Monthly Archives: April 2010

परम पुरुषार्थ


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

मनुष्य सदैव बाहर की परिस्थितियों को दोष देते हुए जीता हैः यदि ऐसा होता, यह अनुकूलता होती तो मैं यह कर देता, मैं वह कर देता….। सुधारक कहते हैं कि यदि हमारे साथ यह सुविधा होती तो हम दुनिया को हिला देते। सब बाहर देखते हैं, मगर अपने भीतर कोई नहीं देखता। वस्तुतः जिसका भीतर ठीक हो जाये, उसका बाहर अपने आप ही ठीक हो जाता है। भीतर से जो अपने को अनुकूल बना लेता है, उसके लिए बाहर की सब प्रतिकूलताएँ अनुकूलताओं में बदल जाती हैं।

बाहर की परिस्थितियेँ उसे ही अनुकूल मिलती हैं, जिसने अपने भीतर की स्थिति ठीक कर ली है। जो भीतर से अपने-आपको ढूँढ चुका है, जिसने भीतर से अपने आपको पा लिया है, जो भीतर से शांत है, प्रसन्न है, उसे बाहर अशांति नजर नहीं आ सकती, उसे सर्वत्र खुशियाँ ही नजर आती हैं।

हमेशा प्रसन्न रहना चाहिए लेकिन हम तुरन्त कह उठते हैं- क्या करें जी, हम तो गृहस्थी हैं। सुबह से शाम तक हम तो अपने काम-धंधों में ही उलझे रहते हैं। हम प्रसन्न कैसे रह सकते हैं ?…

अरे राजा जनक भी तो गृहस्थी थे। आपको तो केवल अपने एक परिवार का ख्याल रखना पड़ता है, उनको तो सारे राज्य का प्रबंधन देखना पड़ता था। फिर भी वे प्रसन्न रहते थे कि नहीं  ! और संत….. संत तो सारे समाज के कल्याण को देखते हैं। संत बनना कोई सरल कार्य नहीं है ! संत समाज से जो पाते हैं वह सारा का सारा वे समाज की सेवा में लगा देते हैं। साथ ही जो परमात्म-अनुभव का खजाना तपस्या, गुरुसेवा करके पाया, जिसकी तुलना में त्रिलोकी का वैभव एक तिनके जितना भी नहीं है, वह भी वे समाज में खुले हाथी लुटाते है।

समझपूर्वक कोई गृहस्थी जिये तो वह भी साधु है, मगर नासमझी से जीता है तो वह साधु भी गृहस्थी है। समझपूर्ण (विवेकपूर्ण) व्यवहार भक्ति बन जाता है और नासमझी की भक्ति भी व्यवहार बन जाती है। लोग सोचते हैं, आत्म-साक्षात्कार करना तो साधुओं का काम है, हम तो गृहस्थी हैं। अरे भाई ! साधुओं का ही नहीं है… और साधुओं का तो यह काम हो चुका है। उन्हें इतनी जरूरत नहीं है, जितनी गृहस्थी को है। फिर लोग कहते हैं- अभी तो मौज-शौक करने के दिन हैं, भगवान का भजन करने की अभी हमारी उम्र नहीं हुई है, बुढ़ापे में देखेंगे। जैसे भक्ति करके भगवान पर एहसान करेंगे ! अरे, करते हो तो अपने लिए करते हो, अपना जीवन सुधरे इसलिए करते हो, कोई भगवान के लिए करते हो क्या ! भगवान की भक्ति को लोगों ने फालतू समय का उपयोग समझ लिया है। इस उलटी समझ के कारण ही तो लोग दुःखी होते हैं। और जब दुःख पड़ता है तब तो ईश्वर चिंतन करते ही हैं, फिर पहले से ही क्यों न करें !

