परम पुरुषार्थ

परम पुरुषार्थ


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

मनुष्य सदैव बाहर की परिस्थितियों को दोष देते हुए जीता हैः यदि ऐसा होता, यह अनुकूलता होती तो मैं यह कर देता, मैं वह कर देता….। सुधारक कहते हैं कि यदि हमारे साथ यह सुविधा होती तो हम दुनिया को हिला देते। सब बाहर देखते हैं, मगर अपने भीतर कोई नहीं देखता। वस्तुतः जिसका भीतर ठीक हो जाये, उसका बाहर अपने आप ही ठीक हो जाता है। भीतर से जो अपने को अनुकूल बना लेता है, उसके लिए बाहर की सब प्रतिकूलताएँ अनुकूलताओं में बदल जाती हैं।

बाहर की परिस्थितियेँ उसे ही अनुकूल मिलती हैं, जिसने अपने भीतर की स्थिति ठीक कर ली है। जो भीतर से अपने-आपको ढूँढ चुका है, जिसने भीतर से अपने आपको पा लिया है, जो भीतर से शांत है, प्रसन्न है, उसे बाहर अशांति नजर नहीं आ सकती, उसे सर्वत्र खुशियाँ ही नजर आती हैं।

हमेशा प्रसन्न रहना चाहिए लेकिन हम तुरन्त कह उठते हैं- क्या करें जी, हम तो गृहस्थी हैं। सुबह से शाम तक हम तो अपने काम-धंधों में ही उलझे रहते हैं। हम प्रसन्न कैसे रह सकते हैं ?…

अरे राजा जनक भी तो गृहस्थी थे। आपको तो केवल अपने एक परिवार का ख्याल रखना पड़ता है, उनको तो सारे राज्य का प्रबंधन देखना पड़ता था। फिर भी वे प्रसन्न रहते थे कि नहीं  ! और संत….. संत तो सारे समाज के कल्याण को देखते हैं। संत बनना कोई सरल कार्य नहीं है ! संत समाज से जो पाते हैं वह सारा का सारा वे समाज की सेवा में लगा देते हैं। साथ ही जो परमात्म-अनुभव का खजाना तपस्या, गुरुसेवा करके पाया, जिसकी तुलना में त्रिलोकी का वैभव एक तिनके जितना भी नहीं है, वह भी वे समाज में खुले हाथी लुटाते है।

समझपूर्वक कोई गृहस्थी जिये तो वह भी साधु है, मगर नासमझी से जीता है तो वह साधु भी गृहस्थी है। समझपूर्ण (विवेकपूर्ण) व्यवहार भक्ति बन जाता है और नासमझी की भक्ति भी व्यवहार बन जाती है। लोग सोचते हैं, आत्म-साक्षात्कार करना तो साधुओं का काम है, हम तो गृहस्थी हैं। अरे भाई ! साधुओं का ही नहीं है… और साधुओं का तो यह काम हो चुका है। उन्हें इतनी जरूरत नहीं है, जितनी गृहस्थी को है। फिर लोग कहते हैं- अभी तो मौज-शौक करने के दिन हैं, भगवान का भजन करने की अभी हमारी उम्र नहीं हुई है, बुढ़ापे में देखेंगे। जैसे भक्ति करके भगवान पर एहसान करेंगे ! अरे, करते हो तो अपने लिए करते हो, अपना जीवन सुधरे इसलिए करते हो, कोई भगवान के लिए करते हो क्या ! भगवान की भक्ति को लोगों ने फालतू समय का उपयोग समझ लिया है। इस उलटी समझ के कारण ही तो लोग दुःखी होते हैं। और जब दुःख पड़ता है तब तो ईश्वर चिंतन करते ही हैं, फिर पहले से ही क्यों न करें !

दुःख में सुमिरन सब करें सुख में करे न कोय।

जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे को होय।।

‘श्री योगवसिष्ठ’ में वसिष्ठजी कहते हैं- ‘हे रामजी ! दुःख देखना है तो संसार में जाओ। गृहस्थी लोग बेचारे बहुत दुःखी हैं। कभी किसी चिंता से ग्रस्त है तो कभी किसी दुःख से। जैसे सूर्य-चन्द्र को राहू-केतू पीड़ित करते हैं, ऐसे ही संसारियों को मिथ्या सुख-दुःख पीड़ित करते रहते हैं।’

