(सरदार पटेल जयंतीः 31 अक्तूबर)
महान आत्माओं की महानता उनके जीवन-सिद्धान्तों में होती है। उन्हें अपने सिद्धान्त प्राणों से भी अधिक प्रिय होते है। सामान्य मानव जिनि परिस्थितियों में अपनी निष्ठा से डिग जाता है, महापुरुष ऐसे प्रसंगों में भी अडिग रहते हैं। सत्य ही उनका एकमात्र आश्रय होता है, वे फौलादी संकल्प के धनी होते हैं। उनका अपना पथ होता है, जिससे वे कभी विपथ नहीं होते।
सरदार वल्लभ भाई पटेल जिन्हें देश ‘लौह-पुरूष’ के नाम से भी जानता है, ऐसे ही एक सिद्धान्तनिष्ठ नेता थे। उनके जीवन का यह प्रसंग उनके इसी सदगुण की झाँकी कराता है।
वल्लभ भाई अपने पुत्र-पुत्री को शिक्षा हेतु यूरोप भेजना चाहते थे। इस हेतु रूपये भी कोष में जमा कर दिये गये थे लेकिन ज्यों ही असहयोग आंदोलन की घोषणा की गयी, त्यों ही उन्होंने पूर्वनिर्धारित योजना को ठप्प कर दिया। उन्होंने दृढ़ निश्चय किया कि ‘चाहे जो हो, मैं मन, वचन और कर्म से असहयोग के सिद्धान्तों पर दृढ़ रहूँगा। जिस देश के निवासी हमारी बोटी-बोटी के लिए लालायित हैं, जो हमारे रक्त तर्पण से अपनी प्यास बुझाते हैं, उनकी धरती पर अपनी संतान को ज्ञान प्राप्ति के लिए भेजना अपनी ही आत्मा को कलंकित करना है। भारत माता का आत्मा को दुखाना है।’
उन्होंने सिर्फ सोचा ही नहीं, अपने बच्चों को इंग्लैंड में पढ़ने से साफ मना कर दिया। ऐसी थी उनकी सिद्धान्त-प्रियता। तभी तो थे वे ‘लौह पुरुष’।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 25, अंक 214
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