Monthly Archives: August 2010

भगवान को अपना माने बिना तुम्हारी खैर नहीं !


(पूज्य बापू जी की हृदय स्पर्शी अमृतवाणी)

भगवान को अपना माने बिना तुम्हारी खैर नहीं ! जिसको भगवान अपने नहीं लगते उसको माया ऐसा बिलो देती है, ऐसा मथ देती है कि तौबा-तौबा ! आया काम तो सारे शरीर को मथ के निचोड़ डालेगा। आया क्रोध तो सारे शरीर को मथ के सिर में गर्मी चढ़ा देगा। आया लोभ तो बस, रूपया-रूपया दिखेगा, डॉलर-डॉलर दिखेगा। खूब तेज भगायी गाड़ी…. कहाँ जा रहे हैं ? नौकरी पर जा रहे हैं। फिर क्या ? डॉलर आ गये। कुछ खरीद लिया, बेच दिया। फिर क्या ?  फिर क्या ? ओहो ! जिंदगी बिलो डाली।

जवान व्यक्ति कहता है जीवन मजे से भरपूर है परंतु बुद्धिमान व्यक्ति कहता है (संसारी) जीवन में दुःख ही दुःख भरा है। यह संसार सपने जैसा है, मूर्ख इसमें सुख खोजने जाता है। जो भगवान को अपना और अपने को भगवान का नहीं मानता उसको माया ऐसा बिलो देती है, ऐसा बिलो देती है कि दही में से तो मक्खन निकलता है पर इसके मथने से तो मुसीबतें निकलती हैं। फिर घोड़ा, गधा, कुत्ता, बिलार बन जाते हैं। अजनाभ खंड के एक छत्र सम्राट भरत, जिनके नाम से इस देश का नाम भारत पड़ा, उन्हें हिरण प्यारा लगा और मरने के बाद वे हिरण बन गये, राजा नृग गिरगिट हो गये, राजा अज अजगर बन गये… माया ऐसा मथ डालती है !

माया ऐसी नागिनी जगत रही लिपटाय।

जो तिसकी सेवा करे वा को ही वो खाय।।

जो जितना भगवान को चाहता है माया उतनी उसकी सेवा करके हाथ जोड़कर अलग से ठहरती है कि कहीं भगवान के दुलारे को दुःख न हो, कष्ट न हो। माया उसके अनुकूल हो जाती है, कष्ट नहीं देती है और जो माया को जितना चाहता है, माया उतना ही उसको बिलो देती है।

कोई खानदानी महिला हो और उसको कोई अपनी औरत की नजर से देखे तो जूते खायेगा कि नहीं खायेगा ? खायेगा। फिर लक्ष्मी तो है भगवान की, ऐसे ही माया है तो भगवान की और कोई उसे अपनी बनाना चाहे तो जूते खायेगा कि नहीं खायेगा ? खायेगा। धोबी जैसे कपड़े उठा-उठा के, घुमा-घुमा के पटकता है, ऐसे ही माया फिर उसको घुमा-घुमा के फेंक देती है गधे की योनि में, कुत्ते की योनि में, भैंसे की योनि में….. कि ‘अब बन जा भैंसा, बन जा कुत्ता, बन जा मगर बन जा कुछ-का-कुछ….. अरे, मैं भगवान की सती-साध्वी और तू मुझे अपना बनाने को आया ! मालिक बनता है मेरा !’ भगवान तुम्हारे हैं, तुम भगवान के हो। लक्ष्मीपति भगवान हैं माया के पति। तुम माया के पति बनने गये, माया के स्वामी बनने गये तो दे धोखम-धोखा !

