(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)
आपके चेतन में, आपकी कल्पनाओं में बड़ी अद्भुत शक्ति है । आप जैसी कल्पना करते हैं ऐसा प्रतीत होता है, जैसा आप सोचते हैं वैसा दिखने लगता है । शरीर अनित्य है, मन परिवर्तनशील है और आप नित्य हैं लेकिन जब आप शरीर की उपाधि अपने में आरोपित कर देते हैं और ‘मैं बीमार हूँ, मैं कमजोर हूँ…. मुझे किसी ने कुछ कर दिया है….’ यह स्वीकार कर लेते हैं, तो किसी ने कुछ किया हो या न किया हो लेकिन आपने मान लिया तो फिर कोई कितना समझाये लेकिन आपकी मान्यता के कारण नब्बे प्रतिशत वही भास होगा जो आपने मान लिया है । ‘मेरे को दुश्मन ने कुछ कर दिया है’, ऐसा सोचते हैं तो मन उसी प्रकार का दुःख बना लेता है । यह वहम की जो मुसीबत है न, वह किसी वैद्य से, किसी डॉक्टर से तो क्या, किसी गुरु से भी नहीं निकलती !
अपना वास्तविक ‘मैं’ नित्य है, विकार अनित्य है लेकिन मन में यह घुस गया है कि ‘मैं विकारी हूँ’ तो अनित्य विकार भी नित्य जैसे लगते हैं । गहराई में अगर कोई वहम घुस जाता है तो उसको निकालना बड़ा कठिन हो जाता है । बीमारी तो निकाल सकते हैं क्योंकि बीमारी शरीर में है लेकिन वहम मन में होता है । जब तक मन का वहम स्वयं नहीं निकालते तब तक हकीम, डॉक्टर, गुरु मिलकर भी हमारा वहम नहीं निकाल सकते, हमें ठीक नहीं कर सकते । अपनी मान्यता आप नहीं छोड़ेंगे तब तक कोई नहीं छुड़ा सकता । जब तक आप नहीं सोचते हैं कि यह तो ‘भाई ! शरीर का है… मन का है… चलता है’, तब तक आपका वहम कोई नहीं निकाल सकता है । आपने वहम छोड़ दिया तो बस दूर हो गया !
ऐसे ही दोष तो निर्जीव हैं लेकिन ‘मेरे में दोष हैं’ ऐसा मान लिया तो उनको बल दे दिया, फिर दोष मिटाने लगेंगे तो और मजबूत होंगे, दोष के अनुसार करेंगे तो भी आप दोषी हो जायेंगे, जब उनकी उपेक्षा करेंगे तो दोष हैं ही नहीं !
जैसे कुशवारी आप जाला बना के उसी में फँस मरती है, ऐस ही कभी-कभी भोले आदमी अपनी ही कल्पनाओं के जाल में बुरी तरह फँस जाते हैं । जब तक अपनी कल्पना से आप कल्पना नहीं काटते, तब तक दूसरा कोई काट भी नहीं सकता, आपने अपने-आप में जो विचार भर दिया है, वह आप नहीं छोड़ेंगे तो दूसरा कोई भी छुड़ा नहीं सकता । जैसे कन्या ने मान लिया कि मैंने फेरे फिर लिये, मैं फलाने की पत्नी हूँ ।’ अब लाख उपाय करो उसे समझाने के कि तू फलाने की पत्नी नहीं है, तो भी बोलेगीः ‘क्या बोलते हो !’ मन में घुस गया कि ‘मैं फलाने की पत्नी हूँ, मैं फलाने का पति हूँ, मैं फलानि जाति का हूँ….’ मन में घुसेड़ दिया न ! वास्तव में देखो तो जात-पात कहाँ है ? कल्पना ही तो है ! तो हमने अपने में जो भर दिया, वह हम नहीं हटाते तब तक हटता नहीं ।
जैसे आसुमल, भूरो, भगवान जी, भगवान, प्रभु जी, आसाराम, बापू जी…. जैसा-जैसा लोगों ने बोला, हम भी बोलेः ठीक है । तो कोई इस नाम के लिए निंदो, चाहे वंदो… कुछ भी नहीं, सब काल्पनिक है, तो हमें तो मौज है लेकिन मैं मान लूँ कि ‘मेरा नाम ही आसाराम है, मैं ही आसाराम हूँ, मैं ही बापू जी हूँ….’ फिर उसकी वाहवाही में तो फूलूँ और निंदा में सिकुड़के दुःखी होऊँ । नहीं-नहीं, गुरु जी ने मुझे इस वहम से पार कर दिया । मुझे पता है कि यह तो रखा हुआ नाम है, थोपा हुआ है । ऐसे ज्ञान से ही कल्पनाएँ कटती हैं ।
दुःख की, सुख की कल्पनाएँ हो-हो के बदल जाती हैं, हम नित्य हैं । नित्य को अनित्य क्या करेगा ? अमर को मरने वाला क्या करेगा ? फिर भी डर-डर के परेशान हो रहे हैं- ‘मेरे से यह गलती हो गयी, मेरे से यह हो गया, मेरे से वह हो गया, मेरे को नींद नहीं आती….’ नहीं आये तो नहीं आये । ‘नींद नहीं आती, नहीं आती….’ थोड़ी नींद कम आयी तो उतनी देर भगवान का नाम ले । कल्पनाओं का जाल बुनकर अपने को फँसाओ मत, सताओ मत, नींद आने का मंत्र जान लो बस ! और लोगों की कल्पानाएँ – लोग यह कहेंगे, वह कहेंगे…. उनकी कल्पनाओं में भी उलझो मत । सब बीत रहा है, बीतता जायेगा । संसार-स्वप्न को बीतने दो, अपने को ज्ञानस्वभाव में, प्रभुप्रेम स्वभाव में जगाओ । क्यों, जगाओगे न ! शाबाश वीर, शाबाश ! हिम्मत करो । संसार में पच मरने के लिए तुम्हारा जन्म नहीं हुआ, संसार के पिठ्ठू बनने तुम नहीं आये हो । शरीर की मौत के बाद भी जिसका बाल बाँका नहीं होता, तुम वह ज्ञानस्वरूप, चैतन्यस्वरूप अमर आत्मा हो । अपने अमर स्वभाव को जानो ।
यह शरीर है, कभी कमजोरी, कभी गर्मी, कभी कुछ, कभी कुछ…. – यह सब तो होता रहता है, दिन भर उसी का चिंतन कर-करके मारे जा रहे हैं । जो बीमारी का चिंतन करता है, दुःख का चिंतन करता है, शत्रु का चिंतन करता है….. वह उसको बल देता है । आप तो निश्चिंत नारायण में मस्त रहो ।
चिंता से चतुराई घटे, घटे रूप और ज्ञान ।
चिंता बड़ी अभागिनी, चिंता चिता समान ।
तुलसी भरोसे राम के, निश्चिंत होई सोय ।
अनहोनी होनी नहीं, होनी होय सो होय ।।
इस समझ को पक्का कर लो । जो होनी हो सो हो । फिकर फेंक कुएँ में, जो होगा देखा जायेगा ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 21,22 अंक 203
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