दुःख में सुमिरन सब करें सुख में करे न कोय।

जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे को होय।।

‘श्री योगवसिष्ठ’ में वसिष्ठजी कहते हैं- ‘हे रामजी ! दुःख देखना है तो संसार में जाओ। गृहस्थी लोग बेचारे बहुत दुःखी हैं। कभी किसी चिंता से ग्रस्त है तो कभी किसी दुःख से। जैसे सूर्य-चन्द्र को राहू-केतू पीड़ित करते हैं, ऐसे ही संसारियों को मिथ्या सुख-दुःख पीड़ित करते रहते हैं।’

लोग समझाने पर भी अपनी नासमझी, नहीं छोड़ते। राग-द्वेष, मेरा-तेरा, लोभ-मोह, क्रोध, कपट – सब अपने साथ मरते दम तक रखते हैं और भगवान की भक्ति को अपने जीवन में स्थान देना नहीं चाहते। वे सुख की इच्छा करते रहते हैं और दुःख से डरते रहते हैं। जो सुख की इच्छा करता है और दुःख से डरता है वह तो दुःख ही बनाता रहता है। जैसे ऊँट कंटकों को पाता है ऐसे वह दुःख और परेशानी ही पाता है। जो सुख की इच्छा नहीं करता व दुःख से डरता नहीं, उसे ईश्वर का आनंद मिलता है।

संसार में सारी इच्छाएँ तो कभी किसी की भी पूरी नहीं हुई, प्रधानमंत्री की भी पूरी नहीं होती। मनुष्य तो क्या देवराज इन्द्र की भी पूरी नहीं होती। हम कितनी ही प्रतिष्ठा हासिल कर लें, कोई-न-कोई निंदा करने वाला बना ही रहता है। हमें लोग अच्छा ही कहते रहें, हमारी लोग प्रशंसा ही करते रहें – यह सोचना ही मूर्खता है। सदैव अनुकूलता में राग न रहे और प्रतिकूलता से द्वेष न रहे, इन दोनों स्थितियों में सम रहने की चेष्टा करें। जिसने दोनों स्थितियों में सम रहने की कला सीख ली उसे ईश्वर की झलक मिल जाती है, उसी ने समझो जगत में बड़ा काम किया है।

जहाँ में उसने बड़ी बात कर ली,

जिसने अपने-आपसे मुलाकात कर ली।

संसार में धन कमा लेना, यश पा लेना, सत्ता या पद पा लेना, कार-बँगला आदि ठाट-बाट की चीजें इकट्ठी कर लेना बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है अपने को जान लेना। ‘ये आने-जाने वाली सब अवस्थाएँ सपना है, सपने की तरह बीत जाने वाली हैं। मैं यह सब सपने की तरह देख रहा हूँ।’ – यह युक्ति है ब्रह्मज्ञान की, यही रास्ता है सब दुःखों से छूटने का, जिसको संत ही जानते हैं। हजार मालाएँ घुमाओ, हजार जप-तप करो, हजार प्रकार की पूजाएँ करो परंतु यह युक्ति नहीं सीखी तो थोड़ी सी प्रतिकू परिस्थिति भी चित्त को विचलित कर देगी। यदि चित्त स्थिर नहीं होता तो समझो हमारी साधना आगे नहीं बढ़ी।

चित्त को स्थिर करने में सत्संग, योग और ध्यान मदद करते हैं। कई लोग वर्षों घर छोड़कर इधर-उधर भटकते हैं, मगर ज्यों ही कोई प्रतिकूल परिस्थिति आती है तो वर्षों पुराना राग-द्वेष, क्रोध आदि भड़क उठता है क्योंकि उन्होंने साधना तो की, मगर वे किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ संत-महापुरुष का संग नहीं कर पाये होंगे।

ब्रह्मज्ञान की अटकल ब्रह्मज्ञानी संत ही बता सकते हैं। संत तो बहुत मिल जाते हैं, मगर ऐसे ब्रह्मज्ञानी संत किसी-किसी पुण्यवान, भाग्यशाली को ही मिलते हैं।

शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे।

साधवो न हि सर्वत्र चंदनं न वने वने।।

पर्वत बहुत हैं परंतु हर पर्वत पर माणिक्य की खानें नहीं होतीं, हर हाथी के पास मोती नहीं होते और हर वन में चंदन के पेड़ नहीं होते, ऐसे ही साधुपुरुष तो बहुत होते हैं परंतु आत्म-साक्षात्कार किया हुआ तो उनमें कोई विरला ही होता है।

ऐसे कोई ब्रह्मनिष्ठ संत मिल जायें तो दुनिया के सारे कष्ट हमें दुःख नहीं दे सकेंगे। कैसी भी परिस्थिति आयेगी, हमें विचलित नहीं कर सकेगी। संसार में कोई प्रतिकूलता, अशुभ नजर नहीं आयेगा, फिर संसार के सारे सुख फीके पड़ जायेंगे क्योंकि आत्मानंद प्राप्त हो जायेगा।

इसलिए ऐसे संत की खोज करें। उनके चरणों में बैठें। उनके मार्गदर्शन में चलें और आत्म साक्षात्कार करके अपने जीवन को सफल बनायें – यही परम पुरुषार्थ है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2010, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 208

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क्या आश्चर्य है !


