भाई लद्धा की गुरूभक्ति व सत्ता और बलवन्द अहंकार …….(भाग-3)

भाई लद्धा की गुरूभक्ति व सत्ता और बलवन्द अहंकार …….(भाग-3)


अब तक हमने पढ़ा कि गुरु अर्जुनदेव जी के दरबार के दो गवैया सत्ता और बलवन्द उन्हें अपने हुनर पर योग्यता पर बड़ा अभिमान था और उनकी इच्छा अनुसार उन्हें उनकी बहन की शादी धूमधाम से करवानी थी उनकी इच्छा गुरु द्वारा पूर्ण न होने पर अपने अभिमान के वशीभूत होकर उन्होंने गुरुदरबार छोड़ने का निश्चय कर लिया। करुणावत्सल गुरुदेव उन्हें समझाने आज उनके द्वार पर आकर खड़े हैं।

सत्ता ने कहा सुनो महराज हम तुम्हारे दरबार मे वापस नही जाने वाले और हां इस भ्रांति को मत पालना कि तुमसे टूटकर हम बर्बाद हो जाएंगे तुम तो अपनी सोचो अपनी हम भी देखते है हमारी संगीत कुशल के बिना तुम्हारे दरबार मे संगत कैसे जुड़ती है।

सत्ता और बलवन्द मर्यादा की हदों को बड़ी बेशर्मी से भय मुक्त होकर तोड़ रहे थे वे अपने आपको गुरुदरबार का कर्णधार समझने की अक्षम्य भूल कर रहे थे जैसे एक तारा आसमान को आंखे दिखाए और कहे कि ए आसमान मैने तेरा साथ छोड़ दिया है अब देखता हूं कि तेरा साम्राज्य कैसे रौशन होता है लेकिन मूढ़ तारा यह नही जानता कि आसमान के पास तो उससे भी बेहतर असंख्य अनंत तारे है भला वह उसके टूटने बिखरने पर क्यों ध्यान दे उसके चले जाने से आसमान पर कोई फर्क नही पड़ने वाला। हां तारा आसमान से टूटने के बाद जरूर टूटा तारा के नाम से बदनाम होगा। तुच्छ सी चमक बिखेरने के बाद वही कहीं अन्धेरे मे गुम हो जाएगा।

सत्ता और बलवन्द कि स्थिति भी कुछ ऐसी थी। बलवन्द ने कहा हम ही थे महराज जिनके दम पर आपकी ख्याति थी हमारे स्तम्भ तले ही आपकी छत टिकी हुई थी आपकी गुरुगद्दी यहां तक पहुँचाने में भी हमारा और हमारे पूर्वजों का हाथ है। भला जो आपके पहले गुरु हो गए उनको कौन जानता था ? यह तो हमारे पूर्वज मर्दाना जी के सारंगी के धुन का कमाल था जो लोग उनसे जुड़ने लगे वरना दो दाने अन्न के भी नसीब न होते उन्हें।

गुरुअर्जुनदेव जी अब तक अपना और अपने शिष्यों का अपमान बड़ी बेफिक्री से सहन कर रहे थे परंतु इन कटु शब्दो ने उन्हें भीतर तक आहत कर दिया उनके सब्र का बाँध टूट गया। श्री गुरु नानक देव जी के प्रति उगले जहर को वे बर्दाश्त न कर पाए शांत चेहरे की सौम्यता क्रोध में तब्दील हो गई। कोमल हृदय की निर्मल भावनाये उग्र हो उठी आंखे उन दोनों के अविश्वसनीय व्यवहार के आगे बन्द हो गई और कह उठे बस, बस अब और नही अरे तुम तो बिल्कुल ही बेराह हो गए हो जाओ गुरुओं को अपमानित करने वालो अब तुम्हे कहीं इज्जत नही मिलेगी मैंने तो तुम्हे उठाकर पहाड़ की चोटी पर बिठाया था परन्तु अफसोस तुम अपनी कूदने की आदत न छोड़ पाए और पतन की खाई में जा गिरे अब यहां से तुम्हे कोई नही निकाल सकता।