लोग समझाने पर भी अपनी नासमझी, नहीं छोड़ते। राग-द्वेष, मेरा-तेरा, लोभ-मोह, क्रोध, कपट – सब अपने साथ मरते दम तक रखते हैं और भगवान की भक्ति को अपने जीवन में स्थान देना नहीं चाहते। वे सुख की इच्छा करते रहते हैं और दुःख से डरते रहते हैं। जो सुख की इच्छा करता है और दुःख से डरता है वह तो दुःख ही बनाता रहता है। जैसे ऊँट कंटकों को पाता है ऐसे वह दुःख और परेशानी ही पाता है। जो सुख की इच्छा नहीं करता व दुःख से डरता नहीं, उसे ईश्वर का आनंद मिलता है।

संसार में सारी इच्छाएँ तो कभी किसी की भी पूरी नहीं हुई, प्रधानमंत्री की भी पूरी नहीं होती। मनुष्य तो क्या देवराज इन्द्र की भी पूरी नहीं होती। हम कितनी ही प्रतिष्ठा हासिल कर लें, कोई-न-कोई निंदा करने वाला बना ही रहता है। हमें लोग अच्छा ही कहते रहें, हमारी लोग प्रशंसा ही करते रहें – यह सोचना ही मूर्खता है। सदैव अनुकूलता में राग न रहे और प्रतिकूलता से द्वेष न रहे, इन दोनों स्थितियों में सम रहने की चेष्टा करें। जिसने दोनों स्थितियों में सम रहने की कला सीख ली उसे ईश्वर की झलक मिल जाती है, उसी ने समझो जगत में बड़ा काम किया है।

जहाँ में उसने बड़ी बात कर ली,

जिसने अपने-आपसे मुलाकात कर ली।

संसार में धन कमा लेना, यश पा लेना, सत्ता या पद पा लेना, कार-बँगला आदि ठाट-बाट की चीजें इकट्ठी कर लेना बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है अपने को जान लेना। ‘ये आने-जाने वाली सब अवस्थाएँ सपना है, सपने की तरह बीत जाने वाली हैं। मैं यह सब सपने की तरह देख रहा हूँ।’ – यह युक्ति है ब्रह्मज्ञान की, यही रास्ता है सब दुःखों से छूटने का, जिसको संत ही जानते हैं। हजार मालाएँ घुमाओ, हजार जप-तप करो, हजार प्रकार की पूजाएँ करो परंतु यह युक्ति नहीं सीखी तो थोड़ी सी प्रतिकू परिस्थिति भी चित्त को विचलित कर देगी। यदि चित्त स्थिर नहीं होता तो समझो हमारी साधना आगे नहीं बढ़ी।

चित्त को स्थिर करने में सत्संग, योग और ध्यान मदद करते हैं। कई लोग वर्षों घर छोड़कर इधर-उधर भटकते हैं, मगर ज्यों ही कोई प्रतिकूल परिस्थिति आती है तो वर्षों पुराना राग-द्वेष, क्रोध आदि भड़क उठता है क्योंकि उन्होंने साधना तो की, मगर वे किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ संत-महापुरुष का संग नहीं कर पाये होंगे।

ब्रह्मज्ञान की अटकल ब्रह्मज्ञानी संत ही बता सकते हैं। संत तो बहुत मिल जाते हैं, मगर ऐसे ब्रह्मज्ञानी संत किसी-किसी पुण्यवान, भाग्यशाली को ही मिलते हैं।

शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे।

साधवो न हि सर्वत्र चंदनं न वने वने।।

पर्वत बहुत हैं परंतु हर पर्वत पर माणिक्य की खानें नहीं होतीं, हर हाथी के पास मोती नहीं होते और हर वन में चंदन के पेड़ नहीं होते, ऐसे ही साधुपुरुष तो बहुत होते हैं परंतु आत्म-साक्षात्कार किया हुआ तो उनमें कोई विरला ही होता है।

ऐसे कोई ब्रह्मनिष्ठ संत मिल जायें तो दुनिया के सारे कष्ट हमें दुःख नहीं दे सकेंगे। कैसी भी परिस्थिति आयेगी, हमें विचलित नहीं कर सकेगी। संसार में कोई प्रतिकूलता, अशुभ नजर नहीं आयेगा, फिर संसार के सारे सुख फीके पड़ जायेंगे क्योंकि आत्मानंद प्राप्त हो जायेगा।

इसलिए ऐसे संत की खोज करें। उनके चरणों में बैठें। उनके मार्गदर्शन में चलें और आत्म साक्षात्कार करके अपने जीवन को सफल बनायें – यही परम पुरुषार्थ है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2010, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 208

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