महाभारत के युद्ध में अपने 100 पुत्रों और सारी सेना का संहार हो जाने से धृतराष्ट्र बड़े दुःखी हुए। उनके शोक को शांत करने के लिए धर्मात्मा विदुर जी ने मधुर, सांत्वनापूर्ण वाणी में धर्म का उपदेश दिया।

तब राजा धृतराष्ट्र ने कहाः ”विदुरजी ! धर्म के इस गूढ़ रहस्य का ज्ञान बुद्धि से ही हो सकता है। अतः तुम मेरे आगे विस्तारपूर्वक इस बुद्धिमार्ग को कहो।”

विदुरजी कहने लगेः “राजन ! भगवान स्वयंभू को नमस्कार करके मैं इस संसाररूप गहन वन के उस स्वरूप का वर्णन करता हूँ, जिसका निरूपण महर्षियों ने किया है। एक ब्राह्मण किसी विशाल वन में जा रहा था। वह एक दुर्गम स्थान में जा पहुँचा। उसे सिंह, व्याघ्र, हाथी, रीछ आदि भयंकर जंतुओं से भरा देखकर उसका हृदय बहुत ही घबरा उठा, उसे रोमांच हो आया और मन में बड़ी उथल पुथल होने लगी। उस वन में इधर-उधर दौड़कर उसने बहुत ढूँढा कि कहीं कोई सुरक्षित स्थान मिल जाये परंतु वह न तो वन से निकलकर दूर ही जा सका और न उन जंगली जीवों से त्राण ही पा सका। इतने में ही उसने देखा कि वह भीषण वन सब ओर जाल से घिरा हुआ है। एक अत्यंत भयानक स्त्री ने उसे अपनी भुजाओं से घेर लिया है तथा पर्वत के समान ऊँचे पाँच सिरवाले नाग भी उसे सब ओर से घेरे हुए हैं। उस वन के बीच में झाड़-झंखाड़ों से भरा हुआ एक गहरा कुआँ था। वह ब्राह्मण इधर उधर भटकता उसी में गिर गया किंतु लताजाल में फँसकर वह ऊपर को पैर और नीचे को सिर किये बीच में ही लटक गया।

इतने में ही कुएँ के भीतर उसे एक बड़ा भारी सर्प दिखायी दिया और ऊपर की ओर उसके किनारे पर एक विशालकाय हाथी दिखा। उसके शरीर का रंग सफेद और काला था तथा उसके छः मुख और बारह पैर थे। वह धीरे-धीरे उस कुएँ की ओर ही आ रहा था। कुएँ के किनारे पर जो वृक्ष था, उसकी शाखाओं पर तरह-तरह की मधुमक्खियों ने छता बना रखा था। उससे मधु की कई धाराएँ गिर रही थीं। मधु तो स्वभाव से ही सब लोगों को प्रिय है। अतः वह कुएँ में लटका हुआ पुरुष इन मधु की धाराओं को ही पीता रहता था। इस संकट के समय भी मधु पीते-पीते उसकी तृष्णा शांत नहीं हुई और न उसे अपने ऐसे जीवन के प्रति वैराग्य ही हुआ। जिस वृक्ष के सहारे वह लटका हुआ था, उसे रात दिन काले और सफेद चूहे काट रहे थे। इस प्रकार इस स्थिति में उसे कई प्रकार के भयों ने घेर रखा था। वन की सीमा के पास हिंसक जंतुओं से और अत्यंत उग्ररूपा स्त्री से भय था, कुएँ के नीचे नाग से और ऊपर हाथी से आशंका थी, पाँचवाँ भय चूहों के वृक्ष को काट देने पर गिरने का था और छठा भय मधु के लोभ के कारण मधुमक्खियों से भी था। इस प्रकार संसार-सागर में पड़कर भी वह नहीं डटा हुआ था तथा जीवन की आशा बनी रहने से उसे उससे वैराग्य भी नहीं होता था।

