अच्छे व्यक्तियों का संग करके मानव अनेक सदगुणों से युक्त होता है, जबकि दुर्व्यसनी एवं दुष्टों का संग करके वह कुमार्गी बन जाता है। सत्पुरुषों या संतों अथवा परमात्मा के संग को सत्संग कहते हैं। संत महात्मा तथा विद्वान हमेशा लोक-परलोक का कल्याण करने वाली बातें बताकर लोगों को संस्कारित करते हैं, जबकि व्यसनी अपने पास आने वाले को अपनी तरह के व्यसन में लगाकर उसका लोक-परलोक बिगाड़ देता है। इसीलिए धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि भूलकर भी व्यसनी, निंदक, नास्तिक तथा कुमार्गी का एक क्षण का भी संग नहीं करना चाहिए।
आदर्श माता-पिता वे हैं, जो अपनी संतान को सदाचार, सत्याचरण और धर्माचरण के संस्कार देते हं। जब से हमने संतान को सदाचार, सत्याचरण और धर्माचरण के संस्कार देना बंद किया है, तभी से पतन शुरु हुआ है। अतः संस्कारों पर विशेष बल दिया जाना जरूरी है।
हमारी माताएँ तथा संत बालकों एवं युवकों को पग-पग पर सत्प्रेरणा देते रहते थे। संध्या के समय भोजन नहीं करना चाहिए, भोजन के समय बोलना नहीं चाहिए, भोजन से पहले हाथ-पैर धोने चाहिए, पवित्र स्थान में पूर्वाभिमुख होकर भोजन करना चाहिए, तामस भोजन सर्वदा वर्जनीय है – जैसी प्रतिदिन की बातें हमें संस्काररूप में ज्ञात हो जाती थीं किंतु अंग्रेजी भाषा के कुप्रभाव ने तथा भौतिक सुखों की बढ़ती चाह ने हमारी युवा पीढ़ी को संस्कारहीन बना दिया है। इसीलिए बालकों को, युवकों को देववाणी संस्कृत की शिक्षा दिलानी चाहिए। उन्हें विदेशी भाषा, विदेशी वेशभूषा तथा विदेशी खानपान के मोह से दूर रखने के प्रयास किये जाने चाहिए।
सत्संग से ही संस्कारों की प्राप्ति होती है। सत्संग करने से भगवत्प्राप्ति का मार्ग दिखलायी पड़ता है। जिस मार्ग से सत्पुरुष गये हैं, उसी मार्ग पर चले बिना हमें भगवत्प्राप्ति का मार्ग नहीं मिल सकता। दुर्व्यसनी के कुछ पल के संग से हमारे संचित संस्कार तक लुप्त हो जाते हैं और वह हमें सहज ही में दुर्व्यसनों की ओर आकर्षित करने में सफल हो जाता है। अतः दुर्व्यसनी, नास्तिक तथा हर समय सांसारिक प्रपंचों में फँसे रहने वाले व्यक्ति का संग भूलकर भी नहीं करना चाहिए।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2010, पृष्ठ संख्या 21, अंक 206
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