हम बर्बाद हो जाएंगे तुम तो अपनी सोचो हम भी देखते हैं हमारे संगीत कौशल के बिना तुम्हारे दरबार मे संगत कैसे जुड़ती है।

आगे की कहानी कल की पोस्ट में दी जाएगी….

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