महाराज ! मोक्षतत्त्व के विद्वानों ने यह एक दृष्टान्त कहा है। इसे समझकर धर्म का आचरण करने से मनुष्य परलोक में सुख पा सकता है। यह जो विशाल वन कहा गया है, वह यह विस्तृत संसार ही है। इसमें जो दुर्गम जंगल बताया है, वह इस संसार की ही गहनता है। इसमें जो बड़े-बड़े हिंस्र जीव बताये गये हैं, वे तरह-तरह की व्याधियाँ हैं तथा इसकी सीमा पर जो बड़े डीलडौलवाली स्त्री है वह वृद्धावस्था है, जो मनुष्य के रूप रंग को बिगाड़ देती है। उस वन में जो कुआँ है, वह मनुष्य देह है। उसमें नीचे की ओर जो नाग बैठा हुआ है, वह स्वयं काल ही है। वह समस्त देहधारियों को नष्ट कर देने वाला और उनके सर्वस्व को हड़प जाने वाला है। कुएँ के भीतर जो लता है, जिसके तंतुओं में यह मनुष्य लटका हुआ है, वह इसके जीवन की आशा है तथा ऊपर की ओर जो छः मुँहवाला हाथी है वह संवत्सर (वर्ष) है। छः ऋतुएँ उसके मुख हैं तथा बारह महीने पैर हैं। उस वृक्ष को जो चूहे काट रहे हैं, उन्हें रात-दिन कहा गया है तथा मनुष्य की जो तरह-तरह की कामनाएँ हैं, वे मधुमक्खियाँ हैं। मक्खियों के छत्ते से जो मधु की धाराएँ चू रही हैं, उन्हें भोगों से प्राप्त होने वाले रस समझो, जिनमें अधिकांश मनुष्य डूबे रहते हैं। बुद्धिमान लोग संसारचक्र की गति को ऐसा ही समझते हैं, तभी वे वैराग्यरूपी तलवार से इसके पाशों को काटते हैं।”

धृतराष्ट्र ने कहाः “विदुर ! तुम बड़े तत्त्वदर्शी हो। तुमने मुझे बड़ा सुंदर आख्यान सुनाया है। तुम्हारे अमृतमय वचनों को सुनकर मुझे बड़ा हर्ष होता है।”

विदुरजी बोलेः “राजन् ! शास्ज्ञों ने गहन संसार को वन बताया है। यही मनुष्यों तथा चराचर प्राणियों का संसारचक्र है। विवेकी पुरुष को इसमें आसक्त नहीं होना चाहिए। मनुष्यों की जो प्रत्यक्ष और परोक्ष शारीरिक तथा मानसिक व्याधियाँ हैं, उन्हीं को बुद्धिमानों ने हिंस्र जीव बताया है। मंदमति पुरुष इन व्याधियों से तरह-तरह के क्लेश और आपत्तियाँ उठाने पर भी संसार से विरक्त नहीं होते। यदि किसी प्रकार मनुष्य इन व्याधियों के पंजे से निकल भी जाय तो अंत में इसे वृद्धावस्था तो घेर ही लेती है। इसी से यह तरह-तरह  के शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंधों से घिरकर मज्जा और मांसरूप कीचड़ से भरे हुए आश्रयहीन देहरूप गड्ढे में पड़ा रहता है। वर्ष, मास, पक्ष और दिन रात की संधियाँ – ये क्रमशः इसके रूप और आयु का नाश किया करते हैं। ये सब काल के ही प्रतिनिधि हैं, इस बात को मूढ़ पुरुष नहीं जानते।

अतः बुद्धिमान पुरुष को संसार की निवृत्ति का ही प्रयत्न करना चाहिए, इस ओर से लापरवाही नहीं करना चाहिए।

मनुष्य को चाहिए कि अपने मन को काबू में करके ब्रह्मज्ञानरूप महौषधि प्राप्त करे और उसके द्वारा इस संसार-दुःखरूप महारोग को नष्ट कर दे। इस दुःख से संयमी चित्त के द्वारा जैसा छुटकारा मिल सकता है, वैसा पराक्रम, धन, मित्र या हितैषी किसी की भी सहायता से नहीं मिल सकता।

जो बुद्धिहीन पुरुष तरह-तरह के माया-मोह में फँसे हुए हैं और जिन्हें बुद्धि के जाल ने बाँध रखा हैं, वे भिन्न-भिन्न योनियों में भटकते रहते हैं।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2010, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 208

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ईश्वर प्राप्ति सरल कैसे ?