सुनो नगरवासियों अगर किसी ने इनकी ओर से मुझसे क्षमा मांगी या भविष्य में इनकी पैरवी करने की कोशिश भी की तो उसे नज़र किया जाएगा। नजर एक सजा है जिसमे अपराधी का मुंह काला करके गले मे ढोल डालकर गधे पर घुमाया जाता है तो अगर किसी ने इनकी ओर से मुझसे क्षमा मांगी या भविष्य में इनकी पैरवी करने की कोशिश भी की तो उसे नसर की सजा दी जाएगी इतना कहकर गुरुमहाराज जी वापस दरबार की तरफ लौट आये आज पहली बार गुरुमहाराज जी के चेहरे पर संगत ने क्रोध की ऐसी लकीरे देखी थी जिस गुरुदरबार में सिर्फ रहमते और वरदान ही लुटाये जाते हैं वहाँ से शाप मिलता पहली बार दुनिया ने देखा था लेकिन कभी कभी ऐसा भी होता है कि कुँए से सब अपनी पिपासा शांत नही कर पाते कई उसमे डूब कर मर भी जाते हैं चूल्हे पर सब गृहणियां रोटी नही बना लेती कुछ अपने हाथ भी जला बैठती है।

बस सत्ता और बलवन्द इसी दूसरे किस्म के थे गुरुमहाराज जी ने दरबार मे पहुंचकर काफी देर तक किसी से कोई बात नही की चुपचाप आसन पर बैठे रहे उनकी आंखों की पुतलियाँ हिरन की भांति सब शिष्यो पर दौड़ रही थी अचानक ये नज़रें कहीं अटक गई।

झाड़ू पोंछा लगाने वाले एक अदने से शिष्य ने जब गुरुमहाराज जी की दृष्टि को अपनी ऊपर गड़ी देखा तो वह सहम गया उसके दिल की धड़कनें तेज हो गई शरीर सिकुड़ने लगा मानो धरती में ही समा जाना चाहता हो किसी से पूछ भी नही सका आख़िर गुरुजी मेरी तरफ क्यों देख रहे हैं । तभी गुरुमहाराज जी बोले उठो शिष्य की कपकपी छूट गई उठो और यहां आओ जी मैं लड़खड़ाती जुबान में च इतना ही बोल पाया संगत भी कभी उस शिष्य को तो कभी गुरुमहाराज जी को सवालिया दृष्टि से निहारने लगी जिस प्रकार शेर एक लोमड़ी का शिकार करने के बाद दूसरे शिकार की तलाश में निकल पड़ता है गुरुजी भी और शिष्यो पर नज़र विहार करने लगी जिस जिस ओर नज़र जाती वहां वहां सब दुबक जाते हर पीछे वाला अपने आगे वाले गुरुभाई की पीठ के पीछे ऐसे अपने आपको समेटता जैसे कछुआ किसी खतरे के आभास पर अपने अंगों को समेटता लेकिन गुरूमहाराजजी ने तीन और शिष्यो को ऐसे ही खड़ा किया कोई नही जानता था कि अब क्या होगा थोड़ी देर बाद गुरुमहाराज जी गम्भीरता की गुफा से निकले और एक रूहानी मुस्कुराहट की छटा बिखरते हुए बोले कि आज के बाद तुमलोग सत्ता और बलवन्द की जगह गाओगे और कल से नही बल्कि आज और अभी से गाओगे। आओ यहां पर, इतना सुनते ही पूरा प्रांगण जयघोष के बुलन्द स्वर से गूंज उठा बुजुर्ग भी बच्चों की तरह तालिया बजा उठे लेकिन उन चारों के आंखों में पानी छा गया। वे हैरान स्तब्ध से गुरु को निहारने लगे।

गुरुजी कैसी लीला कर रहे हैं । क्या वाकई मे ऐसा हो सकेगा? जिन हाथो ने आज तक झाडू पोछे मारे है। हसीये और कुल्हाड़ीया चलाई है क्या वे हारमोनियम चला पायेंगे। जो गले केवल अल्लङ शब्द बोलना जानते है। क्या वे सुन्दर राग अलाप सकेंगे? कई प्रश्न उनके अंदर करवटे लेने लगे। लेकिन अगले ही पल इनके प्रश्नो को दरकिनार कर गुरू आदेश को अपने सिर माथे ले वे चारो शिष्य मंच पर आसीन हो गये।

