उपाधि हटाओ, व्यापक हो जाओ

उपाधि हटाओ, व्यापक हो जाओ


(पूज्य बापू के सत्संग प्रवचन से)

जैसे तरंग पानी को खोजने जाये तो बहुत कठिन होगा लेकिन तरंग शांत हो जाय, फिर पानी को खोजे तो पहले वह पानी है बाद में तरंग है। गहना सोने को खोजने जाय तो पहले वह सोना है बाद में गहना है। घड़ा मिट्टी को खोजे तो पहले वह मिट्टी है बाद में घड़ा है। ऐसे ही पहले हम आत्मा हैं बाद में जीव हैं, बाद में गुजराती, सिंधी, मराठी हैं, बाद में नगर-अध्यक्ष, सांसद, पी.एच.डी., डी.लिट्. फलाना-ढिमका हैं।

जाति पद प्रतिष्ठा आदि की इन उपाधियों से हम छोटे हो जाते हैं। मनुष्यता व्यापक है लेकिन भारतवासी माना तो एक टुकड़े में आ गये, भारत में भी उत्तर प्रदेश के माना तो और छोटे दायरे में हो गये, उत्तर प्रदेश में भी अपने को लखनऊ के मान लिया तो और छोटे हो गये। लखनऊ में भी फलानी डिग्रीवाले तो बाकी के लोगों से अलग हो गये।

राष्ट्र बोले तो पूरा राष्ट्र आ गया। महाराष्ट्र बोले तो मुंबई, नागपुर आदि आदि हो गया छोटा। उत्तरांचल बोले तो भारत से कटके छोटा सा हो गया। उत्तरांचल में भी हरिद्वार तो और छोटा हो गया। हरिद्वार से भी कटकर ‘हर की पौड़ी’ पर आ गये। ‘हर की पौड़ी में भी ब्रह्मकुण्ड से दायें और जुग्गू पंडा के बायें ओर मेरा तख्त लगा है और फलाना पंडा एम.ए., बी.एड. मेरा नाम है। मेरे पास से कर्मकांड कराइये।’

अब पंडा तो समझता है कि मेरी बड़ी उपाधि है लेकिन कट-पिटकर छोटा ही हो गया न बेटे !

जितनीत-जितनी उपाधियाँ बढ़ती गयीं, उतने-उतने आप छोटे होते गये, संकीर्ण होते गये। अपनी व्यापकता भूलकर ‘मैं-मेरे’ उलझते गये, जन्म-मरण के फंदे में बँधते गये।

आप व्यवहार में भले उपाधि रखो लेकिन बीच-बीच में सारी उपाधियाँ हटाकर उस व्यापक परमात्मा के साथ के संबंध को याद कर लिया करो। जैसे बाहर जाते हें न, तो कपड़े, टाई, जूता आदि पहनते हैं लेकिन जब घर आते हैं तो सब हटाते हें तो कैसे तरोताजा हो जाते हें ! ऐसे ही यह जो मन  में भूत भरा है कि ‘मैं फलाना, फलानी पदवी वाला हूँ… मैं यह, मैं वह…’ यह सब हटाकर निर्दोष नन्हें की नाईं बैठ जाओ कि ‘बिन फेरे हम तेरे…’

भगवान की मूर्ति हो तो ठीक है, न हो तो चलेगा। दीपक जला सको तो ठीक है, नहीं हो तो चलेगा। ॐ अथवा स्वास्तिक का चित्र हो तो ठीक है, नहीं तो व्यापक आकाश की तरफ एकटक देखते हुए प्यार से ॐकार का दीर्घ उच्चारण करो। विनियोग करके फिर दीर्घ उच्चारण करो। भगवान का नाम लेना क्रिया नहीं पुकार में गिना जाता है।

आप 40 दिन तक प्रतिदिन 10-20 मिनट का यह प्रयोग करके देखो, कितना फर्क पड़ता है ! कितना लाभ होता है ! उस व्यापक क साथ एकाकार होने में कितनी मदद मिलती है ! असत् नाम, रूप तथा पद-पदवियों में बँधकर संकीर्णता की तरफ जा रहे जीव को अपने मूल व्यापक स्वरूप में पहुँचने में कितनी सुविधा हो जाती है। देखें फर्क पड़ता है कि पड़ता, ऐसा संशय नहीं करना। फायदा होगा….जितना प्रीतिपूर्वक करेंगे, जितना विश्वास होगा उतना फायदा !

विश्वासो फलदायकः।

गप्पे लगाकर, फिल्में देखकर जो सुख चाहते हैं, वह नकली सुख है, विकारी सुख है, तुमको संसार में फँसाने वाला है और भगवान की प्रीति से, पुकार से जो सुख मिलता है वह असली सुख है, आनंददायी सुख है। उस असली सुख से आपकी बुद्धि बढ़ेगी, ज्ञान बढ़ेगा, आपमें भगवान का सौंदर्य, प्रीति और सत्ता जागृत हो जायेगी।

केवल भगवान को प्रीतिपूर्वक सुबह-शाम पुकारना शुरु कर दो। दिन में दो-तीन बार कर सको तो अच्छा है। फिर आप देखोगे कि अपना जो समय असत् उपाधियों के असत् अहंकार में पड़कर बर्बाद हो रहा था, वह अब बचकर सत्स्वरूप परमात्मा के साथ एकाकार होने में, व्यापक होने में, आत्मा के असली सुख में पहुँचाने में कितना मददरूप हो रहा है ! फिर धीरे-धीरे असली सुख का अभ्यास बढ़ता जायेगा और आप व्यापक ब्रह्म के साथ एकाकार होकर जीवन्मुक्त हो जाएँगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2010, पृष्ठ संख्या 19,20

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