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

ईश्वरप्राप्ति का गणित बहुत सरल है। लोगों ने विषय-विकारों को महत्त्व देके, किसी ने कल्पना और व्याख्या कर-करके ईश्वर प्राप्ति के मार्ग को कोई बड़ा लम्बा-चौड़ा कठिन मार्ग मान लिया। कोई बड़ा लम्बा चौड़ा कठिन मार्ग मान लिया। ईश्वर प्राप्ति से सुगम कुछ है ही नहीं। मैं तो यह बात मानने को तैयार हूँ कि रोटी बनाना कठिन है लेकिन ईश्वर प्राप्ति कठिन नहीं है। अगर आटा गूँथना नहीं आये तो आटे में गाँठ-गाँठ हो जाती है। रोटी सेंकनी न आये तो हाथ जल जाता है। परमात्मा प्राप्ति में तो न हाथ जलने का डर है, न आटा खराब होने का डर है वह तो सहज है।

संसार की प्राप्ति में तो अपना पुरुषार्थ चाहिए, अपना प्रारब्ध चाहिए, वातावरण चाहिए तब संसार की चीजें मिलती हैं और मिल मिलकर चली जाती हैं। भगवान की प्राप्ति में न तो केवल तीव्र इच्छा हो जाये बस, फिर तो भगवान अपने आप अंदर कृपा करते हैं – यह अनुभव वसिष्ठजी महाराज का है।

‘श्री योगवसिष्ठजी महारामायण’ में आता है कि ‘हे राम जी ! फूल पत्ता और टहनी मसलने में परिश्रम है, अपने आत्मा परमात्मा को पाने में क्या परिश्रम है !’

उपदेशमात्र से मान तो लेते हैं कि परमात्म प्राप्ति ही सार है, सुनते सुनते विचार करते करते, जगत के थप्पड़ खाते खाते लगता है कि तत्त्वज्ञान के बिना, परमात्मज्ञान के बिना जीवन व्यर्थ है किंतु उसमें टिक नहीं पाते क्योंकि टिकने की सात्त्विक बुद्धि, दृढ़ निश्चय, सजगता और तड़प नहीं है। आहार-विहार पवित्र हो, बुद्धि सात्त्विक हो, सजगता हो तथा परमात्म प्राप्त महापुरुषों में और उनके वचनों में महत्त्वबुद्धि हो, परमात्माप्राप्ति की तीव्र तड़प हो तो टिकना कोई कठिन नहीं है। शाश्वत में महत्त्वबुद्धि के अभाव से ही सहज, सुलभ परमात्मा दुर्लभ हो रहा है। नश्वर में महत्त्वबुद्धि होने का फल यह दुर्भाग्य है कि सब कुछ करते कराते भी दुःख, शोक, जन्म-मरण की यातनाएँ मिटती नहीं।

सुबह नींद में से उठते ही थोड़ी देर चुप बैठी और विचारों की ‘वह कौन है जो आँखों को देखने की, मन को सोचने की, बुद्धि को निर्णय करने की सत्ता देता है ?’ उसी में शांत हो जाओ, परमात्माप्राप्ति के नजदीक आ जाओगे। दुःख आये उससे जुड़ो नहीं, सुख आये उससे मिलो नहीं। सुख को बाँटो और दुःख में सम रहो तो उनका जो साक्षी है उस परमात्मा में टिकने लगोगे। वह इतना निकट है कि

सो साहब सद सदा हजूरे।

अंधा जानत ताँको दूरे।।

ज्ञानचक्षु नहीं है और बाहर भागने की आदत है इसीलिए वह कठिन लग रहा है, नहीं तो ईश्वरप्राप्ति जैसा कोई सुगम कार्य नहीं है।