कराटे वाले कैसी पिटाई कर देते हैं, कैसे मारपीट करते हैं कि पता भी न चले, खून भी न निकले और मार खाने वाले तौबा पुकार लेते हैं। माया तो उससे भी ज्यादा पिटाई करती है। कराटेवालों की पिटाई के बाद तो दो दिन में थोड़ा आराम हो जाय पर यह माया तो चौरासी लाख जन्मों तक बराबर पिटाई करती रहती है। मरते समय भी इसी की चिंता लगी रहती है कि ‘मेरे लड़कों का क्या होगा, मेरे कारखाने का क्या होगा, मेरी दुकान का क्या होगा ?’

इन्सान की बदबख्ती अंदाज से बाहर है।

कमबख्त खुदा होकर बंदा नजर आता है।।

है तो भगवान का अंश, है तो ‘चेतन अमल सहज सुख रासी‘ परंतु माया में ऐसा फँसा है कि तौबा हो रही है। ऐसे-ऐसे बिलोया जाता है कि बस फिर वही-का-वही। समर्थ रामदास कहते हैं कि मरता तो कोई है पर शोक दूसरे करते हैं और शोक करने वाले बेवकूफों को पता नहीं कि हम भी ऐसे ही जायेंगे। कभी-कभी तो किसी को श्मशान में छोड़कर जाते ही कोई खुद मर जाता है।

कोई आज गया, कोई गल गया,

कोई जावन को तैयार खड़ा।

यही रीति है संसार की। इसमें किसी का इन्कार चलता ही नहीं। तो अब क्या करें ?

जहाँ मौत की दाल नहीं गलती उस चैतन्य देव को जान लो, उसमें प्रीति करो, उसको पहचान लो बस।

कैसे पहचानें ? भगवान कहते हैं-

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।

‘उन निरंतर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।’

(गीताः 10.10)

एक मनुष्य सूरज को देख सकता है तो सारी मनुष्य-जाति सूरज को देख सकती है। एक मनुष्य आकाश को देख सकता है तो सभी मनुष्य आकाश को देख सकते हैं। एक मनुष्य पृथ्वी गोल है यह जान सकता है तो सभी मनुष्य ऐसा जान सकते हैं। ऐसे ही एक मनुष्य अपने आत्मा-परमात्मा को जान सकता है तो सभी मनुष्य जान सकते हैं। फिर काहे को निराश होना ! काहे को हताश होना ! काहे को उस महान लाभ से वंचित रहना, दुर्लभ समझना !

एक व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री बन गया तो दूसरा व्यक्ति पहले के हटने तक दंड-बैठक करे परंतु एक को साक्षात्कार हो गया तो दूसरे सब्र तैयार हो जायें, दंड बैठक की जरूरत नहीं है। प्रधानमंत्री की कुर्सी एक है किंतु आत्मा तो आप सबके पास वही-का-वही है। आत्मा भी एक है किंतु कुर्सी परिच्छिन्न है और आत्मा व्यापक है, ब्रह्म है।

जैसे – आकाश एक है और उसमें कई घड़े हैं। अब एक घड़ा अपने भीतर के आकाश-तत्त्व को जान ले तो क्या जब तक वह न फूटेगा, तब तक दूसरे घड़े अपने भीतर के आकाश-तत्त्व को नहीं जान सकेंगे ? नहीं पा सकेंगे ? अरे ! एक ने जाना तो दूसरे उत्साहित होंगे। दूसरे घड़े भी अपने आकाश-तत्त्व को जान ले तो दूसरे व्यक्ति भी अपने परमात्म-तत्त्व को पा सकते हैं।