संगत भी सामने दरियों पर अविश्वसनीय घटना देखने के लिए बैठ गयी। उन चारो ने कुछ क्षण आंखे बंद कर मूक भाषा मे गुरु से प्रार्थना की। कि हे करूणानिधान आप ही सर्व गुणो के ज्ञाता है। आप ही सभी योग्यताए प्रदान करने वाले हैं। एकाएक उनके चेहरे पर एक अजीब सी संजीदगी छा गयी। आंखे खोलने पर ऐसा लगा ही नही कि पहली बार संगत का सामना कर रहे है। एक के बाद एक चारो ने साज हाथो मे उठाया उसके बाद जो वाक्या घटा वह आलौकिक था। हम सभी ने स्वयं अपने जीवन मे देखा है और हमारे कई गुरु भाइयो का अनुभव भी है कि जिन्होंने सेवा के क्षेत्र मे जो कार्य पहले कभी किसी ने नही किया और यदि उसमे हमारे पूज्य बापूजी की भी आज्ञा हो जाती है तो उस कार्य मे हमारी योग्यता का अद्भुत निखार होता है। उस सेवा मे दैविक निखार होता है। सदगुरु की आज्ञा का बङा ही महत्त्व है। सदगुरु वो हस्ती होते है जो पाढ़े को कह दे कि चल वेद पढ़ना शुरू कर तो पाढ़ा भी वेद की ऋचाएं पढ़ना शुरू कर देता है इसलिए हमे अपनी योग्यताओ का अभिमान नही बल्कि गुरु की कृपा और उनकी सेवा का अनुरागी बनना चाहिए। तानपूरे पर ताने छिङी, तबले पर थाप पङी और कंठो से राग वे भी ऐसे जैसे तानसेन जिंदा हो उठा हो।

साक्षात सरस्वती गले मे उतर आई हो। देखते ही देखते पूरा माहौल संगीतमय हो गया संगत झूम उठी पैरो की तलियो और चुटकीया उनको साथ देने लगी। साथ ही साथ सभी विस्मित थे। हो भी क्यो ना। आज गुरूदेव चिङियो से बाज का शिकार करवा रहे थे।

खरगोश शेर की चाल चल रहा था। पोखर समुद्र की तरह हिलोरे ले रहा था अंततः इस दिव्य सभा को गुरूदेव की आज्ञा पर समाप्त किया गया। सब लोग गुरु सत्ता की महिमा बुनते हुए अपने अपने घरो को चले गए।

उधर सत्ता और बलवन्द की जिन्दगी मे मानो गृहण लग गया। गुरु के ठुकराये हुए पर सबकी ठोकरे पङने लगी जो लोग उन्हे गुरु भाई कहकर सम्मान देते थे। अब बेमुख देकर अपमानित करने लगे। एक होता है गुरमुख और एक बेमुख। लोग उन्हे बेमुख कहकर अपमानित करने लगे जो उनको देखकर ही इज्जत से झुक जाया करते थे वे ही अब नफरत उगलने लगे सभी ने उसने संबंध विच्छेद कर दिया। जिस प्रकार भरे मेले मे भी एक अंधा व्यक्ति अपने आपको अकेला ही पाता है। ठीक उसी तरह सत्ता और बलवन्द भी भरे नगर मे तन्हा होकर रह गये यही नही धीरे-धीरे उनका शरीर फटकर चिथङो की शक्ल इख्तियार करने लगा वे भयंकर कोङ से गृस्त हो गये। जिन शरीरो से कभी इत्र, चंदन की खुश्बू आया करती थी उन्ही से बदबू आने लगी। घर वालो ने उन्हे घर से बाहर कर दिया जिन सगो के लिए उन्होंने गुरु से बैर किया वही बेगाने हो गये।

अब सत्ता और बलवन्द के लिए सभी के दरवाजे बंद थे। होते भी कैसे ना जो मां की गोद को ठुकरा दे फिर उसे पालना भी नसीब नही होता। सत्ता और बलवन्द का एक-एक पल सदी जैसा लंबा हो चला हर सांस अंदर जाकर ऐसे पीङा मचाती। जैसे किसी ने कंटीली तार अंदर डालकर फिर खीच निकाला हो वे दिन रात तङपते हर पल अपने किये पर पछताते यूं ही रोते पछताते कई महिने बीत गये। एक दिन उनकी पतझड़ भरी जिंदगी मे फिर से बसंत ने दस्तक दी।

आगे की कहानी कल की पोस्ट में दी जाएगी….

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