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया।।

‘शरीर रूपी यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अंतर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।’

(गीताः 18.61)

जैसे गाड़ी में बैठने वालों को गाड़ी की गति प्राप्त होती है, जहाज में बैठने वाला जहाज की गति से भागता है, बस में बैठने वाला बस की गति से भागता है, कार में बैठने वाला कार की गति से भागता है ऐसे ही यह इन्द्रियों में बैठने वाला जीव इन्ही यंत्रों में उलझ गया है। जहाँ से बैठने की सत्ता आती है उसमें बैठो तो अभी ईश्वरप्राप्ति हो जाय, जैसे अर्जुन को भगवान की कृपा से बात समझ में आ गयी।

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा। (गीताः 18.73)

अगर कठिन होता तो परीक्षित राजा को सात दिन में कैसे मिल जाता ! भगवत्पाद लीलाशाहजी बापू की कृपा हम पर 40 दिन में कैसे बरसती और कैसे मिल जाता !

एक वर्ष तक ॐकार का जप करे, नीच कर्मों का त्याग करे और ईश्वरप्राप्ति का ऊँचा उद्देश्य बना ले तो साधारण से साधारण आदमी को भी ईश्वरप्राप्ति सहज में हो जाय। लेकिन हमारी रूचि है – यह हो जाय, वह हो जाय….। जो हो – होकर बदलता है वही करने की रुचि रखते हैं।

मान मिल जाय, बड़े हो जायें, बापू जी जैसे हो जायें ऐसा कुछ नहीं चाहिए। हर फूल अपनी जगह पर खिलता है, किसी को नकल नहीं करनी है और बाहर से बापू जी जैसा हो जाने से ईश्वरप्राप्ति हो जाती है इस वहम में नहीं पड़ना। जो जहाँ है ईश्वरप्राप्ति का अधिकारी है और सोचे कि ‘बाहर से बापू जी जैसा हो जाऊँ’, तो माइयों को दाढ़ी आयेगी नहीं, तो क्या ईश्वर नहीं मिलेगा ? जिनके सिर पर बाल नहीं हैं, क्या उनको ईश्वर नहीं मिलेगा ? बाहर से नकल नहीं करनी है, केवल उस मिले-मिलाये में प्रीति चाहिए।

भगवान से प्रीति करने की, भगवान को पान की महत्ता समझ में आ जाय तो मन पवित्र होने लगता है। जब तक भगवान को पाने की महत्ता का पता नहीं, तभी तक सारे दुःख विद्यमान रहते हैं। ईश्वर को पाने में ही सार है – ऐसा नहीं जानते, तभी तक छल-कपट आदि सारे दुर्गुण विद्यमान रहते हैं। यदि वह सम में आ जाय तो सारे छल-कपट कम होते चले जायेंगे, सारी शिकायतें दूर होती चली जाएँगी। जिसको ईश्वरप्राप्ति की रूचि नहीं है उसको गलती बताओगे तो सफाई देगा, अपनी गलती नहीं मानेगा और ज्यों-ज्यों सफाई देगा त्यों-त्यों उसकी गलती गहरी उतरती जायेगी। उसको पता ही नहीं चलेगा कि मैं अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार रहा हूँ और उसका परमात्मप्राप्ति का मार्ग लम्बा होता चला जायेगा।

तो ईश्वरप्राप्ति में रूचि हो जाये। और यह रुचि कैसे हो ? बार-बार सत्संग का आश्रय लो, ईश्वर कान नाम लो, उसका गुणगान करो, उसको प्रीति करो। और कभी फिसल जाओ तो आर्तभाव से पुकारो। वे परमात्मा-अंतरात्मा सहाय करते हैं, सहाय करते हैं, बिल्कुल करते हैं।  ॐ नारायण… ॐ गोविंद…. ॐ अच्युत….. ॐ केशव…. ॐ परमेश्वर…. ॐ सर्वसुहृदाय नमः…. ॐ अंतर्यामी…. ॐ सर्वज्ञ…. ॐ दयानिधे नमः…… ॐॐ….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2010, पृष्ठ संख्या 19, अंक 208

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