एक प्रधानमंत्री बनता है तो दूसरे के प्रधानमंत्री होने की सम्भावना पाँच साल तक दब जाती है किंतु यहाँ एक को साक्षात्कार हो जाता है तो हजारों की सम्भावनाएँ जागृत हो जाती हैं। साक्षात्कार जब होगा तब होगा पर उसका आनंद, झलक और सच्चाई सहित रसमय जीवन तो अभी हो रहा है। बिल्कुल सच्ची बात है, पक्की बात है। किसी ने कोई पद पाया है तो उस पद का रस तो जब तक वह हटेगा या मरेगा नहीं तब तक दूसरा नहीं पा सकेगा परंतु परमात्म-पद, परमात्म-रस आपने पाया है तो आपके होते ही कइयों को उसका स्वाद, रस, उत्साह, मदद मिलती है। इसीलिए यह रास्ता जोड़ने वाला है, इस रास्ते में संवादिता है। भोग में विवादिता है, भोग का रास्ता तोड़ने वाला है। विषय विकारी सुख सीमित हैं और परमात्मा असीम है। विषय-विकारी सुख अनित्य हैं और परमात्मा नित्य है, जीवात्मा भी नित्य है।

जब तक नित्य (जीवात्मा) को नित्य (परमात्मा) का सुख, नित्य का ज्ञान, नित्य की मुलाकात नहीं होगी, तब तक अनित्य का कितना भी मिला, कुछ भी हाथ में आने वाला नहीं है।

अगले जन्म के पैसे, बेटे, पत्नी कहाँ गयी ? पति कहाँ गये ? ऐसा ही इस बार भी होने वाला है। अपने परमात्मा पति को जान लो। फिर पति के लिए पत्नी वफादार हो जायेगी, पत्नी के लिए पति वफादार हो जायगा। ईश्वर में टिकते हैं न, तो संसार का व्यवहार भी अच्छी तरह से होता है। उसमें भी कुशलता आ जाती है। संसार के सारे प्रमाणपत्र पाकर भी आदमी इतना कुशल नहीं होता, जितना परमात्म-विश्रान्ति को पाने से कुशल हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, पृष्ठ संख्या 4,5, 10. अंक 212, अगस्त 2010

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अंधकार में अवतार लिया प्रकाशमय जग को किया


श्री कृष्ण जन्माष्टमीः 2 सितम्बर 2010

(पूज्यपाद बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी की रात… बारिश हो रही है और वसुदेव – देवकी कारागार में हैं…. उनके रिश्तेदार भय और आतंक से आतंकित हैं, दुःख में हैं, शोषित हो रहे हैं। ऐसों के यहाँ आने के लिए भगवान श्रीकृष्ण मध्यरात्रि, अँधेरी रात चुनते हैं। अंधकार में पड़े हुए जीव के यहाँ, साधक के यहाँ प्रकाशमय श्रीकृष्ण, दुःख में डूबे हुए समाज के यहाँ सुख स्वरूप श्रीकृष्ण, विषाद में पड़े हुए लोगों के बीच, माधुर्य बरसाने वाले कृष्ण का अवरतरण होता है। कहाँ होता है ? जेल में किसके यहाँ होता है ? वसुदेव-देवकी के यहाँ।

शुद्ध बुद्धि का नाम है देवकी और सत्त्वमय प्रकाश का नाम है वसुदेव। इस जीव का सत्त्वमय प्रकाश हो और शुद्ध बुद्धि हो तो इसके हृदय में भी श्रीकृष्ण का अवतरण होता है, प्रागट्य तो वसुदेव-देवकी के यहाँ होता है परंतु पोषण होता है नंद-यशोदा के यहाँ। वसुदेव जी कृष्ण को ले गये और यशोदा की गोद में रख दिया। यशोदा सोयी है, न माला कर रही है, न इंतजार कर रही है, सोयी हुई यशोदा के पास कृष्ण पहुँचते हैं। अपने लीला-माधुर्य में सराबोर करने के लिए श्रीकृष्ण क्या करते हैं ? रोते हैं।

यशोदा के यहाँ शक्ति का, माया का जन्म हुआ है और वसुदेव – देवकी के यहाँ आनंद का प्रागट्य हुआ है। शक्तिवाले सोते रहते हैं और आनंदवाले जागते और जगाने वाले को छुड़ाने का काम करते हैं। वसुदेव जी माया को ले गये। कृष्ण ने ऊवाँऽऽऽ…..ऊवाँऽऽऽ करके मैया को जगाया कि ‘मैं आया हूँ तेरे घर, अब तू कब तक सोयेगी ?’ सोये हुए को जगाना यह भगवान का भगवदपना है। असाधनवाले को भी सहज में मिलना यह भगवान का भगवदपना है।

जन्माष्टमी के दिन किया हुआ जप अनंत गुना फल देता है। युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछाः “जन्माष्टमी के उपवास से क्या फायदा होता है ?” श्रीकृष्ण बोलेः “उस व्यक्ति के जीवन में धन-धान्य, यश की कमी नहीं रहेगी।” जन्माष्टमी के दिन अगर कोई संसार-व्यवहार करता है तो विकलांग संतान होगी अथवा तो जानलेवा बीमारी पकड़ लेती है।

श्रीकृष्ण मथुरा जा रहे हैं तो सड़कों पर लोग दायें-बायें खड़े हैं और उनके रूप-लावण्य, माधुर्य, उनकी चितवन का आनंद ले रहे हैं। लोग तो कृष्ण को देखकर गदगद हो रहे हैं पर कृष्ण एक कुबड़ी स्त्री पर टिकटिकी लगाये हुए हैं। उसका नाम है कुब्जा, वह कंस के पास अंगराग लेकर जा रही है। कृष्ण बोलते हैं- “ओ सुन्दरी !”

उस कुरुपा में भी सौंदर्य देखने वाला कैसा है तुम्हारा अकालपुरुष ब्रह्म ! कुब्जा ने सोचा कि ‘किसी सुंदरी को बुलाते होंगे, मैं तो कुब्जा हूँ।’ अनसुना करके खबुर-खबुर जूतियाँ घसीटती हुई धूल उड़ाती जा रही है। श्रीकृष्ण ने फिर से आवाज लगायीः “ओ सुन्दरी !” उसने देखा कि यहाँ तो छोरे-छोरे हैं, कोई छोरी तो है नहीं ! वह आगे बढ़ी। श्रीकृष्ण ने फिर से प्रेम में भरकर कहाः “ओ सुन्दरी !” अब उसका छुपा हुआ प्रेमस्वभाव छलका, उसने कहाः “बोलो सुन्दर !”

कृष्ण बोलेः “यह अंगराग मुझे दोगी ?”

बोलीः “हाँ ! लो, लगा लो, लगा लो।”

बात बन गयी। कुछ न कुछ दिये बिना जीव कैसे मुझे पायेगा ! अंगराग माँग लिया। विश्व को देने वाले वे दाता अंगराग लगाने वाली एक साधारण कुब्जा-कुरुपा, कुबड़ी को बोलते हैं- “ए सुंदरी !” और वह कृष्ण को बोलती हैः “बोलो सुन्दर !” काम बन गया !

श्रीकृष्ण बताते हैं कि प्रेम ही विश्व में राज्य करता है। स्वामी रामतीर्थ बोलते थे यह कायदा-कानून तो अपने अधिकार की रक्षा और दूसरे का शोषण करने का एक राजमार्ग है। डण्डे के बल से, आतंक के बल से जो करवाया है, वह लोग बेचारे मजबूरन करते हैं और व्यवस्था है त वह प्रेम के बल से है। माँ बच्चे को प्रेम से पालती-पोसती है। बच्चा भी कर्तव्य समझकर प्रेम से माँ-बाप, गुरु या समाज की सेवा करता है। संत कबीर जी कहते हैं-

प्रेम न खेतों ऊपजे प्रेम न हाट बिकाय।

राजा चहो प्रजा चहो शीश (अहं) दिये ले जाय।।

और तुम्हारा वास्तविक स्वभाव प्रेम है। प्रेम जब धन में फँसता है तो लोभ बनता है, परिवार में फँसता है तो मोह बनता है, शरीर की अहंता में फँसता है तो अहंकार बनता है। प्रेम अगर किसी नाम-रूप में उलझता है तो मायामय बनकर फँसाता है और प्रेम को अगर शुद्ध-बुद्ध रूप में देखा जाय तो वह परमात्मा ही है।

अंगराग लिया और उसके पैर पर पैर रखके ठोड़ी को यूँ झटका मारा तो सचमुच वह कुबड़ी सुंदरी हो गयी। कृष्ण कन्हैया लाल की जय !

भगवान का भगवानपना केवल अवतारकाल में ही नहीं था, वह अब भी है। हमारा भगवान यह नहीं जो कभी हो और कभी न हो, कहीं हो और कहीं न हो, किसी में हो और किसी में न हो, उसको भारतवासी पूर्ण परमात्मा नहीं मानते। आया और चला गया, फिर नहीं है उसको हम भगवान नहीं मानते। भगवान तो हम मानते हैं जो पहले थे, अभी हैं और बाद में रहेंगे। कभी साकार रूप मे विशेष लीला करने के लिए प्रेमावतार में आ गये, मर्यादा-अवतार में आ गये, कच्छप-अवतार में आ गये, मत्स्य-अवतार में आ गये और सर्वत्र ज्यों के त्यों भरपूर भी रहे… जिस-जिस अवतार में जितनी बुद्धि, योग्यता और सामर्थ्य की आवश्यकता होती है, उतना ही प्रगट करते हैं और फिर वह अवतार अन्तर्धान हो जाता है, फिर भी भगवान सबमें रहते हैं। जैसे कहीं-कहीं छोटी तरंग, कहीं बड़ी, कहीं बहुत बड़ी तरंग…. फिर भी समुद्र में पानी हो तो व्याप रहा है।

जीवन केवल समस्याएँ और उनके समाधान के लिए नहीं है। जीवन हास्य के लिए, विनोद के लिए, आनंद के लिए, माधुर्य के लिए, अपने सुखस्वभाव को छलकाने के लिए है और अंतरात्मा में विश्रान्ति पाने के लिए है। श्रीकृष्ण के पास गंधर्व-विद्या है। उसमें वाद्ययंत्र भी होता है, गायन और नृत्य भी होता है। वाद्य में भी बंसी सर्वोपरि है तो उसको बजाने वाले श्रीकृष्ण भी सर्वोपरि हैं।

श्रीकृष्ण ने इतना मन लगाकर चार वेद, चार उपवेद का ज्ञान पाया कि उनके ज्ञान की थोड़ी-सी छटा है, जो गीता होकर विश्वंदनीय हो रही है। ऐसे श्रीकृष्ण के अवतरण का दिवस है जन्माष्टमी-महोत्सव।

आप कभी यह नहीं मानना कि वे दूर हैं, दुर्लभ हैं, परिश्रम से मिलेंगे, पराये हैं, कुछ साधन होगा, कुछ तपस्या होगी, कुछ क्या-क्या होगा। तब मिलेंगे…. नहीं-नहीं। सो साहिब सद सदा हजूरे, अंधा जानत ताको दूरे। श्रीकृष्ण सुबह उठते हैं तो शांत भाव में रहते हैं। वे तुम्हें प्रेरणा देते हैं कि प्रातः उठते ही अपने आत्मस्वभाव में, आनंद-स्वभाव में, शांतस्वभाव में संकल्परहित स्थिति में टिक रहो। जिसको जाना है उसका आदर करो, जिसको माना है उसमें दृढ़ श्रद्धा करो। करने की शक्ति का, जानने की शक्ति का, मानने की शक्ति का ठीक सदुपयोग करो।

गुरु की वाणी वाणी गुर, वाणी विच अमृत सारा।

भगवान ने गुरुरूप में अर्जुन को तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया और अर्जुन ने स्थिति पायी। अर्जुन कहता हैः नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा। तो गीता के ज्ञान से ही आम आदमी को यह संदेशा मिलता है कि भगवान के साकार दर्शन के बाद भी जब भगवद्-तत्त्व का ज्ञान देने वाले गुरु हमको मिलें अथवा भगवान गुरु की भूमिका अदा करें, तब हम दुःखों से बचते हैं। इसलिए कहते हैं-

गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।

मंगल तो देवता की कृपा से हो जायेगा, तपस्या से हो जायेगा, किसी के वरदान से हो जायेगा, किसी के साथ-सहयोग से हो जायेगा परंतु परम मंगल तो सदगुरु के, साक्षात्कारी महापुरुष के ज्ञान से ही होगा। श्रीकृष्ण ऐसे सदगुरु हैं, ऐसे महापुरुष हैं।

जो विद्या अरण्य में दी जाती है वह युद्ध के मैदान में श्रीकृष्ण ने बंसी बजाते हुए दी है। वीर अर्जुन को भी उस गीता का प्रसाद मिलता है और भक्त संजय को भी मिलता है। बाहर से और भीतर से जो अंधे हैं धृतराष्ट्र…. बाहर से आँखें नहीं हैं और भीतर से ऐसी ममता है कि भीतर से भी कुछ सूझता नहीं है, उन्हें भी गीता का प्रसाद मिला है।

वैदिक धर्म में प्रार्थनाएँ हैं, मंदिर में प्रार्थनाएँ करते हैं, यकीन-श्रद्धा है, करूणा भी है, अहिंसा भी है किंतु एक खास बात है – विशेषता यह है कि इसमें हित की प्रधानता है। अगर उँगली कटाने से हाथ बच जाता है तो उँगली काटो। अगर हाथ कटाने से शरीर बच जाता है तो हाथ कटाओ। दुर्योधन को मारने से मानवता की रक्षा होती है तो दुर्योधन को पहुँचाओ। अर्जुन कहता है कि “मैं भिक्षा माँगकर खाऊँगा, युद्ध नहीं करूँगा।” कृष्ण ने प्रोत्साहित किया कि ‘जो आततायी हैं, जो निर्दोषों को सताते हैं और फिर मानते नहीं हैं, ऐसे लोगों को दण्ड देना क्षत्रिय का कर्तव्य है।’

कर्तव्यता में देखो तो कृष्ण पूर्ण ! केवल कर्तव्य, नृत्य, हास्य- विनोद है ऐसा नहीं, वैराग्य भी उनमें पूर्ण है। भगवान के छः-के-छः ऐश्वर्य कृष्ण-अवतार में छलकते हैं। बारह साल वृंदावन नहीं आये। नहीं तो ललनाएँ तरस रही हैं, लाले पुकार रहे हैं… कैसा वैराग्य ! गोवर्धन उठाने का ऐश्वर्य भी भगवान में है। धर्म-अनुष्ठान करते हैं, धर्म भी पूर्ण है। यश भी पूर्ण है। अर्जुन और उद्धव जैसों को ज्ञान देने का सामर्थ्य श्रीकृष्ण में है।

अमीरी की ऐसी की, सब जर लुटा बैठे।

फकीरी की तो ऐसी की, ज्ञान के द्वार आ बैठे।।

जीवन में लोलुपता का अभाव, भय का, शुष्कता का अभाव देखना है तो श्रीकृष्ण के जीवन में देखो। श्रीकृष्ण के बेटे उनकी बात नहीं मानते और कभी उनके मुँह पर सुना भी देते हैं किंतु कृष्ण उदास नहीं होते। आज साधारण सेठ का बेटा नहीं मानता तो सेठ कहता हैः “मैं तो मर गया ! दो छोकरे तो मानते हैं पर तीसरा ऐसा है।” आँसू बहार रहे हैं… दो मान रहे हैं उसकी खुशी में तू बंसी बजा। श्रीकृष्ण के बेटे तो मानते ही नहीं थे। साधु-संत आते, अरे ! भीम जैसे आते, युधिष्ठिर आते तो श्रीकृष्ण खड़े हो जाते, ऐसे शिष्टाचार के धनी। और श्रीकृष्ण के छोरे तो साधु-संत जा रहे थे तो उनकी मखौल उड़ाने के लिए एक लड़के को तसला बाँध के, अंदर मूसल रख के महिला का पहनावा पहना के बोलेः “महाराज ! यह गर्भवती है। इसको बेटा होगा कि बेटी ?” संत बोलेः “न बेटा आयेगा, न बेटी आयेगी, तुम्हारा नाश करने वाला आयेगा।” लो ! इन शैतानों की शैतानियत समाज को दुःख देगी इसलिए अपने होते-होते अपने बेटों को भी ऋषियों के द्वारा रवाना करते हैं। कैसा वैराग्य ! कैसा समाज के हित की भावना से भरा हुआ यह भगवान है !!

सचमुच, हम भाग्यशाली हैं कि हमारा वैदिक धर्म में जन्म हुआ है, हम और भी महाभाग्यशाली हैं कि भारतीय संस्कृति का जो स्तम्भ है ऐसा वेद और गीता का ज्ञान सुनने और सुनाने वाले माहौल में हम पैदा हुए हैं। आप ‘दासोऽहम्-दासोऽहम्’ करके सिकुड़-सिकुड़ के दीन-हीन होकर अपनी शक्तियों को कुंठित मत करिये। आप तो संकल्प कीजियेः “मैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हैं। भगवान विकारों के बीच भी निर्विकार हैं तो मैं भी विकारों के बीच भी निर्विकार रहूँगा। भगवान सुख में आसक्त नहीं होते और दुःख में दुःखी नहीं होते, दुःख का भी सदुपयोग करते हैं तो मैं भी ऐसा करूँगा।’

जब जाने का समय हुआ तो एक शिकारी के द्वारा संसार से विदाई ले रहे हैं। शिकारी ने देखा कि यह कोई मृग है, कसा निशाना और तीर श्रीकृष्ण के पैर के तलवे में लगा। शिकारी शिकार समझ के दौड़ता हुआ आया, देखा तो घबराया। श्रीकृष्ण बोलेः “कोई बात नहीं। मैं जानता हूँ ऐसी होनी थी तू जा, निश्चिंत हो जा।”

आखिरी श्वास लेने की वेला है और जिसने तीर मारा है उसको देखकर भी नाराजगी नहीं होती। क्या बात है ! कैसा है तुम्हारा भगवान !! ‘हाय रे, ए तू चला जाऽऽ… अब मैं प्राण-त्याग करता हूँ… आह….!!’ ऐसा करक नहीं गये। अंतिम यात्रा कैसे करनी चाहिए यह भी कृष्ण बताते हैं।

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।

सुखं व यदि दुःखं स योगी परमो मतः।।

‘हे अर्जुन ! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।’

(गीताः 6.32)

सुखद अवस्था आये तो भी, दुःखद अवस्था आये तो भी आप अपने परम ज्ञान में रहिये, परम चेतना में रहिये, परम आनन्द में रहिये और परमपुरुष गुरु के तत्त्व में रहिये, उलझिये मत।

कंस को तो हृदयाघात करके भेज सकते थे अथवा त और कोई दुश्मन देकर पहुँचा सकते थे परंतु भगवान का भगवदपना यह है कि एक उद्देश्य के पीछे कई कल्याणकारी उद्देश्यों को लेकर वर अव्यक्त सत्ता व्यक्त हो जाती है, निराकार साकार हो जाता है, अजन्मा सजन्मा हो जाता है, सबसे असंग रहने वाला सबका संगी बन जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2010, पृष्ठ संख्या 16,17,18,19  अंक 212

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